मां का घर: एक टूटे रिश्ते की पुनर्रचना

प्रस्तावना

हर घर की दीवारों के पीछे कुछ ऐसी कहानियां छुपी होती हैं, जो बाहर से देखने पर कभी समझ नहीं आतीं। कभी-कभी एक मां की चुप्पी, उसकी झुकी हुई आंखें और उसके कांपते हाथ, उस दर्द की गवाही देते हैं जिसे वह सालों तक अपने दिल में दबाए रहती है। यह कहानी एक ऐसी ही मां—सावित्री देवी—की है, जिसे उसके इकलौते बेटे अमित ने घर से निकाल दिया। लेकिन मां ने जो किया, उसने पूरे मोहल्ले को रुला दिया, और बेटे की जिंदगी बदल दी। यह कहानी है त्याग, माफी, और रिश्तों की गहराई की।

पहला भाग: एक घर, एक मां, एक बेटा

रात के नौ बज रहे थे। पुरानी गली के आखिरी छोर पर एक दो मंजिला घर था, जिसकी दीवारों पर समय की मार साफ नजर आती थी। बरामदे के कोने में सफेद सूती साड़ी पहने, माथे पर हल्का सा टीका लगाए, चेहरे पर झुर्रियों की गहरी लकीरें लिए, सावित्री देवी चुपचाप बैठी थी। वह भगवान की छोटी सी मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर बुदबुदा रही थी—”हे प्रभु, मेरे बच्चों को हमेशा खुश रखना।”

घर में अमित और उसकी पत्नी नेहा भी रहते थे। आठ साल पहले जब अमित की शादी हुई थी, तब घर रोशनी से जगमगा उठा था। रिश्तेदार कहते थे—”सावित्री दीदी, अब तो बुढ़ापा खुशी में कटेगा।” लेकिन वक्त ने ऐसा पलटा खाया कि वही घर धीरे-धीरे दर्द की कैद बन गया।

उस रात अमित घर लौटा, चेहरे पर गुस्सा और आंखों में नफरत थी। “मां, कितनी बार कहा है मेरे कमरे में मत आया करो। नेहा को बिल्कुल पसंद नहीं,” वह चिल्लाया। सावित्री देवी धीमी आवाज में बोली, “बेटा, मैं तो बस तुम्हारे लिए दवाई रखने आई थी। तुम्हारा सारा दिन काम में निकलता है, मुझे लगा थक गए होंगे।” अमित ने झल्लाकर मेज पर रखा गिलास जोर से फेंक दिया। “बस कीजिए मां। आपसे यह भावनाओं का नाटक और नहीं झेला जाता। आपको समझ नहीं आता कि अब यह घर केवल आपका नहीं है।”

नेहा भी अंदर से निकल आई, चेहरे पर बनावटी मासूमियत लिए। “अमित, छोड़ो ना। मां को समझाओ। आजकल पड़ोस वाले भी बातें बनाने लगे हैं कि यह घर उनके नाम है। अच्छा लगेगा क्या?” सावित्री देवी दोनों को देखती रही, मौन लेकिन अंदर से टूटती हुई।

दूसरा भाग: मां का दर्द और बेटे का फैसला

रात काफी बीत चुकी थी। सावित्री देवी बरामदे में बैठकर उम्मीद से भरी आंखों से सोच रही थी—”यह वही बेटा है जिसे मैंने अपने हाथों से खाना खिलाया, जिसकी पढ़ाई के लिए अपने गहने तक बेच दिए। आज उसकी नजरों में मैं बोझ बन गई।” उनकी आंखें भर आईं, लेकिन अब आंसू भी थक चुके थे।

अचानक अमित और नेहा दोनों बाहर आए, हाथ में एक छोटा सा बैग और दस्तावेज। “मां, हमने फैसला कर लिया है। कल से आप इस घर में नहीं रहेंगी। हमने आपको वृद्धाश्रम में जगह दिलवा दी है। वहां आपके जैसे लोग हैं, आपका मन लग जाएगा।” सावित्री देवी ने एक पल को सोचा, शायद यह सपना है। लेकिन नेहा ने जब उनका हाथ पकड़कर मजबूती से बाहर की ओर खींचा तो यह कड़वी हकीकत बन गई।

बरामदे के बाहर काली सड़क फैली हुई थी और वही सावित्री का नया घर था। रात की ठंडी हवा में उनकी साड़ी फड़फड़ा रही थी। पर आवाज बस इतनी थी—”अच्छा किया बेटा, भगवान तुम्हें खुश रखे।” वह बिना शिकायत, बिना शोर बस एक मुस्कान के साथ घर से बाहर चली गई।

तीसरा भाग: वृद्धाश्रम का पहला दिन

सावित्री देवी धीमे-धीमे कदमों से वृद्धाश्रम की ओर बढ़ रही थी। हाथ में एक पुराना सा कपड़े का बैग जिसमें बस दो साड़ियां, एक पुरानी फोटो और भगवान का छोटा सा मंदिर था। ठंडी हवा चेहरे पर लग रही थी, लेकिन दर्द उससे कई गुना गहरा था। आंखों में आंसू नहीं थे, क्योंकि आंसू तो तब आते हैं जब उम्मीद बची होती है।

वृद्धाश्रम का दरवाजा लाल रंग का लोहे का बड़ा गेट था, जिसके ऊपर धुंधले अक्षरों में लिखा था—”सहारा वृद्धाश्रम: बेसहारा लोगों का घर।” दरवाजा खटखटाने पर एक बुजुर्ग चौकीदार ने लाठी पर सहारा लेते हुए बाहर देखा। “मां, इतनी रात को?” उसने करुणा से पूछा। सावित्री ने हल्की मुस्कान दी—”बेटे, अब घर यही है।”

चौकीदार ने गहरी सांस ली, शायद वह समझ गया था कि इस वक्त आने वालों की कहानी सिर्फ दिल तोड़ने वाली होती है। वह चुपचाप गेट खोलकर अंदर ले गया। अंदर बुजुर्गों की कतार थी—कोई बेंच पर सिर झुकाए बैठा था, कोई कोने में चुपचाप रो रहा था, कोई घड़ी देखकर इंतजार कर रहा था किसी अपने का, जो शायद कभी नहीं आएगा।

सावित्री ने एक बिस्तर पर जगह ली और बैग खोलकर भगवान की मूर्ति रख दी। उनके होठों पर बस इतना निकला—”कितने अजीब होते हैं रिश्ते। जिनके लिए सब किया, आखिर उन्हीं ने निकाल दिया।” लेकिन अगले ही पल उन्होंने माथा झुकाया—”हे प्रभु, अगर आपने यह रास्ता दिखाया है तो इसमें भी कोई भलाई होगी।”

चौथा भाग: वृद्धाश्रम में नया जीवन

अगली सुबह सूरज की हल्की किरणें खिड़की से अंदर आईं। चिड़ियों की आवाज के साथ वृद्धाश्रम का दिन शुरू हुआ। सावित्री ने देखा कि वहां कई महिलाएं और पुरुष थे, जिनकी कहानियां लगभग उनसे मिलती-जुलती थीं। उनके चेहरे पर पहले दिन ही सबका दिल जीत लेने वाली ममता और विनम्रता थी।

नाश्ते के बाद वृद्धाश्रम की प्रबंधक अनन्या उनके पास आई। “मां जी, सब ठीक है ना?” सावित्री ने नम्र आवाज में कहा—”हां बेटी, भगवान की दया है। यहां सब अपने जैसे ही हैं।” अनन्या कुछ देर उन्हें देखती रही, फिर बोली—”मां जी, आपको देखकर लगता है जैसे आप बहुत सम्मानित परिवार से हैं। क्या आप बता सकती हैं आपके साथ क्या हुआ?”

सावित्री ने मुस्कुराकर कहा—”बेटी, एक मां की कहानी में सिर्फ त्याग होता है, शिकायत नहीं।” अनन्या की आंखें भर आईं। वह बोली—”मां जी, आप चिंता मत कीजिए। यहां आप सुरक्षित हैं और हां, हर व्यक्ति का समय बदलता है, आपका भी बदलेगा।”

सावित्री ने मन में सोचा—”समय बदले या ना बदले, मुझे अपने बेटे की खुशी चाहिए।”

पांचवां भाग: बेटे के घर में खामोशी

उधर अमित और नेहा के घर में वो रात बहुत भारी थी। उन्हें लगा था कि मां के जाने के बाद शायद घर हल्का हो जाएगा, परेशानियां खत्म हो जाएंगी। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट। डाइनिंग टेबल पर खाना लगा था, पर अमित की भूख गायब थी। बार-बार उसे मां की आवाज, उनके पैरों की आवाज, रसोई की खनक सब सुनाई देता था, लेकिन अब घर में खामोशी थी। ऐसी खामोशी जो कानों में शोर बनकर बज रही थी।

नेहा बोली—”क्या हुआ अमित, तुम इतने चुप क्यों हो?” अमित ने गुस्से में कहा—”थोड़ा वक्त दो, सब ठीक हो जाएगा।” लेकिन नेहा का ध्यान किसी और चीज पर गया। ड्रॉअर खुला हुआ था और उसमें से एक दस्तावेज गायब लग रहा था। वह घबरा गई—”अमित, वो प्रॉपर्टी के कागज नहीं दिख रहे।” अमित ने झटके से ड्रॉअर खंगाल दिया—”नहीं, असंभव। मां तो…” उसका दिमाग घूम गया—”क्या मां जाते वक्त घर के कागज अपने साथ ले गई? लेकिन क्यों? कहीं घर उनके नाम तो नहीं था?”

अमित के माथे पर पसीना आ गया। सावित्री देवी का सच वो रात वृद्धाश्रम में भी नींद नहीं आई। सावित्री भगवान की मूर्ति के सामने बैठी और धीरे से बोली—”हे प्रभु, कल मैंने जो किया क्या वह सही था?”

छठा भाग: वसीयत का सच और बेटे का पछतावा

जो कोई नहीं जानता था, वो यह था कि घर पूरी तरह सावित्री देवी के नाम था। अमित ने कभी दस्तावेज ध्यान से देखे ही नहीं थे। उसे लगा था शादी के बाद प्रॉपर्टी खुद-ब-खुद उसी की हो जाएगी। लेकिन सावित्री ने पति की मृत्यु के बाद कागज नहीं बदले थे। और जाने से पहले उन्होंने वह सारे कागज बैग में रख लिए थे।

“मैंने उसे बेघर करने के लिए नहीं, बल्कि एक सबक देने के लिए छोड़ा है। कभी-कभी टूट कर भी इंसान को अपनी कीमत दिखानी पड़ती है।”

वह पल जब समय पलटने वाला था। उधर घर में बेटे-बहू की हालत बिखरने लगी। इधर वृद्धाश्रम में सावित्री ऐसी थी जैसे कोई रोशनी बनकर सबका दिल ठीक कर रही हो।

दो दिन बाद अनन्या उनके पास भागती हुई आई। “मां जी, कोई आपसे मिलने आया है।” सावित्री ने सिर उठाया। दरवाजे पर एक आदमी खड़ा था, सूट पहने, हाथ में फाइलें और आंखों में एक अजीब इश्त। वो था वकील श्रीकांत।

“सावित्री जी, मैं आपके पति का पुराना वकील हूं। मुझे पता चला कि आप यहां हैं। आपके पति ने अपनी वसीयत में जो लिखा था, उसे अब पढ़ने का समय आ गया है।”

वृद्धाश्रम के छोटे से हॉल में कुर्सियां लगाई गई थीं। वातावरण में एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी। सवित्री देवी बीच में बैठी थी। उनके सामने वकील श्रीकांत फाइल लेकर खड़े थे। अनन्या और वृद्धाश्रम के बाकी लोग भी उत्सुकता से देख रहे थे।

वकील ने चश्मा ठीक किया और भारी आवाज में बोला—”यह दस्तावेज आपके पति स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद सिंह की वसीयत है, जो उनके निधन से चार महीने पहले तैयार की गई थी।”

सावित्री देवी ने आंखें बंद कर ली। वो आवाज सुनते ही उन्हें पति की मुस्कुराहट, उनका हाथ पकड़ कर कहना याद आया—”सावित्री, यह घर तुम्हारा है क्योंकि तुमने इसे बनाया है।”

वकील ने पढ़ना शुरू किया—”मैं राजेंद्र प्रसाद सिंह, पूर्ण मानसिक स्थिति में यह घोषणा करता हूं कि मेरी प्रॉपर्टी, बैंक बैलेंस एवं सारी कीमती कागजात मेरी पत्नी सावित्री देवी के नाम रहते हैं। मेरी मृत्यु के बाद यदि मेरा बेटा उसका सम्मान करे तो अच्छा है। अगर नहीं, तो मेरी पत्नी को पूरा अधिकार होगा कि वह अपनी इच्छा अनुसार कोई भी निर्णय ले सके।”

सभी लोग स्तब्ध रह गए। वकील ने आगे कहा—”और एक विशेष निर्देश—यदि कभी बेटा अपनी मां को घर से निकाल दे या अपमान करे, तो उसे घर पर कोई अधिकार नहीं होगा।”

पूरा हॉल एक पल के लिए पत्थर जैसा शांत हो गया। दीवार घड़ी की टिकटिक तक सुनाई देने लगी। अनन्या की आंखें भर आई। उसने सावित्री का हाथ पकड़ा और धीमे से बोली—”मां जी, भगवान सब देखता है।”

सातवां भाग: बेटे की गलती और मां की माफी

उधर अमित और नेहा का घर दोपहर के लगभग 1:00 बजे था। अमित बेचैन होकर कमरे में चक्कर काट रहा था। नेहा लगातार फोन चेक कर रही थी, लेकिन मन में डर साफ दिखाई दे रहा था।

“अमित, पुलिस केस तो नहीं हो जाएगा? अगर घर मां के नाम है तो हम यहां रह भी कैसे सकते हैं?”

अमित गुस्से में दीवार पर मुक्का मारते हुए बोला—”मां ऐसा कभी नहीं कर सकती। तुम समझ क्यों नहीं रही?”

नेहा झुंझलाकर बोली—”क्यों नहीं करेगी? जिस तरह तुमने रात को उन्हें घर से निकाला था, उसकी जगह कोई भी बदला ले सकता है।”

अमित की आंखों में अपराध की पसीना भरी चमक दिखाई दी। वो चुप हो गया। उसके कानों में मां की आवाज गूंजी—”अच्छा किया बेटा, भगवान तुम्हें खुश रखे।” उस एक वाक्य ने उसका दिल चीर दिया।

तभी दरवाजे की घंटी बजी। अमित ने जैसे-तैसे दरवाजा खोला। बाहर खड़े थे वकील श्रीकांत और मोहल्ले के कई लोग। सबके चेहरे गंभीर थे।

वकील ने कागज दिखाते हुए कहा—”अमित जी, यह नोटिस है। आपको 48 घंटे के अंदर यह घर खाली करना होगा, क्योंकि यह घर आपकी मां सावित्री देवी के नाम है।”

नेहा के हाथ से पानी का गिलास गिर गया। अमित के कदम लड़खड़ा गए। मोहल्ले में खुसरपुसर शुरू हो गई—”कैसा बेटा है? जिस मां ने पाला, उसी को निकाल दिया। भगवान का न्याय देखो।”

अमित ने सिर पकड़ लिया। उसकी आंखें भर आईं, पर आंसू निकलने में शर्म हावी थी।

आठवां भाग: मां-बेटे का पुनर्मिलन

वृद्धाश्रम में वही समय सावित्री देवी मंदिर के सामने बैठी प्रार्थना कर रही थी। उनकी हथेलियों में वही पुरानी फोटो थी जिसमें अमित बचपन में उनके कंधों पर बैठा मुस्कुरा रहा था। वह धीरे से बोल रही थी—”हे भगवान, मैंने जो किया वह बदले की भावना से नहीं, बस उसे उसकी गलती दिखाने के लिए किया है। मैंने उसे घर से निकाला नहीं, बस सच उनके सामने रखा है। अब फैसला आपका है।”

इतने में अनन्या दौड़ती हुई आई—”मां जी, आपका बेटा आया है।” सावित्री ने सिर उठाया। दरवाजे पर अमित खड़ा था, बिखरे बाल, आंखों में आंसू और चेहरे पर पछतावा।

अमित उनके पैरों में गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा—”मां, मुझे माफ कर दो। मैं बहुत बड़ा पापी हूं। मैंने आपको घर से नहीं, खुद की जिंदगी से निकाला था।”

पूरे वृद्धाश्रम के लोग रो रहे थे। अनन्या ने मुंह मोड़ लिया ताकि आंसू ना दिखे। अमित ने कांपते हुए कहा—”मां, घर आपका है। मैं सिर्फ आपके पैरों की धूल भी नहीं। बस एक बार कह दीजिए कि आप मुझे माफ करती हैं।”

सावित्री ने उसके सिर पर हाथ रखा। उनकी आवाज में वर्षों की तपस्या थी—”बेटा, मां कभी अपने बच्चों से नाराज नहीं होती। जिस बच्चे को 9 महीने पेट में रखा, उसे दिल से कैसे निकाल सकती हूं?”

अमित सुबक उठा—”मां, घर चलिए। प्लीज।”

सावित्री ने शांत स्वर में कहा—”बेटा, मैं घर जरूर चलूंगी, लेकिन जैसे गुलाम नहीं, जैसे सम्मानित मां।”

अमित ने तुरंत कहा—”मां, अब आपका हर आदेश सिर माथे।”

वृद्धाश्रम तालियों से गूंज उठा। मां ने भगवान की मूर्ति उठाई और धीमे से कहा—”अब समय है घर लौटने का।”

नौवां भाग: घर की दहलीज पर मां का स्वागत

वृद्धाश्रम से बाहर निकलते समय हवा में एक अजीब सी हल्की गर्माहट थी, मानो भगवान खुद मां के साथ चल रहे हों। सावित्री देवी ने धीरे-धीरे कदम बढ़ाए। उनके पीछे अमित था, जिसकी आंखें लाल थी और हाथ लगातार कांप रहे थे। वह हर कदम पर खुद को दोषी महसूस कर रहा था। जैसे हर पत्थर उसके पाप की गवाही दे रहा हो।

गेट के बाहर कई लोग खड़े थे। मोहल्ले वालों में से कुछ सावित्री देवी को देखकर भावुक हो गए। एक बुजुर्ग महिला बोली—”दीदी, देखो भगवान का न्याय कैसे करिश्मा दिखाता है। बेटा अपनी मां के चरणों में है।”

अमित ने जैसे ही वह बात सुनी, उसने और भी झुककर मां के पैर छुए। उसके शब्द टूटे हुए थे—”मां, मैं बहुत बुरा हूं। मैंने आपको दुख दिए, वो दुख जो कोई बेटा नहीं देता। लेकिन आज से मेरी जिंदगी आपकी सेवा में रहेगी, बस एक बार दिल से माफ कर दो।”

सावित्री ने उसके आंसू पोंछे। उनकी आवाज में ममता थी—ना कोई गुस्सा, ना बदला, सिर्फ प्यार।

“अमित, दर्द से प्यार बड़ा होता है। और मां का दिल कभी अपने बच्चों से खाली नहीं होता।”

दसवां भाग: अंतिम संदेश और घर का नया नाम

एक बात याद रखना—सम्मान वह खजाना है जो खो जाए तो फिर आसानी से नहीं मिलता। अमित ने सिर झुका लिया घर की दहलीज पर—वो घर जिसके बाहर सावित्री कुछ दिन पहले रात में अकेली खड़ी थी। आज उसी घर की दहलीज पर उनका स्वागत किया जा रहा था।

नेहा दरवाजे पर खड़ी थी, चेहरा सूजा हुआ, आंखों में पछतावे भरे आंसू और हाथ कांपते हुए जोड़ रखे थे। “मां, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने बहुत गलत किया। मेरी सोच छोटी थी, मेरा दिल छोटा था। आपसे बड़ी और पवित्र कोई चीज नहीं।” और अचानक नेहा उनके पैरों पर गिर पड़ी, रोते हुए।

सावित्री ने उसे उठाया—”बेटी, गलती इंसान से होती है। गलती भूल हो जाती है, लेकिन भूले रहना सबसे बड़ी भूल होती है।”

नेहा ने सिसकते हुए कहा—”मां, अगर आप चाहे तो मैं यह घर छोड़ दूं। मैं आपके सामने खुद को कभी ऊंचा नहीं रख सकती।”

सावित्री ने उसका चेहरा थाम कर कहा—”बच्चे, गलती सुधारें। यह घर टूटे नहीं, बस यही मेरी जीत है।”

सबकी आंखों में आंसू थे। फर्श पर गिरते आंसू पत्थर के भी दिल पिघला देते।

अंतिम भाग: घर का नया नाम और रिश्तों की जीत

ड्राइंग रूम में सबके बैठने के बाद सावित्री ने बैग में से वह फाइल निकाली—घर की पूरी प्रॉपर्टी के कागज। अमित और नेहा डर से कांप गए। उन्हें लगा कि मां शायद घर बेच देंगी या उन्हें बाहर कर देंगी। लेकिन सावित्री मुस्कुराई और बोली—”यह घर मेरे नाम था, पर मैं इसे सिर्फ चार दीवारों के रूप में नहीं देखती। घर ईंटों से नहीं, दिलों से बनता है और अगर दिल टूटे हो तो घर भी खंडहर हो जाता है।”

उन्होंने पेन उठाया और सभी की सांस रुक गई। वो कागज पर साइन करके बोली—”आज से यह घर अमित और नेहा, तुम दोनों के नाम है।”

नेहा और अमित अक रह गए। सब लोग स्तब्ध। अमित रोते हुए बोला—”मां, आप हमें सजा दे सकती थी। आपने हमें माफ क्यों किया?”

सावित्री की आवाज में पूरे जीवन की तपस्या थी—”बेटा, अगर मैं भी तुम्हें बाहर निकाल दूं, तो तुम और मैं दोनों में क्या फर्क बचेगा? गलती तुमने की थी, लेकिन इंसानियत मैं हार जाती अगर बदले में वही करती।”

उन्होंने अमित और नेहा दोनों के हाथ अपने हाथों में लिए—”बदलाव का सबसे बड़ा रास्ता माफी है। यह घर मैं तुम्हें दे रही हूं, लेकिन इसके साथ एक शर्त भी है—अगर कभी इस घर में मां की जगह बेइज्जती को दी जाएगी, तो यह घर फिर से मेरा हो जाएगा।”

अमित ने तुरंत कहा—”मां, अब इस घर में आपकी इजाजत के बिना कुछ नहीं होगा।”

नेहा ने कहा—”आपका कमरा ऊपर वाला नहीं, हमारे कमरे के साथ वाला बनेगा ताकि हर सुबह आपकी मुस्कान से शुरू हो।”

वातावरण भावनाओं से भर गया था। मोमबत्ती की आग भी जैसे कांप कर रो रही थी।

समापन: मां का घर—सम्मान सबसे बड़ा नियम

अगली सुबह उस घर के बाहर एक बोर्ड लगा था—”मां का घर: जहां सम्मान सबसे बड़ा नियम है।” उस दिन पूरा मोहल्ला जान गया कि दुनिया का सबसे बड़ा धन मां होती है और सबसे बड़ा दिवालियापन मां को खो देना। जो मां दर्द सहकर भी माफ कर दे, वह भगवान से भी बड़ा दिल रखती है।

अंत कहानी यही खत्म नहीं होती। क्योंकि हर मां की कहानी में एक मकसद छुपा होता है—बच्चों को सिखाना कि माता-पिता के बिना घर नहीं, सिर्फ दीवारें बचती हैं।

कहानी का संदेश

अगर आपको यह कहानी दिल को छू गई हो, तो बस एक बात याद रखिए—मां-बाप भगवान का रूप होते हैं, उन्हें कभी अकेला मत छोड़िए। जिस दिन वह चले जाते हैं, उस दिन घर नहीं, जिंदगी बेसहारा हो जाती है।

माता-पिता का सम्मान करें, यही सबसे बड़ा धर्म है।

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(यह कहानी आपके अनुरोध अनुसार विस्तार से लिखी गई है, जिसमें हर भाव, दृश्य और संवाद को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है।)