मां का त्याग: इंसानियत की मिसाल

सिटी हॉस्पिटल की दवा विंडो पर भीड़ लगी थी। कर्कश आवाज़ गूंज रही थी—“यहां फ्री की दवा नहीं मिलती, बिना पैसे के लाइन में खड़ी क्यों हो? चल हट निकल यहां से!” यह आवाज़ थी राजू की, जो दवा काउंटर का कर्मचारी था। उसके सामने खड़ी थी सावित्री, 60 साल की एक कमजोर, दुबली-पतली औरत। फटे पुराने कपड़ों में, सूखी आंखों और कांपते हाथों में एक मैली सी पर्ची थी, जिस पर डॉक्टर ने कुछ दवाइयों के नाम लिखे थे।

सावित्री ने कांपती आवाज़ में कहा, “बेटा, बस दो दिन की दवा दे दो। पैसे मैं कल ले आऊंगी। मेरी जान बच जाएगी।” राजू ने झल्लाकर फाइल काउंटर पर पटकी और सावित्री को जोर का धक्का दे दिया। “यहां क्या धर्मशाला चल रही है? पैसे के बिना पत्ता तक नहीं मिलता। चल भाग यहां से, लाइन खराब कर रही है!”

आसपास खड़े मरीजों ने सब देखा, कुछ ने सिर हिलाकर तरस खाया, कुछ ने मुंह फेर लिया। लेकिन किसी ने मदद की हिम्मत नहीं की। सावित्री का दिल बैठ गया, आंखों में आंसू आ गए। वह अपनी मैली फाइल समेटकर धीरे-धीरे अस्पताल के बाहर चलने लगी।

सावित्री की कहानी सिर्फ एक गरीब महिला की नहीं, बल्कि दर्द, संघर्ष और त्याग की मिसाल थी।

रामपुर गांव की साधारण औरत

सावित्री रामपुर गांव की एक साधारण महिला थी। उसके पति रामलाल की मौत तब हो गई जब उसका बेटा अर्जुन सिर्फ छह महीने का था। विधवा होने के बाद उसकी दुनिया उजड़ गई। गांव में कोई काम नहीं था, ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। मायके में भी कोई सहारा नहीं था। उसने खेतों में मजदूरी की, घरों में झाड़ू-पोछा, पड़ोसियों के घर बर्तन मांजे। लेकिन रोजाना की कमाई इतनी कम थी कि अपने लिए एक रोटी जुटाना भी मुश्किल था।

छोटे अर्जुन को भूख से रोता देखकर उसका दिल फट जाता। वह खुद भूखी रहकर अपने बेटे को दूध पिलाने की कोशिश करती, लेकिन कुपोषण के कारण दूध ही नहीं उतरता था। रातों में वह अर्जुन को गोद में लेकर रोती रहती, “हे भगवान, मुझसे यह नहीं होगा, यह भूख से मर जाएगा।”

महीनों तक यह संघर्ष चलता रहा। अर्जुन दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा था। डॉक्टर ने कहा, “बच्चे को पोषण नहीं मिल रहा, उसे तुरंत अच्छा खाना चाहिए।”

सरपंच की सलाह और मां का बड़ा फैसला

एक दिन गांव के सरपंच बलराम सिंह उसके पास आए। वह भला आदमी था और सावित्री की मदद करना चाहता था। उसने कहा, “शहर में एक अमीर परिवार है—मेहरा साहब। उनकी कोई संतान नहीं है। वे एक बच्चे को गोद लेना चाहते हैं। तेरा अर्जुन यहां भूख से मर जाएगा। अगर तू उसे मेहरा साहब को दे देगी तो वह अच्छी जिंदगी जिएगा, पढ़ेगा, लिखेगा, बड़ा आदमी बनेगा।”

सावित्री रोते-रोते बोली, “लेकिन वह मेरा बेटा है। मां बनना सिर्फ जन्म देना नहीं होता।” सरपंच ने समझाया, “कभी-कभी मां को अपने बच्चे की खुशी के लिए खुद को मिटाना पड़ता है।”

उस रात सावित्री ने अर्जुन को अपने सीने से चिपकाया। आंसू बहाते हुए फुसफुसाई, “बेटा, एक दिन तू बड़ा आदमी बनेगा। और शायद किस्मत अच्छी हो तो तू अपनी मां को पहचान लेगा।”

अगले दिन उसने कांपते हाथों से कागजों पर दस्तखत किए और अपने लाल को मेहरा साहब के हवाले कर दिया।

जुदाई और उम्मीद

अर्जुन के जाने के बाद सावित्री का दिल हर पल रोता रहा। वह शहर आ गई, छोटे-मोटे काम करके गुजारा करने लगी। कभी-कभी वह मेहरा साहब के घर के बाहर से गुजरती और अंदर झांकने की कोशिश करती। एक बार उसने देखा, अर्जुन स्कूल ड्रेस में तैयार होकर कार में बैठ रहा था। उसका दिल खुशी और दर्द के मिश्रण से भर गया—कम से कम मेरा बेटा खुश है।

साल बीतते गए। सावित्री ने सुना कि अर्जुन पढ़ाई में तेज है। फिर सुना कि वह मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले रहा है। “मेरा बेटा डॉक्टर बनेगा!” उसकी आंखों में गर्व की चमक आ जाती।

अब सावित्री 60 साल की हो चुकी थी। सालों की मेहनत और गरीबी ने उसके शरीर को तोड़ दिया था। उसे डायबिटीज और हार्ट की समस्या हो गई थी। डॉक्टर ने कहा, “नियमित दवा लेनी होगी, वरना हालत गंभीर हो सकती है।” लेकिन दवा का खर्च महीने का ₹2000 था, जबकि उसकी कमाई सिर्फ ₹3000 थी। खाने-पीने के बाद दवा के पैसे नहीं बचते थे।

कई बार उसने सोचा, दवा लेना ही छोड़ दे। कब तक जीना है, बेटा तो पराया हो गया। लेकिन फिर उसके दिल में आवाज आती, “अगर कभी अर्जुन ने मुझे ढूंढा, अगर वह अपनी मां से मिलना चाहे तो…”

अस्पताल की बेबसी

आज सावित्री की हालत बहुत खराब थी। सांस फूल रही थी, चक्कर आ रहे थे। मजबूरन उसे अस्पताल जाना पड़ा। डॉक्टर ने जांच के बाद कहा, “तत्काल दवा शुरू करनी होगी।” लेकिन जब वह दवा लेने फार्मेसी गई तो राजू ने उसे धक्के मारकर भगा दिया।

अब वह अस्पताल के बाहर बेंच पर बैठी थी। सांस लेने में तकलीफ हो रही थी, सीने में दर्द उठ रहा था। “हे भगवान, क्या गरीब होना सबसे बड़ा गुनाह है? क्या गरीबों को जीने का हक नहीं?”

फरिश्ता डॉक्टर अर्जुन

उसी समय अस्पताल के मुख्य गेट से एक लंबा, सुंदर सा आदमी अंदर आया। सफेद कोट पहने, गले में स्टेथोस्कोप लटकाए—डॉ अर्जुन मेहरा। अर्जुन शहर का मशहूर कार्डियोलॉजिस्ट था। लोग उसे फरिश्ता कहते थे, क्योंकि उसने कई गरीब मरीजों का मुफ्त इलाज किया था।

अर्जुन की नजर सावित्री पर पड़ी। वह परेशान दिख रही थी। सांस फूल रही थी। वह तुरंत उसके पास गया, “मां जी, क्या हुआ है? तबीयत ठीक नहीं लग रही।”

सावित्री ने कांपते हुए कहा, “बेटा, दवा चाहिए थी लेकिन पैसे नहीं हैं। उन्होंने मुझे धक्का दे दिया।”

अर्जुन के चेहरे पर गुस्सा आ गया। उसने तुरंत फार्मेसी की तरफ कदम बढ़ाए। “राजू! किसने इस मां को यहां से भगाया?” राजू घबरा गया, “सर, वो पैसे नहीं थे उसके पास…” अर्जुन ने गुस्से से कहा, “यहां से कोई मरीज अपमानित होकर नहीं जाएगा। यह मेरी मरीज है और इसका इलाज मैं खुद करूंगा।”

सच्चाई का खुलासा

अर्जुन ने सावित्री को अपने केबिन में ले जाकर बिठाया। जांच करते समय अर्जुन ने सावित्री से पूछा, “आपका नाम क्या है?”
“सावित्री देवी।”
“कहां से आई हैं?”
“रामपुर गांव से।”
“कोई परिवार?”
सावित्री की आंखें भर आईं, “था, एक बेटा था…”
अर्जुन का दिल जोर से धड़कने लगा, “क्या मतलब था?”
सावित्री रुक गई, फिर बोली, “उसे मैंने किसी और को दे दिया था, गरीबी ने मजबूर किया था।”
अर्जुन के हाथ कांपने लगे, “कब और कहां?”
“23 साल पहले मेहरा साहब को दिया था, बच्चा छः महीने का था…”
अर्जुन का मुंह सूख गया, उसकी सांस तेज हो गई, “उसका नाम क्या था?”
“अर्जुन…”
सावित्री ने आंसुओं से भरी आंखों से कहा, “मेरा छोटा सा अर्जुन।”

यह सुनकर अर्जुन के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह बोला, “मां, वह अर्जुन मैं हूं। आप मेरी असली मां हो।”

सावित्री चौंक गई, फिर अर्जुन के चेहरे को गौर से देखने लगी, “तू… तू मेरा बेटा है?”
अर्जुन ने सिर झुकाकर कहा, “हां मां, मैं आपका अर्जुन हूं, जिसे आपने प्यार से पाला, फिर मेरी खुशी के लिए छोड़ दिया।”

सावित्री उठकर अर्जुन के सीने से लग गई। दोनों रो रहे थे। “बेटा, तू कितना बड़ा हो गया, डॉक्टर बन गया। मेरे सपने सच हो गए।”
अर्जुन ने मां के पैर छूकर कहा, “मां, आपने मुझे जिंदगी दी, फिर बेहतर जिंदगी भी दी। आज मैं जो कुछ भी हूं, आपकी वजह से हूं।”

पूरा अस्पताल यह देखकर दंग रह गया। जो औरत दवा के लिए भीख मांग रही थी, वह अस्पताल के सबसे बड़े डॉक्टर की मां निकली। राजू शर्म से पानीपानी हो गया, दौड़कर सावित्री के पैर छूकर माफी मांगने लगा।

इंसानियत का संदेश

अर्जुन ने सारे स्टाफ को इकट्ठा करके कहा, “यह सिर्फ मेरी मां नहीं, हर गरीब मरीज की मां है। आज से अगर किसी ने भी किसी गरीब मरीज के साथ बुरा व्यवहार किया, तो उसकी नौकरी चली जाएगी।”

सावित्री ने अर्जुन का हाथ पकड़ा, “बेटा, मुझे इतनी खुशी मिल गई कि अब मरने का भी डर नहीं। तू इतना अच्छा इंसान बना है।”
अर्जुन ने कहा, “मां, अब आप मेरे साथ रहेंगी और हमेशा स्वस्थ रहेंगी।”

अर्जुन ने सावित्री को अपने घर ले गया। उसकी पत्नी प्रिया और बेटी आरती ने सावित्री को बहुत प्यार से अपनाया। प्रिया ने कहा, “मां जी, अब यह आपका घर है। आपकी वजह से ही मुझे इतना अच्छा पति मिला।” छोटी आरती ने दादी के गले लगकर कहा, “दादी मां, अब आप हमेशा यहीं रहेंगी ना?”

सावित्री की खुशी का ठिकाना नहीं था।

सावित्री विंग: त्याग का सम्मान

कुछ महीने बाद अर्जुन ने अस्पताल में एक नया विंग खोला—“सावित्री विंग”, जहां सभी गरीब मरीजों का इलाज बिल्कुल मुफ्त होता था। उद्घाटन के दिन उसने भाषण दिया, “मेरी मां ने मुझे सिखाया कि त्याग सबसे बड़ा प्रेम है। गरीबी किसी का गुनाह नहीं, बल्कि हालात की मजबूरी है। आज से कोई भी गरीब मरीज इस अस्पताल से खाली हाथ नहीं जाएगा।”

सावित्री ने मंच से कहा, “मैंने अपने बेटे को इसलिए छोड़ा था कि वह अच्छी जिंदगी जी सके। आज देखती हूं तो लगता है कि मेरी कुर्बानी सफल हो गई। वह सिर्फ डॉक्टर नहीं, इंसानियत का डॉक्टर बना है।”

पूरी भीड़ तालियों से गूंज उठी। यह कहानी हमें सिखाती है कि मां का प्यार निस्वार्थ होता है। कभी-कभी मां को अपने बच्चे की खुशी के लिए सबसे कड़ा फैसला लेना पड़ता है। लेकिन सच्चा प्यार कभी खत्म नहीं होता। समय आने पर वह वापस अपने घर लौट आता है। और सबसे बड़ी बात—गरीबी कोई अपराध नहीं है। हर इंसान को सम्मान और इलाज का हक है।

अर्जुन रोज शाम को मां के पैर दबाते हुए कहता, “मां, आपकी कुर्बानी ने मुझे सिखाया कि असली डॉक्टर वह होता है जो हर मरीज में अपनी मां देखता है।”
सावित्री ने प्यार से बेटे का सिर सहलाया, “बेटा, अब मेरे सारे सपने पूरे हो गए। तू सिर्फ मेरा बेटा नहीं, समाज का बेटा बन गया है।”