मार्मिक कहानी: तू लौटेगा ना?

मुंबई की भीड़भाड़ वाली गलियों में एक शख्स रोज़ अपने ऑफिस जाते वक्त उसी नुक्कड़ वाले चाय-ठेले को देखता था। कुछ साल पहले यही उसका सबसे प्यारा कोना हुआ करता था, जहां वह अपनी पत्नी कविता के साथ शामें बिताया करता था। पर अब दोनों की राहें अलग हो चुकी थीं।

कभी जिन हाथों ने एक-दूसरे की हथेली थामकर वक्त से जिद की थी कि साथ रहेंगे, वही आज खामोश थे। हालात ऐसे बने कि दोनों को अलग होना पड़ा। कविता ने खुद्दारी से नया जीवन जीना शुरू किया—एक छोटी सी चाय और फल की दुकान खोलकर। उसकी दुनिया थी — बीमार बेटी ‘महिमा’, मां और कंधों पर ढेरों जिम्मेदारी का बोझ।

एक दिन सचिन का रास्ता अचानक उसी पुराने मोहल्ले से गुजरता है। पहली नजर में उसे विश्वास नहीं होता, मगर दुकान के पीछे खड़ी वह औरत वही कविता थी। बनावट, चाल, माथे का तिल — सब कुछ वैसा ही था। वह खामोश सा, चुपचाप खड़ा रहा ताकि कविता उसे पहचान न सके। आँखों में आँसू थे और दिल में पछतावा, लेकिन शब्द बिल्कुल नहीं। कुछ देर बाद सचिन ने खुद को संभाला और दुकान पर पहुँचा। डरते हुए बोला, “एक कड़क चाय और कुछ आम दे दीजिए।” कविता पहचान नहीं सकी, बस अपने रोजमर्रा के ढंग से काम करती रही।

चाय का प्याला पकड़ा और बोली, “साहब, आम मीठे हैं, पर थोड़े मुरझा गए हैं, ताजा सुबह ही लाई हूं।” सचिन ने सारे आम खरीद लिए और चुपचाप पैसे देने लगा, पर कविता ने नोट गिनकर बोला,“साहब, ₹200 ज्यादा दे दिए, भीख नहीं चाहिए, बस इज्जत चाहिए!”

इतने सालों में सचिन के चेहरे, कपड़ों और हालात में बहुत फर्क आता गया था, मगर अन्दर का खालीपन और पछतावा कम नहीं हुआ था। यह सुनकर उसकी आंखें पानी से भर आईं। कंपकंपी सी महसूस कर बोला, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता क्या?” कविता ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “12 साल पहले तलाक हो गया साहब।”

सचिन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वो दुकान से हट गया लेकिन उसकी निगाह वहीं रखी एक बच्ची की फोटो पर अटक गई — वही मासूम सी मुस्कान, वही चमकती आंखें। क्या वो महिमा थी? सचिन सोचता रहा, क्या वाकई उसने सब खो दिया?

थोड़ी देर बाद कविता दुकान समेट, पेटी उठाकर घर रवाना होने लगी। सचिन खुद को रोक न सका और उसके पीछे चल पड़ा। तंग गली, टूटे-फूटे मकान, भीगी दीवारें — पर कविता का घर साबुत था। दरवाजे के पास गांव की बूढ़ी महिला और पास ही एक छोटी खटिया पर वही बच्ची लेटी थी—महिमा। कमज़ोर, चुप—आँखों में ना तो शरारत थी, ना ही बचपना।

बाहर खड़ा सचिन कांपते दिल के साथ सब देख रहा था। तभी कविता बाहर आई और सचिन को देख बोली, “अब देख भी लिया, समझ आ गया होगा कितना मुश्किल होता है अकेले।” सचिन की आँखें भर आईं— “यह महिमा है ना?” कविता की आंखों में नमी थी, पर कोई इल्जाम नहीं। बोली, “हां, जो कभी तुम्हें पापा कहती थी, अब सिर्फ बीमार पड़ रहीं है।” सचिन पास नहीं जा सका, बस दीवार के साए में खड़े-खड़े अपनी बेटी पर नज़रें टिकाए रहा।

कविता ने धीरे से बोला, “अगर आज भी कुछ करना है, तो छुप कर नहीं, सामने खड़े हो… बाप बनकर!” महिमा ने सचिन को देखा, नजरों में सवाल था — “इतने साल कहां थे पापा?” सचिन आगे बढ़ा, घुटनों के बल नन्हीं महिमा के सामने बैठ गया। आंखों में आँसू थे, कांपती आवाज में बोला, “माफ कर दो बेटा, बहुत बड़ा गुनाह कर दिया। आज भी हक है या नहीं पता नहीं, लेकिन एक बार गले लगा लो।” महिमा चुप रही, फिर ममता से भीगे हाथों से उसके आंसू पोंछ डाले।

उस दिन सचिन लौट गया, मगर उसके दिल में बवंडर था। रात भर करवटें बदलता रहा, नींद न आई। उसने ठान लिया, अब और देर नहीं करेगा। सुबह होते-होते वह एक छोटी दुकान गया— पत्नी के लिए चूड़ियां, मंगलसूत्र और बेटी के लिए रंगीन किताबें, खिलौना, फल और दवाई खरीद लाया।

इस बार उसके कदम कांप नहीं रहे थे। कविता के घर के बाहर पहुँचा तो महिमा बैठी कुछ लिख रही थी। उसे देख मुस्कुरा पड़ी— पहली बार ‘पापा’ कहा। सचिन दौड़ कर उसके गले लग गया। कविता का चेहरा देख मुस्कान के बावजूद आंखें भीगी थीं। सचिन ने सामान निकाला— और कविता के हाथ में वह पैकेट थमाया जिसमें चूड़ियां और मंगलसूत्र था।

कविता की आंखों में पिछले सभी साल बह निकले। सचिन ने धीमे से कहा, “आज अगर माफ कर सको तो मुझे फिर से अपना बना लो, और इस बार सिर्फ बेटी के लिए नहीं, खुद के लिए भी।” कविता कांपती आवाज में बोली, “अगर दुबारा गलती की तो यह चूड़ियां फिर नहीं पहनूंगी।”

अब सचिन का जीवन बदल चुका था। उसने अपने बड़े भाई से कहा, “अब मैं रिश्तों को दोबारा जीना चाहता हूं। दुकान और जिन्दगी अब मेरी मरज़ी से चलेगी।” भाई चौंक गया, पर सचिन में पहली बार वह हौसला था। उसने साफ-साफ कहा, “इंसानियत के साथ जियेंगे, दौलत के पीछे नहीं। मेरे लिए अब बेटी की हँसी सबसे कीमती है।”

अब महिमा की हँसी, कविता की मुस्कान और तीनों का साथ ही सचिन के लिए सबकुछ था। थकी खामोशी की जगह अब घर में चूड़ियों की खनक, किताबों की सरसराहट और बेटी की खिलखिलाहट गूंजती थी।

रिश्ते कोई बोझ नहीं होते—वे बिखर भी जाएं, तो वक्त और माफी से नए सिरे से जीना सीखा सकते हैं। शायद सचिन, कविता और महिमा की कहानी से यही सीख मिलती है—पछतावे से बेहतर है वक्त रहते लौट आना, क्‍योंकि अपनों के लौट आने का इंतजार कभी बूढ़ा नहीं होता।

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