रामलाल जी का सम्मान

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर, बनारस में एक परिवार रहता था। इस परिवार का मुखिया था विक्रम, उसकी पत्नी राधा, उनके दो बच्चे और विक्रम के बुजुर्ग पिता, रामलाल जी। यह कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि हर उस घर की है जहाँ बुजुर्गों का स्थान धीरे-धीरे हाशिए पर चला जाता है।

शुरुआत की मेहनत

विक्रम का बचपन गांव में बीता था। उसके पिता, रामलाल जी, ने अपनी पत्नी के साथ खेतों में दिन-रात मेहनत की थी। उनका सपना था कि उनका बेटा पढ़-लिखकर कुछ बने, गांव की तंग हालत से बाहर निकले। विक्रम ने भी पिता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए जी-जान लगा दी। पढ़ाई पूरी की, फिर एक छोटा-मोटा व्यापार शुरू किया। धीरे-धीरे व्यापार बढ़ा, और उसने अपने परिवार को गांव से शहर लाकर बसाया।

शहर में नई जिंदगी शुरू हुई। विक्रम ने एक अच्छा घर लिया, बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया। राधा भी अब सुख-सुविधा में रहने लगी थी। लेकिन इस नई शुरुआत में एक चीज पीछे छूट गई—रामलाल जी की अहमियत।

बुजुर्ग का अकेलापन

रामलाल जी अब 90 साल के हो चुके थे। शरीर कमजोर, आंखें धुंधली, सुनने में दिक्कत। कभी वे अपने बेटे के लिए दिन-रात मेहनत करते थे, लेकिन अब घर में उनकी जरूरतें अनदेखी की जाती थीं। विक्रम और राधा उन्हें एक बोझ की तरह देखने लगे थे। उनकी बातों को टाल दिया जाता, उनकी इच्छाओं का मजाक उड़ाया जाता।

घर के बच्चे भी अपने दादाजी से दूरी बनाने लगे थे। वे वही सीख रहे थे जो अपने माता-पिता को करते देख रहे थे। रामलाल जी अक्सर अपने कमरे में अकेले बैठे रहते, पुरानी यादों में खोए रहते। उन्हें अपनी पत्नी की याद आती, जो कई साल पहले दुनिया छोड़ गई थी। वे सोचते, “अगर वह होती तो शायद उसकी जिंदगी भी तिरस्कार में बीतती।”

फिर भी वे चुपचाप सब सहते रहे। उनके पास और कोई रास्ता भी तो नहीं था। वे बस यही सोचते, “शायद यही जीवन है, बुजुर्गों के लिए।”

शहर में नई हलचल

एक दिन शहर में नई हलचल मची। जिले में एक नए जज साहब की नियुक्ति हुई थी—राहुल। राहुल ईमानदार, मेहनती और दिल से साफ इंसान थे। उनका काम करने का तरीका ही अलग था। वे हर जिम्मेदारी को पूरी शिद्दत से निभाते थे। जैसे ही उनकी पोस्टिंग हुई, उन्हें याद आया कि इसी शहर में उनका बचपन का दोस्त, गोविंद, रहता है।

गोविंद सरकारी दफ्तर में चपरासी था। दोनों की दोस्ती स्कूल के दिनों से थी। राहुल ने बिना देर किए गोविंद को फोन लगाया, “तू तो इसी शहर में है ना? मेरी पोस्टिंग यहीं हुई है। जल्दी से मिलने आ, बहुत दिन हो गए तुझसे मिले।”

गोविंद भी उत्साहित हो गया। अगले दिन वह जज साहब के दफ्तर पहुंच गया। राहुल ने अपने पुराने दोस्त को देखा, खुशी से उछल पड़ा। दोनों गले मिले, पुरानी बातें करने लगे। चाय-नाश्ते के बीच स्कूल की शरारतें, पुराने दोस्तों की यादें ताजा हो गईं।

गुरु का जिक्र

बातों-बातों में उनके एक टीचर का जिक्र हुआ—रामलाल सर। अनुशासन की मिसाल, सख्त लेकिन दिल के बड़े। स्कूल में कोई बच्चा उनकी सख्ती के आगे टिक नहीं पाता था। लेकिन उनकी सख्ती के पीछे एक बड़ा दिल भी था। राहुल और गोविंद को याद आया, कैसे रामलाल सर ने अपने पैसे खर्च करके स्कूल के बच्चों को हवाई जहाज की सैर कराई थी। जिन बच्चों ने कभी ट्रेन का सफर भी नहीं किया था, उनके लिए यह सपना था।

गोविंद ने बताया, “राहुल, तुम्हें पता है, रामलाल सर अब इसी शहर में रहते हैं। मैंने एक बार उनसे सरकारी काम के सिलसिले में मुलाकात की थी।”
राहुल की आंखें चमक उठीं, “अगर वे यहीं हैं तो हमें उनसे मिलने जाना चाहिए। कितने साल हो गए, उनकी छवि आज भी मेरे मन में बसी है।”

गोविंद ने हामी भरी, “मुझे उनका घर पता है। मैं तुम्हें ले चलता हूं।”

मुलाकात की तैयारी

राहुल ने अपनी सरकारी गाड़ी तैयार कराई। उनके साथ सिक्योरिटी और ड्राइवर भी था। गोविंद भी गाड़ी में बैठ गया। रास्ते में राहुल ने अचानक गाड़ी रुकवाई। वह पास के एक पेड़ की ओर चला गया। गोविंद हैरान होकर पूछने लगा, “अरे राहुल, यह क्या कर रहा है?”
राहुल मुस्कुराया, “वह हमारे टीचर हैं। उन्हें तो पता होना चाहिए कि हम उनके शिष्य हैं। मैं उनके लिए एक छड़ी तोड़ रहा हूं। याद है? वो हमें ऐसी ही छड़ी से सजा देते थे।”

गोविंद हंस पड़ा और खुद एक छोटी सी छड़ी तोड़कर राहुल को थमा दी। दोनों दोस्त हंसते-हंसते फिर गाड़ी में बैठ गए और रामलाल सर के घर की ओर बढ़ चले।

घर पर आगमन

जैसे ही वे उस घर के दरवाजे पर पहुंचे, विक्रम बालकनी से जज साहब की गाड़ी देख चुका था। वह दौड़कर नीचे आया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि इतना बड़ा अधिकारी उनके घर क्यों आया है। उसने घबराते हुए पूछा, “साहब, आप यहां क्यों आए हैं? कोई काम है?”

राहुल ने शांत स्वर में कहा, “रामलाल जी कहां हैं?”
विक्रम थोड़ा सकपकाया, “पिताजी अपने कमरे में हैं।”
राहुल, गोविंद और बाकी लोग उस कमरे की ओर बढ़े।

कमरे में रामलाल जी बिस्तर पर बैठे थे। उनकी आंखें उदास थीं, चेहरा थका सा। जैसे ही उन्होंने जज की वर्दी में राहुल को देखा, वे चौंक गए। राहुल ने आगे बढ़कर वह छड़ी रामलाल जी की ओर बढ़ाई और बोला, “सर, यह छड़ी पकड़िए।”

रामलाल जी ने छड़ी तो पकड़ ली, लेकिन समझ में कुछ नहीं आया। फिर राहुल ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और हंसते हुए कहा, “सर, अब मुझे सजा दीजिए। मैं इतने सालों बाद आपसे मिलने आया हूं।”

रामलाल जी की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, “बेटा, तुम कौन हो और यह छड़ी क्यों दे रहे हो?”
राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा, “सर, मैं आपका वही नालायक शिष्य राहुल हूं, जो क्लास में इधर-उधर ध्यान देता था और आपसे छड़ी की सजा पाता था। आज मैं इस जिले का जज हूं। और यह गोविंद मेरा दोस्त, जो मेरे साथ आपकी क्लास में पिछली बेंच पर बैठता था।”

यह सुनते ही रामलाल जी की आंखें नम हो गईं, “राहुल, सच में तुम जज बन गए?”
राहुल ने हंसकर कहा, “हां सर, और जब मुझे पता चला कि आप इस शहर में रहते हैं, तो मैं आपसे मिलने चला आया।”

रामलाल जी की आंखों से आंसू छलक आए। उन्होंने छड़ी को एक तरफ रखा और राहुल को गले से लगा लिया। लेकिन यह आंसू खुशी के नहीं थे। इनमें एक गहरा दर्द छिपा था।

दर्द की दास्तान

राहुल को कुछ अजीब सा लगा। उन्होंने रामलाल सर के आंसुओं को पोंछा और पूछा, “सर, क्या बात है? आप इतने उदास क्यों हैं?”
रामलाल जी पहले तो टालने लगे। लेकिन जब राहुल ने उनके सिर पर हाथ रखकर कसम दी, “सर, मुझे बताइए। मैं आपका शिष्य हूं और आज इस जिले का जज भी। अगर कोई परेशानी है, तो मैं उसका हल निकाल सकता हूं।”

आखिरकार रामलाल जी का दिल पिघल गया। उन्होंने अपनी सारी व्यथा सुना दी।
“बेटा, बुढ़ापा सच में कड़वा फल है। मैंने अपने बेटे के लिए दिन-रात मेहनत की। उसे पढ़ाया-लिखाया ताकि वह कुछ बन सके। लेकिन आज जब वह अपने पैरों पर खड़ा है, उसे मेरी कोई कदर नहीं। वह और मेरी बहू मुझे बोझ समझते हैं। छोटी-छोटी बातों पर ताने मारते हैं। मेरी जरूरतों को अनदेखा करते हैं। और मेरे पोते-पोतियां भी मुझसे अच्छे से बात नहीं करते।”

यह सुनकर विक्रम और राधा जो बाहर खड़े सब सुन रहे थे, सन्न रह गए। उन्हें एहसास हुआ कि जज साहब उनके पिता के पुराने शिष्य हैं और उन्हें बहुत मानते हैं।

सम्मान का पाठ

राहुल को गुस्सा आ गया। उन्होंने विक्रम को बुलाकर डांटना शुरू किया,
“तुम्हें क्या पता पिता का साया कितना कीमती होता है। तुम्हें पता है कि रामलाल सर कितने महान हैं। जब हम बच्चों ने कभी ट्रेन का सफर भी नहीं किया था, तब इन्होंने अपने पैसे खर्च करके हमें हवाई जहाज की सैर कराई थी। उनकी वजह से हमें जिंदगी में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली और तुम उन्हें बोझ समझते हो?”

राहुल की आवाज में गुस्सा और दर्द दोनों थे।
“मेरे पिता दो साल पहले गुजर गए। मैं जानता हूं कि पिता के बिना घर कितना सूना होता है। अगर तुम लोग अपने पिता की कदर नहीं कर सकते तो मैं इन्हें अपने साथ ले जाऊंगा। मैं इनकी सेवा करूंगा। क्योंकि यह मेरे पिता की तरह हैं।”

यह सुनकर विक्रम और राधा का सिर शर्म से झुक गया। रामलाल जी ने रोते हुए कहा,
“राहुल, मैंने तुम्हारे लिए थोड़ा सा किया था और तुम आज भी उसे याद रखते हो। लेकिन मेरा बेटा, जिसके लिए मैंने पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी, उसने मेरी कदर नहीं की।”

यह सुनकर विक्रम और राधा फूट-फूट कर रोने लगे। वे अपने पिता के पैरों में गिर पड़े और माफी मांगने लगे,
“पिताजी, हमें माफ कर दो। हमें नहीं पता था कि हम आपको कितनी तकलीफ दे रहे थे।”

जन्मदिन का जश्न

तभी विक्रम को याद आया कि उस दिन उनके पिता का 90वां जन्मदिन था। उसने राहुल से कहा,
“जज साहब, आज पिताजी का जन्मदिन है। मैं इसे धूमधाम से मनाना चाहता हूं। कृपया आप इन्हें अभी ना ले जाएं।”

राहुल मुस्कुराया, “ठीक है, चलो हम सब मिलकर बाबूजी का जन्मदिन मनाते हैं।”
सभी ने मिलकर तैयारियां कीं। एक बड़ा सा केक मंगाया गया, जिस पर लिखा था—हैप्पी 90वां बर्थडे
रामलाल जी की आंखों में खुशी के आंसू थे। इतने सालों बाद उनका जन्मदिन इतने प्यार से मनाया जा रहा था। केक काटा गया, सभी ने तालियां बजाईं और घर में हंसी-खुशी का माहौल बन गया।

सम्मान की वापसी

जन्मदिन के बाद राहुल रामलाल जी को अपने साथ सरकारी आवास पर ले गए। दो दिन तक उन्होंने उनकी खूब सेवा की। गोविंद भी बार-बार मिलने आया।
दो दिन बाद विक्रम अपने पिता को लेने आया। लेकिन इस बार वह पूरी तरह बदल चुका था। अब वह अपने पिता की हर छोटी-बड़ी जरूरत का ध्यान रखता। राधा भी अपने ससुर से प्यार से बात करती। बच्चे अपने दादाजी के साथ समय बिताते, उनकी कहानियां सुनते।

रामलाल जी की जिंदगी में फिर से खुशियां लौट आईं। और राहुल, जो एक जज होने के बावजूद अपने गुरु का सम्मान करता था, उसने ना सिर्फ अपने गुरु का सम्मान किया, बल्कि एक बेटे को उसके पिता की अहमियत भी सिखा दी।

कहानी का संदेश

यह कहानी हमें सिखाती है कि माता-पिता का सम्मान करना कितना जरूरी है। वे हमारे लिए जो कुछ करते हैं, उसकी कीमत हमें तभी समझ आती है जब हम उन्हें खो देते हैं। तो आइए अपने माता-पिता की कदर करें, उनके साथ समय बिताएं और उनकी हर छोटी-बड़ी खुशी का हिस्सा बनें।

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