“रिश्तों का मोल”
प्रस्तावना
शहर की भीड़-भाड़ से दूर, एक छोटे से कस्बे में मोहन अपनी पत्नी सुमन और बेटी आरती के साथ रहता था। मोहन एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क था और सुमन एक साधारण गृहिणी। उनकी छोटी सी दुनिया थी, जिसमें हँसी, प्यार और कभी-कभी मामूली झगड़े भी थे। लेकिन एक दिन, एक छोटी सी गलतफहमी ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया।
कहानी की शुरुआत
मोहन रोज़ की तरह ऑफिस से थका-हारा घर लौटा। सुमन ने चाय बनाई थी, लेकिन मोहन का मूड खराब था। ऑफिस में बॉस ने डांट दिया था, और घर आते-आते ट्रैफिक ने सिर दर्द और बढ़ा दिया। सुमन ने हल्के से पूछा, “इतने परेशान क्यों हो?” मोहन ने झुंझलाकर जवाब दिया, “तुम्हें क्या समझ आएगा? सारा दिन तो घर में बैठी रहती हो!” सुमन चुप हो गई। उसकी आंखों में आंसू आ गए, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
ऐसे ही, छोटी-छोटी बातों पर दोनों के बीच दरारें बढ़ने लगीं। मोहन को लगता, सुमन उसकी परेशानियों को नहीं समझती। सुमन को लगता, मोहन अब पहले जैसा प्यार नहीं करता। दोनों के बीच संवाद कम होने लगा। आरती, जो अब दस साल की थी, यह सब देखती और समझती थी कि कुछ तो गलत है।
रिश्तों में आई दरार
समय के साथ झगड़े बढ़ने लगे। एक दिन मोहन ने गुस्से में आकर कह दिया, “अगर तुम्हें मेरी जिंदगी से इतनी ही शिकायत है, तो चली जाओ यहाँ से!” सुमन ने भी ताव में जवाब दिया, “ठीक है, मैं चली जाऊंगी, लेकिन याद रखना, एक दिन तुम्हें मेरी जरूरत जरूर महसूस होगी।”
सुमन अपनी बेटी को लेकर मायके चली गई। मोहन को कुछ दिन तक राहत महसूस हुई, लेकिन घर की खामोशी उसे काटने लगी। कोई चाय देने वाला नहीं, कोई बात करने वाला नहीं। आरती की हँसी, सुमन की मुस्कान – सब गायब हो गया।
नई शुरुआत, नया संघर्ष
सुमन ने मायके में रहते हुए सिलाई का काम शुरू किया। धीरे-धीरे उसने आसपास की औरतों के कपड़े सिलने शुरू किए। आरती स्कूल जाती और सुमन की मदद भी करती। दोनों मां-बेटी ने मुश्किल हालात में भी हार नहीं मानी। सुमन ने ठान लिया था कि वह अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा देगी, चाहे जितनी भी मेहनत करनी पड़े।
इधर मोहन के जीवन में खालीपन और बढ़ता गया। दफ्तर से लौटकर वह अकेले बैठा रहता। दोस्तों ने समझाया, “घर बुला लो, माफ़ी मांग लो।” लेकिन मोहन का अहंकार उसे रोकता रहा। उसे लगता था, सुमन खुद लौट आएगी।
समाज की बातें और सुमन का आत्मबल
मायके में भी लोग बातें बनाने लगे – “पति ने घर से निकाल दिया, अब क्या करेगी?” लेकिन सुमन ने किसी की बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसने अपनी मेहनत से पहचान बनाई। धीरे-धीरे उसकी सिलाई की दुकान चल निकली। आरती पढ़ाई में अव्वल रहने लगी।
एक दिन स्कूल में आरती को राज्य स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला। लेकिन प्रतियोगिता के लिए फीस और ड्रेस की जरूरत थी। सुमन के पास पैसे नहीं थे। उसने अपनी कुछ गहने गिरवी रखकर बेटी की फीस भरी। आरती ने प्रतियोगिता में पहला स्थान पाया और अखबारों में उसकी फोटो छपी।
मोहन की तन्हाई और पछतावा
मोहन ने अखबार में आरती की फोटो देखी। उसके दिल में गर्व का भाव आया, लेकिन साथ ही पछतावा भी हुआ कि वह अपनी बेटी की खुशियों में शामिल नहीं हो पाया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने पहली बार महसूस किया कि उसका गुस्सा और अहंकार उसके लिए कितने भारी पड़ गए।
उसने सुमन को फोन किया, लेकिन सुमन ने सिर्फ इतना कहा, “अब आरती और मैं अपनी जिंदगी खुद जीना सीख गए हैं। तुम्हारे बिना भी खुश रह सकते हैं।”
समय का पहिया और नई चुनौतियाँ
समय बीतता गया। सुमन की दुकान अब बड़ी हो गई थी। उसने दो और महिलाओं को काम पर रखा, ताकि वे भी आत्मनिर्भर बन सकें। आरती ने स्कूल टॉप किया और शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में दाखिला पाया।
इस दौरान, मोहन ने भी खुद को बदलने की कोशिश की। उसने गुस्सा करना छोड़ दिया, अपने पुराने दोस्तों से माफी मांगी और समाज सेवा में जुट गया। वह अनाथ बच्चों को पढ़ाने लगा, ताकि किसी और बच्चे को अपने पिता की कमी महसूस न हो।
मुलाकात के दस साल बाद
दस साल बाद, एक दिन मोहन शहर की सड़क पर जा रहा था। अचानक उसकी नजर एक छोटी सी चाय की दुकान पर पड़ी, जहाँ दो औरतें और एक लड़की ग्राहकों को चाय परोस रही थीं। पास जाकर देखा तो वह सुमन और आरती ही थीं। मोहन के कदम वहीं रुक गए। उसके मन में पुरानी यादें ताजा हो गईं।
सुमन की आंखों में आत्मविश्वास था, आरती अब युवा हो चुकी थी और ग्राहकों से मुस्कुरा कर बात कर रही थी। मोहन को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने आगे बढ़कर सुमन से बात करने की कोशिश की, लेकिन सुमन ने विनम्रता से कहा, “हम अब अपने पैरों पर खड़े हैं। तुम्हारा धन्यवाद, क्योंकि तुम्हारे छोड़ने के बाद ही हमें अपनी ताकत का अहसास हुआ।”
आरती ने भी सिर झुकाकर कहा, “पापा, आप हमारे लिए हमेशा खास रहेंगे, लेकिन अब हमें किसी सहारे की जरूरत नहीं।”
मोहन का बदलाव और समाज को संदेश
मोहन ने अपने किए का पछतावा किया और तय किया कि वह अब दूसरों की मदद करेगा। उसने अपने कस्बे में एक महिला सहायता केंद्र खोला, जहाँ तलाकशुदा या बेसहारा महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने की ट्रेनिंग दी जाती थी। उसने अपने अनुभव से सीखा कि रिश्तों में संवाद और समझदारी सबसे जरूरी है।
कहानी की सीख
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि
रिश्तों में अहंकार और गुस्सा सबसे बड़ा दुश्मन है।
संवाद की कमी से ही गलतफहमियां जन्म लेती हैं।
महिलाएं कमजोर नहीं, बल्कि परिस्थितियों में और मजबूत बन जाती हैं।
जीवन में संघर्ष चाहे जितना भी बड़ा हो, मेहनत और आत्मबल से हर मुश्किल को पार किया जा सकता है।
पछतावे से अच्छा है समय रहते रिश्तों को संभाल लेना।
समापन
मोहन, सुमन और आरती की कहानी हमें यह सिखाती है कि रिश्तों का मोल पैसों, अहंकार या झगड़ों से कहीं ज्यादा है। अगर समय रहते हम अपने रिश्तों को संजो लें, संवाद करें और एक-दूसरे की भावनाओं को समझें, तो जीवन में कभी पछताना नहीं पड़ेगा।
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रिश्तों को सहेजिए, समय रहते प्यार और समझदारी दिखाइए – यही असली जीवन है।
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