शीर्षक: “राजू और हिमांशी — मुस्कान जो लौट आई”

यह है राजू, जो अभी मुश्किल से दस या ग्यारह साल का है। न मां, न पिता — बस अकेली ज़िंदगी और खुले आसमान का छत। फटे पुराने मैले कपड़े, नंगे पैर, और चेहरे पर धूल की परतें। दिनभर गलियों, बाज़ारों और मोहल्लों में घूमता रहता, कभी किसी दुकान के बाहर बैठ जाता तो कभी फुटपाथ पर अपनी थकान मिटाता। दो वक्त की रोटी के लिए भीख मांगता और जब कोई सिक्का हाथ में रख देता तो उसके चेहरे पर खिल उठती एक सच्ची मुस्कान। रात को वही फुटपाथ उसका बिस्तर होता, वही आसमान उसकी छत। तारे गिनते-गिनते न जाने कब नींद में डूब जाता और अगली सुबह फिर उसी शोरगुल भरे मुंबई के बीच खो जाता। वह मनमौजी था, अपनी दुनिया में मस्त। उसे नाचने का बहुत शौक था। जब भी कहीं डीजे की आवाज़ आती या मोहल्ले में कोई शोभायात्रा निकलती, तो राजू सब भूलकर मस्त होकर नाचने लगता। उस वक्त उसके चेहरे पर जो खुशी होती, वो शायद किसी राजा के चेहरे पर भी न होती।

इसी शहर में एक आलीशान बंगला था — सफेद संगमरमर का बना, बाग-बगीचों से घिरा, और उसके दरवाज़ों पर सुरक्षा कर्मी हरदम तैनात। यह बंगला था सुनील अग्रवाल का — शहर के सबसे नामी बिजनेसमैन में से एक, करोड़ों के मालिक, लेकिन ज़िंदगी से हार चुके इंसान। वह अपनी नौ साल की बेटी हिमांशी और पुराने नौकर रघु काका के साथ रहते थे। चार साल पहले तक इस बंगले में हंसी की गूंज थी, बच्चों की खिलखिलाहट थी, और हर सुबह ज़िंदगी की नई शुरुआत होती थी। लेकिन अब वही बंगला सन्नाटे से भरा हुआ था। दीवारें गवाही देती थीं कि यहां कभी खुशियां रहती थीं।

चार साल पहले की बात है — हिमांशी अपनी मां सुनीता अग्रवाल के साथ किसी रिश्तेदार की पार्टी से घर लौट रही थी। रात का वक्त था, सड़कों पर हल्का ट्रैफिक और ठंडी हवा चल रही थी। तभी अचानक एक बेकाबू ट्रक उनकी कार से टकरा गया। हादसा इतना भीषण था कि सुनीता वहीं दम तोड़ गईं, और छोटी हिमांशी के दोनों पैर बुरी तरह घायल हो गए। सुनील की दुनिया पलभर में बिखर गई। एक पति ने अपनी पत्नी खोई, और एक बेटी ने अपनी मां। सुनील ने देश-विदेश के डॉक्टरों से इलाज करवाया, हर थेरेपी करवाई, हर उम्मीद का दामन थामा, लेकिन नतीजा वही रहा — हिमांशी चल नहीं पाती थी। डॉक्टरों ने कहा, “जब तक वह खुद हिम्मत नहीं करेगी, तब तक दुनिया की कोई दवा काम नहीं करेगी।” मगर हिम्मत तो मानो उसके भीतर से गायब हो गई थी। वह मुस्कुराना तक भूल गई थी। व्हीलचेयर पर बैठी वह अपनी मां की तस्वीर निहारती, चांद-सितारों को देखती और दिनभर खामोश रहती। सुनील हर रोज़ बेटी को देखता, और उसकी खामोशी उसे अंदर से तोड़ देती।

एक दिन की बात है — हिमांशी बगीचे में बैठी थी। तितलियों को उड़ते देख रही थी। तभी उसे झाड़ियों के पीछे कुछ हलचल सुनाई दी। उसने गौर से देखा — एक छोटी-सी परछाईं उछलकर नीचे गिरी। उसने व्हीलचेयर आगे बढ़ाई, और झाड़ियों से एक लड़का बाहर निकला — धूल में सना, फटे कपड़ों में, नंगे पैर, पर आंखों में चमक। वही राजू था। दरअसल, दीवार के उस पार उसे आम का पेड़ दिखा था — पके हुए पीले आम हवा में झूल रहे थे, और भूखे पेट राजू का मन ललचा गया। गार्डों की परवाह किए बिना वह बाहर के शहतूत के पेड़ पर चढ़ा और दीवार लांघकर अंदर आया, लेकिन पैर फिसल गया और झाड़ियों में जा गिरा। मिट्टी नरम थी, चोट नहीं लगी, बस कुछ खरोचें आईं।

हिमांशी उसे देखती रही — उसके चेहरे पर मासूमियत थी। राजू ने भी हिमांशी को देखा, फिर खुद से बोला, “यह तो बड़ी उदास लगती है, शायद इसे कोई हंसाता नहीं।” वह मुस्कुराया, फिर वहीं गोल-गोल घूमने लगा, बंदर जैसी हरकतें करने लगा। अचानक फिसला और धड़ाम से गिर गया। यह देखकर हिमांशी के होंठों पर एक मुस्कान आ गई — चार साल बाद उसकी हंसी गूंजी। राजू ने महसूस किया कि उसकी कोशिश काम कर रही है, और वह और भी जोश से नाचने लगा। तभी एक गुस्से भरी आवाज़ गूंजी — “रुको वहीं!” सुनील अग्रवाल बगीचे की ओर बढ़ रहे थे, चेहरा सख्त, आंखों में गुस्सा। “यह लड़का अंदर कैसे आया?” उन्होंने गार्ड्स को डांटा, रघु काका को फटकारा। राजू डर गया, मूर्ति बनकर खड़ा रह गया। तभी एक पतली सी आवाज आई — “रुक जाइए पापा, इसे कुछ मत कहिए।” सुनील के कदम थम गए। उनकी बेटी बोल रही थी, जो चार साल से चुप थी। वह बोली, “यह बस नाच रहा था, बहुत भूखा है।” सुनील की आंखें नम हो गईं। उन्होंने गार्ड्स को पीछे हटने का इशारा किया और बोले, “अगर यह मेरी बेटी को हंसा सकता है, तो इसे कोई नहीं रोकेगा।”

उस दिन से राजू हर रोज आने लगा। वह हिमांशी को व्हीलचेयर पर बिठाकर बगीचे में घुमाता, कहानियां सुनाता, करतब दिखाता। धीरे-धीरे उस घर में फिर से हंसी लौट आई। चार सालों से सुनील की जिंदगी में जो सन्नाटा था, वह अब तालियों और मुस्कान से भरने लगा। हिमांशी की आंखों में फिर से रोशनी आने लगी। एक दिन जब राजू नाच रहा था, हिमांशी रोने लगी। राजू बोला, “क्या हुआ बहन? मैंने कुछ गलत किया?” हिमांशी बोली, “नहीं भैया, तुम्हें भागते देख मुझे अपने पुराने दिन याद आ गए। मैं भी दौड़ती थी, पर अब नहीं चल सकती।” राजू ने उसके आंसू पोंछे और बोला, “तुम चल सकती हो। मैं तुम्हें पकड़कर चलाऊंगा।” उसके शब्दों में इतना आत्मविश्वास था कि हिमांशी के दिल में उम्मीद की लौ जल उठी।

राजू हर दिन उसे खड़ा होने को कहता। “दर्द होता है तो होने दो, गिरो लेकिन उठो, तुम कर सकती हो।” कई दिनों की कोशिशों के बाद एक सुबह कुछ ऐसा हुआ कि जिसने सबको हिला दिया। सुनील बगीचे की तरफ जा रहे थे, और उन्होंने देखा — हिमांशी व्हीलचेयर से उठकर अपने पैरों पर खड़ी है। राजू उसके सामने था, मुस्कुरा रहा था, और कह रहा था, “देखा, मैंने कहा था न, तुम चल सकती हो।” सुनील की आंखों से आंसू झरने लगे। उन्होंने दौड़कर राजू को गले से लगा लिया, बोले, “बेटा, जो चार साल में कोई नहीं कर सका, तूने कर दिखाया। तूने मेरी बेटी को फिर से जीना सिखा दिया।” उस दिन से सुनील ने राजू को बेटा मान लिया। हिमांशी बोली, “पापा, क्या भैया हमेशा हमारे साथ रह सकते हैं?” सुनील मुस्कुराए और बोले, “अब से राजू हमेशा यहीं रहेगा।”

राजू के लिए यह किसी सपने जैसा था। वह पहली बार किसी घर के अंदर आया था — संगमरमर की फर्श, सुंदर झूमर, बड़ी तस्वीरें, और रसोई से आती खुशबू। उसे लगा वह स्वर्ग में है। सुनील ने तुरंत ड्राइवर को कहा, “इसके लिए नए कपड़े लाओ।” राजू ने नहाकर जब नए कपड़े पहने, तो आईने में खुद को देखकर चौंक गया — मानो किसी और की ज़िंदगी पहन ली हो। खाने की मेज पर तरह-तरह के व्यंजन थे। राजू ने पहले कभी इतना स्वाद नहीं चखा था। वह हर कौर को ऐसे खा रहा था जैसे दुनिया की सबसे बड़ी दावत हो। उस रात उसने पहली बार पेट भर खाना खाया और बिस्तर पर चैन की नींद सोया।

अगले दिन से राजू और हिमांशी एक-दूसरे के साये बन गए। हिमांशी रोज़ थोड़ी-थोड़ी देर चलने की कोशिश करती, राजू उसे सहारा देता। एक महीने में वह खुद चलने लगी, फिर दौड़ने लगी। घर में हर दिन हंसी गूंजती। सुनील अब अपनी पत्नी की तस्वीर देखकर कहते, “देखो सुनीता, हमारी बेटी फिर मुस्कुरा रही है, और उसकी मुस्कान की वजह वही बच्चा है जिसे भगवान ने हमारे घर भेजा।”

कुछ हफ्तों बाद सुनील ने राजू का दाखिला स्कूल में करा दिया। राजू के सपने पूरे हो रहे थे। वह अब वर्दी पहनता, किताबें पढ़ता और हिमांशी के साथ स्कूल जाता। उसकी आंखों में चमक थी, जैसे कह रही हो — “मैं अब अकेला नहीं हूं।”

धीरे-धीरे राजू ने पढ़ाई में भी कमाल दिखाना शुरू किया। उसने डांस प्रतियोगिताओं में इनाम जीते, और उसकी कहानी स्कूल में फैल गई — “वही लड़का जो कभी सड़कों पर नाचता था, आज एक बिजनेसमैन की बेटी का हीरो है।”

एक शाम सुनील ने अपनी पत्नी की तस्वीर के सामने दीपक जलाया और कहा, “सुनीता, आज हमारी ज़िंदगी फिर पूरी हो गई। दौलत, डॉक्टर, दवाइयां सब हार गए, लेकिन एक भूखे बच्चे की सच्चाई जीत गई।”

राजू और हिमांशी अब सिर्फ दोस्त नहीं, भाई-बहन बन चुके थे। वे साथ खेलते, पढ़ते, और एक-दूसरे का हौसला बनते। जब भी कोई मेहमान आता, सुनील मुस्कुराकर कहते, “यह है मेरा बेटा राजू, जिसने मेरी बेटी की मुस्कान लौटाई।”

इस कहानी से यही सीख मिलती है — कि हिम्मत, इंसानियत और सच्चे दिल से बड़ा कोई चमत्कार नहीं होता। जहां दवाइयां हार गईं, वहां एक मासूम की ममता जीत गई। कभी किसी की गरीबी को उसकी कमजोरी मत समझो, हो सकता है वही इंसान किसी दिन तुम्हारी दुनिया रोशन कर दे।

और अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो याद रखिए — मुस्कान लौटाने के लिए करोड़ों की ज़रूरत नहीं होती, बस एक सच्चे दिल की ज़रूरत होती है।


🕊️ संदेश:
“ज़िंदगी की सबसे बड़ी दौलत पैसा नहीं, किसी के चेहरे की मुस्कान है। और अगर आप किसी को मुस्कुराने की वजह बन जाएं — तो समझिए, आपने ज़िंदगी जी ली।”