शीर्षक: “हरिश्चंद्र जी – जब मालिक ने खुद बैंक में लाइन लगाई”
सुबह के ठीक 11 बजे, शहर के सबसे बड़े और नामी बैंक के मुख्य द्वार पर एक वृद्ध व्यक्ति धीरे-धीरे कदम रखते हैं।
उनके कपड़े साधारण हैं — सफेद धोती, हल्की-सी फटी कमीज़, और पैर में घिसे हुए जूते।
हाथ में एक पुराना-सा लिफाफा है और दूसरे हाथ में लकड़ी की लाठी।
दरवाज़े पर खड़े सिक्योरिटी गार्ड उन्हें सिर से पांव तक घूरते हैं।
काउंटरों पर बैठे ग्राहक और अधिकारी भी एक नज़र में उन्हें आंक लेते हैं।
“यह कौन है? भिखारी लगता है।”
“शायद रास्ता भटक गया होगा।”
ऐसी फुसफुसाहटें पूरे बैंक में फैल जाती हैं।
वह व्यक्ति शांत चेहरे के साथ आगे बढ़ते हैं।
उनका नाम था — हरिश्चंद्र प्रसाद।
एक समय में शहर के सबसे बड़े उद्योगपति, पर किसी को इस बैंक में यह बात पता नहीं थी।
वह सीधे ग्राहक सेवा काउंटर पर पहुंचते हैं, जहां मीरा नाम की एक महिला कर्मचारी बैठी थी।
उन्होंने नम्रता से कहा —
“बेटी, मेरे अकाउंट में कुछ गड़बड़ है। लेन-देन रुक गया है। यह देखो, यह लिफाफा है — इसके अंदर सारे कागज़ात हैं।”
मीरा ने एक नज़र उन पर डाली, और फिर ठंडी आवाज़ में बोली —
“बाबा, क्या आप गलत बैंक में आ गए हैं? यह बैंक बड़े ग्राहकों का है। मुझे नहीं लगता कि आपका अकाउंट यहां होगा।”
हरिश्चंद्र जी मुस्कुराए, “बेटी, तुम एक बार देख तो लो। हो सकता है अकाउंट यहीं हो।”
मीरा ने लिफाफा लिया, पर मन में सोच रही थी — “कौन जानता है, कहीं पुराने गांव के किसी सहकारी बैंक का खाता होगा।”
उसने कहा, “ठीक है बाबा, बैठ जाइए, थोड़ा वक्त लगेगा।”
हरिश्चंद्र जी पास की कुर्सी पर जाकर बैठ गए।
लोग उन्हें देखकर हल्के-हल्के हंस रहे थे।
किसी ने कहा, “आजकल तो हर कोई अमीरों के बैंक में चला आता है।”
किसी ने ताना मारा, “इनको अंदर बैठने की भी इजाज़त नहीं देनी चाहिए।”
हरिश्चंद्र जी ने किसी की ओर नहीं देखा।
वह बस चुपचाप बैठे रहे, जैसे उन्हें इन बातों की परवाह ही न हो।
धीरे-धीरे वक्त बीता, पर मीरा फिर भी अपने काम में व्यस्त रही।
एक घंटे बाद हरिश्चंद्र जी उठे और बोले —
“बेटी, अगर तुम व्यस्त हो तो मैनेजर साहब को बुला दो। मेरा उनसे भी कुछ काम है।”
मीरा ने झल्लाकर फोन उठाया और मैनेजर रघुनाथ के केबिन में कॉल की।
“सर, एक बुजुर्ग व्यक्ति आपसे मिलना चाहते हैं।”
रघुनाथ ने दूर से शीशे के पार देखा।
वही बुजुर्ग — सफेद कपड़ों में, हाथ में लाठी।
उन्होंने तुच्छता भरे स्वर में कहा,
“इन लोगों के पास मेरे लिए वक्त नहीं है। बैठने दो, थोड़ी देर में खुद चले जाएंगे।”
मीरा ने वैसा ही किया।
वह बोली, “बाबा, आप वेटिंग एरिया में बैठ जाइए। जब मैनेजर फ्री होंगे, तब देख लेंगे।”
हरिश्चंद्र जी वहां जाकर बैठ गए।
वे फिर भी शांत थे, संयमित।
इसी बीच, बैंक में रमेश नाम का एक छोटा कर्मचारी वापस आया।
वह बाहर किसी काम से गया हुआ था।
जब उसने बैंक का माहौल देखा — सबकी निगाहें एक कोने की ओर, और लोग एक बुजुर्ग की हंसी उड़ा रहे थे — तो उसका दिल पसीज गया।
वह सीधे उनके पास गया।
“बाबा, नमस्ते। आप यहां क्यों आए हैं?”
हरिश्चंद्र जी बोले, “बेटा, मेरे अकाउंट में दिक्कत है। मैनेजर से मिलना था।”
रमेश ने आदरपूर्वक कहा, “आप यहीं बैठिए। मैं बात करता हूं।”
वह फौरन मैनेजर रघुनाथ के पास गया और बोला,
“सर, एक बुजुर्ग व्यक्ति आपसे मिलना चाहते हैं। बहुत विनम्र हैं।”
रघुनाथ ने कहा,
“ओह वही? हां, हां, मैंने ही कहा था बैठने को। ऐसे लोगों के लिए मेरे पास वक्त नहीं। तू अपना काम देख।”
रमेश निराश होकर लौट आया।
वह फिर भी उस वृद्ध को पानी लाकर देता है, कुर्सी सीधी करता है और धीरे से कहता है,
“बाबा, चिंता मत कीजिए, मैं देखता हूं।”
एक घंटे बाद हरिश्चंद्र जी खुद उठे और धीरे-धीरे मैनेजर के केबिन की ओर बढ़े।
पूरा बैंक उन्हें देख रहा था।
रघुनाथ खड़ा हुआ और रूखे स्वर में बोला,
“हां बाबा, बताइए, क्या चाहिए? जल्दी बोलिए, मेरे पास ज्यादा समय नहीं।”
हरिश्चंद्र जी ने लिफाफा उसकी टेबल पर रखा।
“बेटा, इसमें मेरे अकाउंट के पेपर्स हैं। मेरे खाते से ट्रांज़ेक्शन नहीं हो रहा। बस देख लो, क्या दिक्कत है।”
रघुनाथ हंसने लगा।
“बाबा, जब अकाउंट में पैसे नहीं होते, तो लेन-देन कैसे होगा? मुझे लगता है आपने गलती से यह बैंक चुन लिया।”
हरिश्चंद्र जी ने संयम से कहा,
“बेटा, एक बार देख लो। शायद कुछ गलती हो।”
रघुनाथ बोला,
“देखो बाबा, मैं बीस साल से बैंकिंग कर रहा हूं। लोगों के कपड़ों से पहचान लेता हूं कि कौन अमीर है और कौन गरीब। तुम्हारे अकाउंट में क्या होगा?”
पूरे बैंक में हंसी गूंज उठी।
हरिश्चंद्र जी ने लिफाफा टेबल पर रखा और शांत स्वर में बोले —
“ठीक है बेटा, मैं जा रहा हूं। लेकिन इस लिफाफे को एक बार ज़रूर देख लेना। शायद तुम्हें अपने अंदाज़े पर अफसोस हो।”
जाते-जाते वह दरवाजे से मुड़े और बोले —
“याद रखना, हर किसी की कहानी उसके कपड़ों से नहीं लिखी जाती। तुम्हें इस गलती की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी।”
इतना कहकर वह बाहर निकल गए।
अगला दिन – वही समय, वही बैंक
रघुनाथ अपनी कुर्सी पर बैठा कॉफी पी रहा था।
वह उस बुजुर्ग की बात को मज़ाक समझ चुका था।
तभी रमेश आया, हाथ में वही पुराना लिफाफा।
“सर, कल उस व्यक्ति ने जो लिफाफा छोड़ा था, उसमें कुछ अजीब दस्तावेज़ हैं। मैंने सिस्टम में डिटेल्स चेक कीं — आप ज़रा देखिए।”
रघुनाथ ने कहा,
“रमेश, मैंने कहा ना, ऐसे ग्राहकों के लिए मेरे पास समय नहीं है।”
रमेश ने ज़ोर देकर कहा,
“सर, यह देख लीजिए, यह जरूरी है।”
अनमने मन से रघुनाथ ने फाइल खोली।
और अगला ही पल उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं।
उसमें लिखा था —
“हरिश्चंद्र प्रसाद – संस्थापक, मुख्य शेयरधारक (60% हिस्सेदारी)।”
रघुनाथ की सांसें थम गईं।
वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
“क्या… क्या यह वही व्यक्ति था जो कल आया था?”
रमेश बोला, “जी सर, वही।”
अब रघुनाथ के माथे पर पसीना आ गया।
उसने मीरा को बुलाया,
“वह बुजुर्ग अगर फिर कभी आएं, तुरंत मुझे बताना!”
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
अगले दिन सुबह 11 बजे
वही दरवाज़ा फिर खुला।
हरिश्चंद्र जी इस बार अकेले नहीं थे।
उनके साथ एक सूट-बूट पहने व्यक्ति था, हाथ में ब्रीफ़केस लिए।
पूरा बैंक खड़ा हो गया।
सिक्योरिटी गार्ड सैल्यूट करने लगे।
रघुनाथ भागते हुए बाहर आया।
“नमस्ते सर… मैं माफ़ी चाहता हूं…”
हरिश्चंद्र जी ने ठंडी निगाह से देखा।
“कल तुमने मुझे कहा था कि मेरा अकाउंट यहां नहीं है। आज बताओ, क्या अब पहचान आए?”
रघुनाथ चुप।
सन्नाटा पूरे बैंक में।
हरिश्चंद्र जी बोले —
“तुमने कल न सिर्फ मेरे साथ, बल्कि अपने बैंक की आत्मा के साथ अन्याय किया। तुमने यह भूल की कि यह बैंक किसी अमीर का नहीं, हर ईमानदार नागरिक का है।”
सूट वाले व्यक्ति ने ब्रीफ़केस खोला और दस्तावेज़ निकाले।
“यह आदेश है — मैनेजर रघुनाथ को तत्काल प्रभाव से पद से हटाया जाता है। उनकी जगह अब रमेश को मैनेजर नियुक्त किया जाता है।”
पूरा बैंक स्तब्ध।
रघुनाथ का चेहरा पीला पड़ गया।
“सर, मुझे माफ कर दीजिए… मैंने पहचान नहीं पाई…”
हरिश्चंद्र जी बोले —
“माफी तब मिलती है जब गलती इंसानियत से हो, अहंकार से नहीं। तुमने किसी गरीब का नहीं, अपने कर्तव्य का अपमान किया।”
मीरा कांपते हुए आगे आई।
“बाबूजी, मैं भी दोषी हूं। मैंने भी आपको नजरअंदाज किया।”
हरिश्चंद्र जी ने उसकी ओर देखा।
“बेटी, इंसान गलती करता है तो उसे सुधारने का मौका भी देना चाहिए। लेकिन याद रखना, अगली बार किसी के कपड़ों से नहीं, उसके शब्दों से पहचान करना।”
मीरा की आंखों से आंसू निकल पड़े।
रघुनाथ गिड़गिड़ाकर बोला,
“सर, आप चाहें तो मैं इस्तीफा दे दूं।”
हरिश्चंद्र जी ने कहा,
“नहीं, मैं चाहता हूं तुम अब फील्ड में काम करो — वही सीख जहां असली लोग रहते हैं। जाओ, गांवों के बैंक देखो, वहां के गरीबों के पास भी ईमान होता है।”
रमेश के हाथ में नियुक्ति पत्र थमाया गया।
पूरा बैंक तालियों से गूंज उठा।
उस दिन के बाद बैंक का माहौल बदल गया।
मीरा ग्राहकों से मुस्कुराकर बात करती।
गार्ड हर आने वाले को नमस्ते कहता।
रघुनाथ अब फील्ड अफसर के रूप में गांवों में घूमता और अपने अनुभव से सीखता।
हरिश्चंद्र जी जाते-जाते बोले —
“मैं इस बैंक का मालिक हूं, लेकिन असली मालिक तो जनता है। जिसने इस पर भरोसा किया, वही इसका भाग्य लिखेगा। याद रखो, पैसा नहीं — व्यवहार असली संपत्ति है।”
उनकी यह बात सुनकर बैंक के हर कर्मचारी की आंखें नम हो गईं।
उस दिन से बैंक का नाम बदल गया —
“जनसेवा बैंक” — जहां हर ग्राहक भगवान है।
कुछ महीने बाद
बैंक का नाम अखबारों में आने लगा —
“जनसेवा बैंक: जहां हर ग्राहक का सम्मान होता है।”
रमेश अब एक जिम्मेदार, विनम्र मैनेजर था।
हर ग्राहक उसके चेहरे पर मुस्कान लेकर जाता।
मीरा ने गरीबों के लिए “विशेष सहायता काउंटर” शुरू किया।
रघुनाथ अब फील्ड से वापस लौटकर हर हफ्ते नए कर्मचारियों को प्रशिक्षण देता था —
“याद रखो, अमीरी कपड़ों से नहीं, व्यवहार से होती है।”
कहानी का संदेश:
हरिश्चंद्र जी ने एक बार कहा था —
“जब बैंक में ग्राहक अपनी इज़्ज़त खो देता है, तब बैंक का सम्मान भी खत्म हो जाता है।”
उनका यह सबक पूरे शहर में फैल गया।
लोग कहते थे — “ऐसा मालिक हर संस्था को मिलना चाहिए।”
क्योंकि असली मालिक वही होता है जो अपने लोगों की गलती को सुधारने का मौका देता है, न कि उन्हें मिटा देता है।
और दोस्तों,
यह कहानी सिर्फ एक बैंक की नहीं, बल्कि उस सोच की है जो हम सबके भीतर कहीं न कहीं छिपी है —
जहां हम किसी को उसके कपड़ों, चेहरे या हालात से परखते हैं।
लेकिन याद रखिए —
“शालीनता अमीरी की नहीं, संस्कार की निशानी होती है।”
अगर यह कहानी आपको छू गई हो,
तो इसे दिल से याद रखिए,
क्योंकि ज़िंदगी में कभी न कभी,
किसी हरिश्चंद्र जी से आपकी मुलाक़ात ज़रूर होगी।
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