सऊदी अरब के रेगिस्तान में भारतीयों की मौत का दर्द: एक रात, एक हादसा, एक देश का मातम

सऊदी अरब के रेगिस्तान से आई वह खबर पूरे भारत के दिलों को एक साथ चीर कर चली गई। जिस रात लोग अपने घरों में चैन की नींद सो रहे थे, उसी रात एक दिल दहला देने वाला हादसा रेगिस्तान की सड़कों पर हुआ, जिसने पलक झपकते ही कई परिवारों की खुशियां, सपने और आवाजें हमेशा के लिए खामोश कर दी। उस जलती हुई बस का मंजर इतना डरावना था कि जिसने भी वीडियो देखा, उसकी आत्मा जैसे एक क्षण के लिए कांप उठी। हवा में उठती लपटें, आसमान की ओर जाते काले धुएं के गुब्बार और जलने की तीखी गंध ऐसे लग रहे थे मानो समय खुद थम गया हो।
उस बस के अंदर कौन था, किसकी आवाज अंत तक जिंदा रही, किसने आखिरी बार अपनी सीट पकड़ी? इन सबका अंदाजा लगाना भी किसी के लिए आसान नहीं था। यह सोच कर ही दिल भारी हो जाता है कि उस पल अंदर बैठे लोग क्या सह रहे होंगे। कोई बुजुर्ग अपनी छड़ी को पकड़े बैठा होगा। कोई मां अपने बच्चे को सीने से लगाए होंगी। कोई नौजवान मन ही मन धुआं पड़ रहा होगा और कोई बूढ़ा यह सोच रहा होगा कि मक्का मदीने की यह यात्रा उसके लिए कितनी पाक होगी। लेकिन किसे पता था कि इसी यात्रा में उनका आखिरी सफर भी लिख दिया जाएगा।
उन सबके बीच एक शख्स ऐसा था जिसने मौत की परछाई को अपनी आंखों से देखा और फिर किसी चमत्कार की तरह उस आग की दीवार से बाहर निकल कर नई जिंदगी पा ली। उसका नाम था शोएब। वह खुद भी यकीन नहीं कर पा रहा था कि वह कैसे बच गया। कैसे आखिरी सेकंड में उसने बस से छलांग लगाई। कैसे उसका बदन झुलसने से बचा और कैसे वह फिर अस्पताल के बिस्तर पर पहुंच गया। उसकी आवाज आज भी कांप जाती है। जब वह बताता है कि कैसे बस कुछ पलों में आग की गोद में समा गई।
लेकिन इस हादसे की सबसे अजीब बात सिर्फ शोएब का बचना नहीं है। दो और लोग थे जिन्हें किस्मत ने ऐसा मोड़ दिया कि वे बस तक पहुंचे ही नहीं। वह दोनों थे समीर और आयशा। दोनों उमरा करने निकले थे। दोनों ने यही बस बुक कर रखी थी। दोनों ने उसी सफर की तैयारी भी कर ली थी जिस सफर पर बाकी यात्रियों की रूहें हमेशा के लिए ठहर गई। लेकिन आखिरी पल में उनके टिकट में अचानक कुछ गड़बड़ निकल आई। चेकिंग के दौरान उनसे कुछ सवाल पूछे गए। कुछ दस्तावेज मांगे गए और वह कागजात पूरी तरह सही ना निकलने के कारण उन्हें बस में चढ़ने से रोक दिया गया। उस समय वे दोनों बहुत दुखी थे। उनके मन में उलझन थी कि आखिर क्यों किस्मत उन्हें उसी बस में बैठने नहीं दे रही। उन्हें लगा मानो उनकी यात्रा रुक गई है। जबकि बाकी लोग आगे बढ़ चुके हैं। वे निराश होकर दूसरी बस के टिकट में लगे थे। भीतर ही भीतर संघर्ष कर रहे थे कि कब मदीना पहुंचेंगे।
लेकिन तभी खबर आई कि जिस बस में उनके परिवारजन और बाकी यात्री बैठे थे, वह पूरी तरह आग का ढेर बन चुकी है। यह सुनकर उनका बदन सुन्न पड़ गया। आंखों से आंसू बरसने लगे और दिल से ऐसी हुक उठी जिसका दर्द शब्दों में नहीं बयां हो सकता। समीर और आयशा बताते हैं कि जैसे ही उन्होंने यह सुना कि बस राख हो चुकी है और अंदर बैठे सभी लोग अपनी जान गमवा चुके हैं। उनके पैरों से जैसे जमीन खिसक गई। उन्हें समझ नहीं आया कि वह रोएं या यह सोच कर कांपे कि वे खुद उसी बस में बैठे होते तो शायद आज इस दुनिया में ना होते। उन्हें यह एहसास इतना अंदर तक हिला गया कि आज भी जब वे मदीना में दुआ करने खड़े होते हैं। उनका दिल उन सबके लिए सिसक उठता है जिन्हें वह जानते भी थे और जिन्हें नहीं भी। उनके मुताबिक इंसान जहां होना लिखा है वहीं होगा और उनकी जान शायद सिर्फ इसलिए बची क्योंकि अल्लाह ने उनके लिए उस दिन मौत नहीं लिखी थी।
लेकिन उनके दिल में यह बात भी टीस की तरह चुभती है कि बस में बैठे बाकी मुसाफिरों की किस्मत में मक्का मदीने की मिट्टी में दफन होना ही लिखा था। और यह बात इस्लाम में हमेशा से बहुत बड़ी नेमत मानी जाती है। लेकिन इस त्रासदी में सिर्फ दुख ही नहीं। कई सवाल भी छिपे हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल यही था कि ड्राइवर को सामने खड़ा विशाल टैंकर आखिर दिखा क्यों नहीं? क्या बस की हेडलाइटें बंद थी? क्या ब्रेक में खराबी थी? या फिर सड़क पर कोई ऐसी बाधा थी जिसकी वजह से ड्राइवर को टैंकर नजर नहीं आया।
शोएब कहता है कि वह ड्राइवर से बात कर रहा था जिसका मतलब है कि ड्राइवर सो नहीं रहा था। लेकिन फिर भी टक्कर कैसे हुई? बस इतनी तेज आग कैसे पकड़ गई? यात्रियों को बाहर निकलने का मौका क्यों नहीं मिला? इन सब की जांच अभी बाकी है। ड्राइवर खुद बस से कूद गया था और बाकी लोग अंदर ही फंस गए। यह बात किसी के गले नहीं उतर रही कि ड्राइवर बच गया। पर इतने सारे आदमी मौत के हवाले हो गए। कई परिवार तो ऐसे हैं जिन्होंने एक ही रात में अपने ससुर, सास, बच्चे, भाई, बहन, दामाद लगभग पूरा घर खो दिया। उस रात की खामोशी आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है। मानो समय के पन्नों पर किसी ने जलते हुए अक्षरों का निशान छोड़ दिया हो।
मक्का और मदीना की पाक सरजमी पर गूंजने वाली अजान की आवाजें भी उस हादसे की भयावहता के सामने कुछ पल के लिए थम सी गई थी। अस्पतालों के बाहर रोते-बिलखते रिश्तेदार, चादरों में लिपटे जले हुए सामान के टुकड़े और सुरक्षाकर्मियों की तेज आवाजें इन सब ने मिलकर एक ऐसा माहौल बना दिया था जिसमें हर सांस भारी लग रही थी। कोई अपने पिता को ढूंढ रहा था। कोई अपनी बहन का नाम पुकार रहा था। कोई अपने छोटे-छोटे बच्चों की आखिरी झलक देखने की उम्मीद लगाए था। हर जगह सिर्फ एक ही आवाज थी। क्या मेरे अपने बच गए? इस सवाल का जवाब जब धीरे-धीरे सामने आने लगा तब लोगों की उम्मीदें एक-एक कर टूटती गई। जो परिवार वहां पहुंचने की कोशिश कर रहे थे वे अंदर ही अंदर टूट चुके थे। कोई कह रहा था कि वह अपने ससुर और सास के साथ था। कोई बता रहा था कि उसके पूरे परिवार से नौ लोग गए थे। कहीं कोई चाचा बच्चों को ढूंढ रहा था। कहीं कोई बेटी अपनी मां के लिए दुआ कर रही थी।
हादसे की खबर भारत तक पहुंचते-पहुंचते कई घरों में चीखें गूंजने लगी। कई ऐसे लोग भी थे जिन्हें रात को नींद नहीं आई क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं फोन पर उनकी दुनिया ही उजड़ने की खबर ना मिल जाए लेकिन हकीकत उससे भी ज्यादा दर्दनाक थी क्योंकि बस में सवार ज्यादातर लोग वहीं थे जिनका पूरा परिवार एक साथ सफर कर रहा था। इस वजह से कई घरों की दीवारें उसी रात वीरान हो गई। कुछ घरों में बच्चों की खिलखिलाहट बंद हो गई। कुछ घरों में बूढ़े बुजुर्गों की कहानियां थम गई। लोग इस सोच में डूब गए कि एक ही पल में इतना बड़ा नुकसान कैसे हो सकता है।
दूसरी तरफ शोएब अस्पताल में लेटा सब कुछ याद कर रहा था। उसकी आंखों के सामने बार-बार वही पल घूम रहा था जब उसने ड्राइवर से मौसम और रास्ते को लेकर बात की थी। उसे लगा था कि सफर लंबा है। इसलिए थोड़ी बातचीत कर लेनी चाहिए। लेकिन उसे क्या पता कि यह कुछ सेकंड बाद ही उसकी जिंदगी को बदल देने वाले थे। वह बताता है कि जब टैंकर नजर आया, बस इतनी तेज थी कि ड्राइवर के पास संभलने का मौका ही नहीं बचा। टक्कर के बाद सेकंडों में लपटों ने बस को ऐसे घेरा कि अंदर बैठे मुसाफिरों को कुछ समझने का मौका नहीं मिला। दरवाजा बंद हो गया, शीशे टूटने लगे, सीटें जलती चली गई। बस इतनी तेजी से आग की गेंद में बदल गई कि उसे याद भी नहीं कि उसने कैसे बाहर छलांग लगाई। उसे यह भी नहीं पता कि उसके साथ बैठे लोग किस तरफ भागने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि धुएं और आग ने सब कुछ निगल लिया था। वह कहता है कि उसकी सांसे रुक रही थी। आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। लेकिन किसी तरह बाहर गिरते ही उसकी जान बच गई।
इधर समीर और आयशा दूसरी बस में मदीना की ओर बढ़ रहे थे। लेकिन उनका दिल बार-बार पीछे उसी बस में अटक जाता था, जिसमें उनके अपने लोग सफर कर रहे थे। वे बार-बार सोचते थे कि अगर टिकट में गड़बड़ ना होती तो वे भी उसी आग में समा गए होते। यह ख्याल उन्हें अंदर से तोड़ देता था। मदीना की रोशन गलियों में भी उनके चेहरे पर कोई चमक नहीं थी। सिर्फ गहरी सोच और भारी सांसे थी। वे हर कदम पर यही दुआ कर रहे थे कि जिनकी जिंदगी यहां खत्म हो गई। उनकी रूहें सुकून पाई और उनके परिवारों को सब्र मिले। वे यह भी कहते रहते थे कि इंसान ने जो नहीं देखा उसे देखकर यकीन होता है कि जीवन कितना नाजुक है और मौत कितनी अचानक सामने खड़ी हो सकती है। वे मदीना पहुंच जरूर गए लेकिन उनके भीतर जो तूफान चल रहा था वह किसी और को महसूस भी नहीं हो सकता।
उन्होंने रास्ते भर यही सोचा कि जब इंसान अल्लाह के घर जाता है तो उसकी दुआएं अक्सर खुशियों से भरी होती हैं। लेकिन जब मौत इतनी करीब से गुजरे तो हर दुआ दर्द से शुरू होती है और सब्र पर खत्म होती है। इस हादसे ने जांच एजेंसियों को भी चौंका दिया। सवालों की लिस्ट इतनी लंबी थी कि उनके जवाब दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रहे थे। ड्राइवर से पूछताछ क्यों नहीं हो रही? यह सवाल हर किसी के मन में बार-बार उठता था। कोई कहता था कि ड्राइवर ने बस की गति को कम नहीं किया। कोई कहता था कि रोशनी पर्याप्त नहीं थी। कोई कहता था कि ब्रेक में खराबी थी। लेकिन सच्चाई इनमें से कौन सी थी? यह सिर्फ वही बता सकता था जो स्टीयरिंग पकड़े बैठा था। पर वह हादसे के बाद से गायब था और उसकी चुप्पी ही एक नई पहेली बनती जा रही थी।
लोग यह भी सोच रहे थे कि अगर ड्राइवर बच गया तो वह मौके पर भागा क्यों? उसने बाकी यात्रियों को क्यों नहीं चेताया? उसने लोगों को निकालने की कोशिश क्यों नहीं की? यह सब सुनकर परिवारों का गुस्सा और दर्द दोनों बढ़ते जा रहे थे। जो लोग भारत में थे उनके दिलों पर चोट इतनी गहरी थी कि वे हर तरफ सिर्फ अफवाहें और खबरें सुन रहे थे। कहीं कहा जा रहा था कि शवों को पहचानना मुश्किल है। कहीं बताया जा रहा था कि सभी को सऊदी में ही दफन किया जाएगा क्योंकि शरीर की हालत ऐसी नहीं कि उन्हें लाया जा सके। कुछ परिवार चाहते थे कि उनके अपने लोगों को वापस लाया जाए। कुछ इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि मक्का मदीना की मिट्टी से बेहतर जगह उन्हें मिल ही नहीं सकती। यह बहस अभी भी कई इलाकों में चल रही है कि आखिर असल में क्या किया जाना चाहिए।
लेकिन हर जगह एक ही बात कही जा रही है कि यह हादसा सिर्फ एक दुर्घटना नहीं बल्कि एक बड़ी चेतावनी है कि सुरक्षा में कोई भी कमी इतनी भारी कीमत ले सकती है कि जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। इस पूरी घटना ने देश भर के लोगों की आंखें खोल दी। कहीं कोई अपने रिश्तेदारों के लिए कुरान पढ़ रहा है। कहीं कोई सोशल मीडिया पर दुआ की अपील कर रहा है। कहीं कोई विदेश मंत्रालय से मदद मांग रहा है। दर्द इतना ज्यादा है कि शब्द भी छोटे पड़ जाते हैं। हर इंसान के मन में बस यही ख्याल घूम रहा है कि वे सब लोग जो उमरा करने की नियत से गए थे उन्हें यह मंजिल ऐसे क्यों मिली? आखिर कौन सी चूक ने इतने लोगों की जान ले ली? किस वजह से इतने बच्चों के सपने अधूरे रह गए? किन हालात में वे सब बस की लपटों में समा गए? इन सब का जवाब अभी तक किसी को नहीं मिल पाया है।
सऊदी के रेगिस्तान की सुबह उस दिन कुछ अलग थी। सूरज धीरे-धीरे रेत पर चमक तो रहा था। मगर वातावरण में एक ऐसा बोझ था जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। अस्पतालों में भीड़ पहले से कहीं ज्यादा थी, लेकिन किसी के चेहरे पर राहत की लकीर नहीं थी। हर कोई इस इंतजार में था कि शायद कोई चमत्कार हो जाए। शायद किसी लिस्ट में कोई नाम जीवितों में दिख जाए। शायद कोई आवाज सुनाई दे जो कह दे कि कोई बच गया है। मगर जैसे-जैसे समय गुजरता गया। उम्मीदें टूटती चली गई। डॉक्टरों की कानफूसियां, अधिकारियों की फाइलें, सुरक्षाकर्मियों की व्यस्तता, इन सबके बीच परिवारों की आंखें केवल दरवाजे पर टंगी थी। उन्हें ना खाने की सुध थी ना पानी की। बस दिल में एक ही सवाल था कि क्या उनके अपने अब भी इस दुनिया में हैं?
बाहर बैठे परिजनों के आंसू कभी बहते, कभी रुक जाते, फिर दोबारा बहने लगते। कुछ लोग जमीन पर बैठकर सिर पकड़ लेते, कुछ आसमान की तरफ देखकर दुआ करते। कुछ चुपचाप दीवार के सहारे टिक कर रोने लगते। किसी ने बताया कि उसका छोटा बेटा महीनों से उमरा जाने की आस लगाए बैठा था और अब उसे लगता है कि वह सपना टूट कर उसके हाथों से फिसल गया। किसी और ने बताया कि उसकी बीवी ने पहली बार मदीने की मिट्टी देखने की दुआ मांगी थी और अब वह खुद भी नहीं जानता कि उसके हाथों में जो सूखी रेत चिपकी है वह खुशी है या दर्द। हर तरफ ऐसा सन्नाटा था जिसने इंसान की आवाज तक को दबा दिया था।
इसी बीच भारतीय अधिकारियों ने भी स्थिति को संभालने की कोशिश शुरू कर दी थी। कंट्रोल रूम लगातार कॉल से भर रहा था। कोई अपने चाचा के बारे में पूछ रहा था। कोई अपने बच्चे के बारे में कोई बस यही पूछ रहा था कि क्या किसी भी तरह पहचान हो पाएगी। कई लोग फोटो भेजकर पूछ रहे थे कि क्या शरीर की पहचान उन निशानों से होगी जिन्हें परिवार के लोग ही जानते हैं। मगर हादसा इतना भयानक था कि कई शरीर पहचान से बाहर थे। यह बात सुनकर कई लोग वहीं जमीन पर गिर गए जैसे किसी ने उनके दिल पर पत्थर रख दिया हो। अधिकारियों के लिए भी यह पहली बार का अनुभव नहीं था। लेकिन इतने बड़े स्तर पर एक साथ इतने भारतीयों की मौत ने सबको सक्ते में डाल दिया था।
वहीं दूसरी ओर शोएब की हालत थोड़ी-थोड़ी सुधर रही थी। लेकिन उसका मन अब भी उस आग की लपटों में अटका हुआ था। उसका शरीर अस्पताल के बिस्तर पर था। मगर उसकी आत्मा उसी सड़क पर भटक रही थी, जहां बस जलते हुए चिंगारियों में बदल गई थी। वह आंखें बंद करते ही चीखें सुनता था। खुली आंखों से दीवारों में आग की परछाइयां देखता था। उसके कानों में वह आवाजें गूंजती थी जो आखिरी बार उसने सुनी थी। डॉक्टर कहते थे कि वह बच गया लेकिन वह खुद कहता था कि शायद उसका एक हिस्सा वहीं रह गया है। उसने किसी को यह भी बताया कि उसे ऐसा महसूस होता है कि किसी ने ऊपर से उसे धक्का दिया और वह बस की खिड़की से बाहर गिर गया। वह यह सोचकर कांप उठता था कि अगर वह एक पल भी देर करता तो उसका नाम भी उन सूचियों में होता जिनमें आज इतने लोग शामिल हैं।
दूसरी तरफ समीर और आयशा ने अपने परिवार के लिए दुआएं की। मगर उनकी आंखें हर पल रोती रहीं। उनके दिल में एक अजीब सा बोझ था। एक ऐसा बोझ जिससे वे बाहर आना चाहते थे, लेकिन निकल नहीं पा रहे थे। जब वे मदीना में पहली बार मस्जिद के सामने खड़े हुए, उनकी सांसे भारी हो गई। वह जगह जहां वे हमेशा खुशी के साथ आने की सोचते थे। अब उन्हें अलग ही एहसास करा रही थी। वे दोनों केवल अपने परिवार के लिए नहीं बल्कि उन सभी के लिए दुआ कर रहे थे जो इस हादसे में दुनिया से चले गए। उन्होंने कहा कि जब इंसान मौत को इतनी करीब से देख लेता है तो उसकी दुआएं भी बदल जाती हैं। पहले वे खुशियों के लिए दुआ करते थे। अब सब्र और सुकून के लिए कर रहे थे। पहले वे मन्नतें मांगते थे। अब मौत के बाद राहत की दुआ कर रहे थे।
इस हादसे ने सऊदी प्रशासन को भी सोचने पर मजबूर कर दिया था। सड़कों की सुरक्षा, बसों का निरीक्षण, ड्राइवर की थकान, सड़क पर खड़े वाहनों की चेतावनी इन सब पर अब गहराई से चर्चा शुरू हो गई थी। कई विशेषज्ञों ने बताया कि अक्सर ऐसी बसें लंबी यात्राएं करती हैं और ड्राइवर कई घंटे लगातार गाड़ी चलाते रहते हैं। इससे थकान बढ़ती है और एक छोटी सी गलती भी इतना बड़ा हादसा कर सकती है। लेकिन इस मामले में सारी बातें अभी कयास भर थी क्योंकि असली जानकारी सिर्फ ड्राइवर दे सकता था और वह अभी भी सामने नहीं आया था। यह बात परिवारों को और परेशान कर रही थी कि आखिर वह कहां है, क्यों छिपा हुआ है? उसने क्या देखा? उसने क्या महसूस किया? उसने क्यों इतनी जल्दी बस छोड़ दी? यह रहस्य जितना गहरा हो रहा था, परिवारों का दर्द उतना ही तेज हो रहा था।
भारत में टीवी चैनल भी इस घटना को लगातार दिखा रहे थे, लेकिन कई परिवारों ने कहा कि वे स्क्रीन पर यह दृश्य नहीं देख पा रहे। किसी ने कहा कि उसका भाई मुस्कुराते हुए निकला था और अब उसे उसकी मुस्कान भी याद नहीं आ रही। किसी ने कहा कि उसकी मां हर साल दुआ करती थी कि वह मक्का मदीना जरूर जाए। और अब जब वह गई तो वापस आने के बजाय वहीं की मिट्टी में समा गई। ऐसी कहानियां पूरे देश में फैलती जा रही थी और लोग सोशल मीडिया पर संदेश लिखकर परिवारों के प्रति शोक व्यक्त कर रहे थे। लेकिन जितनी भी संवेदनाएं आई उतना ही दर्द बढ़ता गया क्योंकि कोई भी शब्द इतना बड़ा नहीं कि वह इस हादसे का घाव भर सके।
इस घटना की यह खासियत थी कि उसने लोगों को एक साथ जोड़ दिया। चाहे कोई उत्तर भारत से था या दक्षिण भारत से। कोई अमीर था या गरीब, कोई बड़ा था या छोटा। सबके दिल एक ही तरह से दुख रहे थे। हर जगह सिर्फ यही चर्चा थी कि जिंदगी कितनी अनिश्चित है और कैसे एक पल में सब कुछ खत्म हो सकता है। यह हादसा सिर्फ एक जगह का दर्द नहीं बल्कि एक ऐसी लपट थी जिसने भारत के लाखों दिलों को छू लिया।
इस हादसे ने देश को झकझोर दिया, प्रशासन को चेताया, और परिवारों को एक ऐसा घाव दे गया जो शायद कभी नहीं भर सकेगा। आज भी उन रेगिस्तानी सड़कों पर, उन अस्पतालों में, उन मस्जिदों में, और भारत के हर कोने में एक ही दुआ गूंजती है—अल्लाह उन सबको जन्नत बख्शे, उनके परिवारों को सब्र दे, और हमारी व्यवस्थाओं को इतना मजबूत बना दे कि फिर कोई ऐसी रात दोहराई न जाए।
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