सरहद के उस पार: इंसानियत की कहानी

प्रस्तावना

क्या होता है जब नफरत की खींची हुई लकीरें एक मासूम की भोली आंखों के सामने धुंधली पड़ जाती हैं? क्या इंसानियत किसी कंटीली तार, किसी सरहद या किसी देश की मोहताज होती है? यह कहानी एक 15 साल की पाकिस्तानी लड़की सलमा की है, जो अपनी बकरियों के पीछे भागते-भागते अनजाने में नियंत्रण रेखा पार कर जाती है। यह कहानी भारतीय सेना के उन जवानों की भी है, जिनकी वर्दी का रंग और धर्म सिर्फ हिंदुस्तान की हिफाजत करना है, लेकिन दिल इंसानियत से भरा हुआ है।

सलमा का संसार

पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के एक छोटे से गांव चकोठी में सलमा का परिवार रहता था। सलमा की दुनिया ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों, झरनों की आवाज और अपनी बकरियों की घंटियों तक ही सीमित थी। उसके अब्बू बशीर अहमद मामूली किसान थे, अम्मी फातिमा शॉल पर कढ़ाई कर कुछ पैसे कमा लेती थीं और छोटा भाई जुनैद सात साल का था। गरीबी थी, लेकिन प्यार और अपनापन भी था।

सलमा स्कूल नहीं जाती थी, क्योंकि गांव में लड़कियों के लिए स्कूल था ही नहीं। उसका सारा दिन घर के काम और बकरियों की देखभाल में गुजरता था। सलमा की सबसे प्यारी बकरी थी नूरी, जो अक्सर झुंड से अलग होकर कहीं दूर निकल जाती थी।

सरहद के करीब

सलमा रोज सुबह अपनी बकरियों को चराने पहाड़ों की ढलानों पर जाती थी, जो गांव से दूर और सरहद के करीब था। उसके अब्बू ने बार-बार हिदायत दी थी, “बेटी, कभी भी उस काली पहाड़ी से आगे मत जाना। वहां फौजी होते हैं, खतरा होता है।” सलमा जानती थी कि सरहद का मतलब क्या होता है। उसने गोलियों की आवाजें सुनी थीं और गांव के लोगों से हिंदुस्तान के बारे में नफरत भरी बातें भी।

नूरी की तलाश

सितंबर के आखिरी दिनों में, एक दिन सलमा अपनी बकरियों को चराते-चराते काली पहाड़ी के पास पहुंच जाती है। नूरी अचानक झुंड से अलग होकर पहाड़ी की तरफ भागने लगती है। सलमा घबरा जाती है और अपनी लाठी लेकर नूरी के पीछे दौड़ती है। भागते-भागते वह अनजाने में सरहद पार कर जाती है। तभी मौसम बदल जाता है, घनी सफेद धुंध छा जाती है। सलमा रास्ता भटक जाती है, भूख-प्यास और डर से बेहाल होकर एक पेड़ के नीचे बैठकर रोने लगती है। उसे अपने परिवार की याद सताने लगती है और वह रोते-रोते वहीं सो जाती है।

भारतीय सेना की चौकी

नियंत्रण रेखा के इस पार टाइगर हिल पोस्ट पर भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट के जवान तैनात थे। पोस्ट के कमांडर थे मेजर विक्रम सिंह, जिनकी आंखों में रहमदिली थी। अगली सुबह, मेजर विक्रम अपने दो जवानों के साथ गश्त पर निकले। हवलदार राम सिंह ने दूरबीन से देखा कि एक लड़की पेड़ के नीचे सो रही है। तीनों सतर्क हो गए और बंदूकें संभालते हुए लड़की के पास पहुंचे।

सलमा की नींद खुली तो उसने सामने भारतीय सेना के जवानों को देखा। डर से कांपते हुए वह रोने लगी, “अब्बू, अम्मी, मुझे घर जाना है। मैंने कुछ नहीं किया।” मेजर विक्रम ने उसकी आंखों में डर देखा और तुरंत बंदूक नीचे कर दी। उन्होंने नरम आवाज में पूछा, “डरो मत बेटी, हम तुम्हें कुछ नहीं करेंगे। तुम कौन हो, यहां कैसे आई?”

मासूमियत का असर

सलमा ने रोते हुए अपनी कहानी बता दी। मेजर विक्रम समझ गए कि यह कोई घुसपैठिया नहीं, बल्कि मासूम बच्ची है जो अनजाने में सरहद पार कर गई है। उन्होंने उसे पानी और चॉकलेट दी। सलमा ने पहली बार चॉकलेट खाई और उसके डर में इंसानियत की मिठास घुल गई। पोस्ट पर पहुंचकर उसे गरम खाना, जैकेट और कंबल दिया गया। वहां के जवानों ने उससे उसके गांव, परिवार और भाई के बारे में पूछा। सलमा हैरान थी कि ये वो हिंदुस्तानी फौजी नहीं थे, जिनके बारे में उसने डरावनी कहानियां सुनी थीं। ये तो बहुत अच्छे और नेक दिल इंसान थे।

फैसले की घड़ी

मेजर विक्रम के सामने एक बड़ा फैसला था। नियम के मुताबिक उन्हें सलमा को उच्च अधिकारियों को सौंपना था, जिससे लंबी कानूनी प्रक्रिया शुरू होती और सलमा को मानसिक पीड़ा सहनी पड़ती। मेजर विक्रम का जमीर यह मानने को तैयार नहीं था। उन्होंने सलमा की आंखों में अपने परिवार के लिए तड़प देखी थी। उन्होंने फैसला किया कि वह सलमा को उसी रास्ते से चुपचाप उसके घर पहुंचाएंगे। यह इंसानियत का प्रोटोकॉल था।

सीमा पर मुलाकात

मेजर विक्रम ने अपने कमांडिंग ऑफिसर कर्नल वर्मा से बात की। कर्नल वर्मा ने जोखिम समझाया, लेकिन मेजर विक्रम के फैसले का समर्थन किया। पाकिस्तानी अफसर कैप्टन बिलाल से संपर्क किया गया। पहले तो कैप्टन बिलाल को शक हुआ, लेकिन मेजर विक्रम की ईमानदारी ने उसे मानने पर मजबूर कर दिया। दोनों सेनाओं ने तय किया कि अगली सुबह नो मैनस लैंड पर सलमा को उसके परिवार को सौंपा जाएगा।

इंसानियत की जीत

अगली सुबह भारतीय सेना की जीप सफेद झंडे के साथ सलमा को लेकर अमन सेतु पहुंची। सलमा को चॉकलेट्स और उसके भाई के लिए खिलौने दिए गए। सरहद के उस पार पाकिस्तानी रेंजर्स कैप्टन बिलाल के नेतृत्व में खड़े थे और सलमा के मां-बाप बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। सलमा दौड़कर अपने मां-बाप से लिपट गई। दोनों तरफ के सैनिकों की आंखें नम हो गईं।

बशीर अहमद और फातिमा ने मेजर विक्रम के पैरों में गिरकर धन्यवाद किया। मेजर विक्रम ने उन्हें गले लगाया, “बेटी चाहे हिंदुस्तान की हो या पाकिस्तान की, बेटी तो बेटी होती है।” कैप्टन बिलाल ने मेजर विक्रम को सैल्यूट किया और दोनों ने एक-दूसरे की इंसानियत को सलाम किया। उस दिन सरहद पर बंदूकें नहीं, इंसानियत का संगीत गूंज रहा था।

कहानी का सबक

यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है। भारतीय सेना ने साबित कर दिया कि वे सिर्फ देश की जमीन के ही नहीं, बल्कि इंसानियत के भी सच्चे रक्षक हैं। उन्होंने नफरत की आग में मोहब्बत और रहमदिली का पुल बनाया। असली सरहदें जमीन पर नहीं, दिलों में होती हैं।