सुहानी की कहानी: सपनों की उड़ान, संघर्ष और दूसरा मौका

प्रस्तावना

बिसौली नाम का एक छोटा सा गांव, जहां मिट्टी की खुशबू, खेतों की हरियाली और रिश्तों की ऊष्मा है। इसी गांव में जन्मी सुहानी की कहानी सिर्फ एक लड़की की नहीं, बल्कि उन लाखों लड़कियों की है जिनके सपनों को अक्सर समाज, परंपरा और परिस्थितियों की दीवारों में कैद कर दिया जाता है। लेकिन सुहानी ने इन दीवारों को तोड़कर दिखाया—कि सपनों की कोई सीमा नहीं होती। यह कहानी है उसके संघर्ष, उसकी हिम्मत, उसकी हार-जीत और अंत में मिले दूसरे मौके की।

बचपन की जड़ें और सपनों की पहली उड़ान

सुहानी का बचपन गरीबी में बीता। उसके पिता भोलाराम खेतों में मजदूरी करते थे, मां कमला देवी दूसरों के घरों में काम करके परिवार चलाती थी। घर में पैसे की तंगी थी, लेकिन आदर, मोहब्बत और संस्कारों की रोशनी कभी कम नहीं हुई। बचपन से ही सुहानी बहुत समझदार थी। उसकी आंखों में सपनों का पूरा आसमान बसता था। वह स्कूल जाती, अच्छे नंबर लाती, लेकिन घरवालों की सोच थी—लड़की को ज्यादा पढ़ाकर क्या हासिल होगा?

15 साल की उम्र में उसका रिश्ता दूर के रिश्तेदार जगदीश से तय कर दिया गया। शादी हो गई, लेकिन उम्र कम होने की वजह से सुहानी मायके में ही रही। उसे कहा गया—18 साल की होते ही ससुराल भेज देंगे। यह सुनकर उसके दिल के सारे सपने जैसे बिखर गए। उसका ख्वाब था—बड़ी अफसर बने, पुलिस की वर्दी पहने, गाड़ी पर डीएसपी लिखा हो और लोग उसे सलाम करें।

ससुराल की चौखट और सपनों की जंग

समय गुजरता गया। शादी हुई थी, लेकिन जगदीश से कोई गहरा रिश्ता नहीं बन पाया था। 17 साल की उम्र में सुहानी ने हिम्मत करके पहली बार जगदीश से कहा—क्या मैं आगे पढ़ सकती हूं? पढ़ाई मेरी जान है। जगदीश ने उस वक्त बस यूं ही हामी भर दी—सोचकर कि अब भी मना करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे।

18 साल की होते ही सुहानी को ससुराल भेज दिया गया। ससुराल बड़ा घर था, बड़ा खानदान था और उससे भी बड़ी थी जिम्मेदारियां। सुबह आंख खुलते ही काम का ऐसा ढेर सामने होता कि सुहानी खुद के बारे में सोच भी नहीं पाती थी। सास सख्त मिजाज की थी—घर में अनुशासन चाहिए। ससुर पुराने ख्यालात वाले—बहू घर संभाले यही काफी है। जगदीश एक सरकारी स्कूल में चपरासी था। शादी से पहले उसने वादा किया था कि वह सुहानी को पढ़ने देगा, मगर ससुराल का माहौल आते ही यह बात धुंधली पड़ने लगी।

कुछ महीने गुजरे, सुहानी ने फिर हिम्मत जुटाई और कहा—”मैं पढ़ाई जारी रखना चाहती हूं। क्या मैं आगे पढ़ सकती हूं?” जगदीश ने चौंक कर देखा—”अब कैसी पढ़ाई? घर का काम देखो। हमारे घर में कोई लड़की इतना नहीं पढ़ती। तुम्हें भी नहीं पढ़ना है।” उसकी बात सुहानी के दिल पर भारी चोट बनकर बैठ गई। लेकिन उसने उम्मीद नहीं छोड़ी।

घुटन, अपमान और पहली विद्रोह की लौ

वक्त के साथ जगदीश का स्वभाव और भी कड़क होता गया। छोटी-छोटी बातों पर नाराज हो जाना, ऊंची आवाज में बोलना सब आम हो गया। एक रात बहुत हिम्मत करके सुहानी ने फिर कहा—”जगदीश, मैं बस थोड़ी सी पढ़ाई करना चाहती हूं। घर का काम भी करूंगी, पढ़ाई भी। बस इजाजत दे दो।” जगदीश ने आंखें तरेरी—”तुम्हें कितनी दफा समझाना पड़ेगा? मैंने कह दिया ना, आगे पढ़ाई की कोई जरूरत नहीं। दोबारा यह बात जुबान पर मत लाना।”

धीरे-धीरे यही गुस्सा रोज का मामला बन गया। छोटी सी बात भी बहस में बदल जाती और बहस झगड़े में। सुहानी की हालत देखकर कभी-कभार सास-ससुर भी बीच में बोलते, मगर उनकी सोच भी वही पुरानी थी—लड़की का काम तो घर संभालना ही है।

अब सुहानी के चेहरे की चमक कम होने लगी थी। पहले जैसा जोश नहीं बचा था। मगर दिल के किसी कोने में उसका सपना अभी भी जिंदा था। टिमटिमाती हुई लौ की तरह वह चुप रहती, पर अंदर से टूटती जा रही थी। उसे लगता—मानो उसकी जिंदगी धीरे-धीरे उसकी मुट्ठी से फिसल रही हो।

एक दिन बड़ी बहस के बाद जगदीश ने पहली बार उस पर हाथ उठा दिया। सुहानी के दिल में जैसे हजारों शीशे टूट गए। यही वह शख्स था जिसने कभी वादा किया था कि वह उसे आगे बढ़ने देगा और आज वही उसके रास्ते की सबसे बड़ी दीवार बन गया था।

रात की चुप्पी और सपनों की अंतिम पुकार

दिन बीतते गए और हालात और बदतर होते गए। जगदीश रोज खेत से लौटकर किसी भी छोटी बात पर चिल्ला उठता। गुस्सा अब उसका स्वभाव बन गया था। सुहानी हर बार चुप रहती क्योंकि उसे महसूस होने लगा था कि हर झगड़ा उसके सपनों से एक कदम और दूर कर देता है। रातों को उसका दिल चुपचाप रोता। दिन में वह मुस्कुराने की कोशिश करती मगर अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी।

कई बार उसने सोचा—अगर मैं इस गांव से बाहर जाकर पढ़ सकूं तो शायद जिंदगी बदल सकती है। उस रात भी जगदीश का गुस्सा हद से बढ़ गया था। अपमान की आग में तड़पती हुई सुहानी अपने कमरे में अकेले बैठी थी। खिड़की से आती हल्की चांदनी कमरे में फैल रही थी। सब कोई सो चुका था। लेकिन उसकी आंखों से नींद बहुत दूर थी।

उस पल एक चीज पहले से ज्यादा मजबूत हो चुकी थी—उसका इरादा। सुहानी ने मन ही मन फैसला कर लिया—अगर मैं यहीं रही तो मेरी जिंदगी इसी तकलीफ में खत्म हो जाएगी। ना सपने बचेंगे, ना मेरी इज्जत। मुझे यहां से जाना ही होगा।

उसने कांपते हाथों से एक छोटा कागज और पेन उठाया। दिल धड़क रहा था, मगर उसने लिखना शुरू किया—”जगदीश, जब मैं सिर्फ 15 साल की थी, तब हमारी शादी हुई थी। मैंने कभी तुम्हें अपना दुश्मन नहीं समझा। मुझे उम्मीद थी कि तुम मेरा साथ दोगे। लेकिन तुमने मेरी हिम्मत तोड़ दी। मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूं, क्योंकि मेरे सपने अब भी जिंदा हैं। मैं एक दिन अफसर बनकर वापस आऊंगी।”

नोट लिखकर उसने उसे तकिए के पास रख दिया। फिर धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकली। सास, ससुर और जगदीश तीनों गहरी नींद में थे। रात की हवा में डर भी था और आजादी की खुशबू भी। सुहानी ने अपनी कुछ जरूरी चीजें छोटे थैले में रखीं और घर के बाहर कदम रख दिया।

गांव से शहर: सपनों की असली परीक्षा

गांव की गलियां अंधेरे में डूबी थीं। दूर कहीं कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही थी। वह तेज कदमों से चलने लगी। डर था, लेकिन उसके सपने उससे भी बड़े थे। स्टेशन गांव से 5 किलोमीटर दूर था। कोई सवारी नहीं, बस उसके पैर और उसका इरादा। रास्ते में कई बार लगा कि कोई देख ना ले, मगर वह रुकी नहीं। उसके दिल में बस एक ही आवाज गूंज रही थी—मुझे अफसर बनना है, मुझे अपनी जिंदगी बदलनी है।

करीब 1 घंटे बाद वह स्टेशन पहुंची। पैसे बहुत कम थे। फिर भी उसने दिल्ली का टिकट लिया क्योंकि उसे पता था—बड़े सपनों के लिए बड़ी जगह चाहिए।

सुबह होने से पहले ट्रेन आई। धड़कते दिल के साथ वह उसमें चढ़ गई। खिड़की के पास बैठकर उसने बाहर झांका। अंधेरा धीरे-धीरे पीछे हट रहा था और सुबह की हल्की सी रोशनी क्षितिज पर उभरने लगी थी। सूरज की पहली किरण जैसे उसके दिल से कह रही हो—तेरी जिंदगी भी अब रोशन होने वाली है।

दिल्ली: संघर्ष, अकेलापन और उम्मीद

दिल्ली पहुंचने में कई घंटे लग गए। वह इस बड़े शहर में बिल्कुल अकेली थी, मगर हिम्मत उसके कदमों के साथ चल रही थी। पेट में भूख थी, बदन में दर्द था। शहर पहुंचते ही वह रहने की जगह तलाश रही थी। कई मकानों में पूछताछ की, पर किराया इतना ज्यादा था कि उसके पास उम्मीद से ज्यादा कुछ नहीं था।

यही उसका नया आसरा था, यही उसकी नई जिंदगी का पहला पन्ना। सुबह चार घरों में काम, दोपहर में पुरानी किताबों को खोलकर पढ़ाई, शाम को फिर काम और रात को कम नींद, ज्यादा मेहनत। कई बार थकान से शरीर टूटने लगता, लेकिन उसकी आंखों में एक ही सपना चमकता था—अफसर बनना।

उसे मालूम था कि यूपीएससी का रास्ता आसान नहीं। मगर आसान रास्ता उसे चाहिए भी नहीं था। धीरे-धीरे उसने पढ़ाई पकड़नी शुरू की। कुछ नए दोस्त मिले, कुछ हिम्मत देने वाले लोग मिले। एक दिन उसने कांपते हाथों से यूपीएसएससी का पहला फॉर्म भरा।

दिल्ली की जिंदगी बेहद मुश्किल थी। सुबह 4 बजे उठकर काम शुरू—झाड़ू पोछा, बर्तन, बुजुर्गों की सेवा सब कुछ वक्त पर। इन कामों से जो ₹10,000 आते थे, उसी से खाना और पढ़ाई सब चलता था। शाम तक उसका शरीर थक कर चूर हो जाता। लेकिन जैसे ही वह अपने छोटे से कमरे में कदम रखती, उसी वक्त अंदर एक नई ऊर्जा बहने लगती।

एक कमरा, एक बल्ब, एक कुर्सी और पुरानी मेज। बस इन्हीं चीजों के सहारे वह देर रात तक पढ़ती रहती। कोचिंग के पैसे नहीं थे तो उसने पुरानी किताबें खरीदीं। लाइब्रेरी में बैठकर दिन भर पढ़ाई करती। कई बार भूख सताती, वह बस पानी पीकर खुद को संभाल लेती। कई बार नींद आंखें बंद कर देती, वह चेहरा धोकर फिर बैठ जाती।

धीरे-धीरे उसे समझ आया—यूपीएससी सिर्फ किताबों की परीक्षा नहीं, यह सब्र, मेहनत और हिम्मत की भी परीक्षा है।

पहली हार और उम्मीद की नई लौ

पहली बार उसने परीक्षा दी। एग्जाम सेंटर में वह बहुत घबराई हुई थी। हॉल में बैठे लड़के-लड़कियां सब पढ़े-लिखे, आत्मविश्वास से भरे हुए। एक पल को उसके दिल में आया—क्या मैं इन सबके सामने टिक पाऊंगी? मगर अगले ही पल उसने खुद से कहा—जिसने इतना सफर अकेले तय किया है, वह यह पेपर भी दे सकती है। उसने पूरे दिल से परीक्षा दी।

लेकिन जब रिजल्ट आया, वह प्रीलिम्स में रह गई। उसका नाम सूची में नहीं था। उसकी उंगलियां कांपने लगीं, पैर जैसे सुन्न हो गए। कमरे का बल्ब बुझा हुआ था और उसके अंदर भी अंधेरा उतरने लगा था। उस रात वह बहुत रोई। छोटी-छोटी सिसकियों में उसका दर्द बहता रहा। उसे लगा—जिंदगी फिर से उसके साथ खेल रही है।

माता-पिता का चेहरा याद आया, ससुराल की बातें याद आईं, जगदीश की मार, अपमान—सब कुछ। एक पल को लगा शायद सब खत्म हो गया है।

तभी उसके कमरे का दरवाजा खटखटाया गया। बाहर उसकी पड़ोस की लड़की पूजा खड़ी थी, जो खुद 4 साल से यूपीएसएससी की तैयारी कर रही थी। उसने सुहानी की हालत देखी और धीरे से कहा—”सुहानी, हार मत मानो। पहली कोशिश में चयन होना बहुत मुश्किल होता है। तुमने एक साल में जितना किया है, उतना कोई आसान रास्ता चुनने वाला नहीं कर पाता। तुम्हारी मेहनत कहीं खो नहीं रही। बस एक बार और कोशिश करो।”

पूजा की बात उसके दिल में एक चिंगारी की तरह उतर गई। पूजा यह कहकर चली गई। सुहानी ने आंसू पोंछे और खुद से बोली—”मैंने अपनी जिंदगी बदली है, तो भला एक इम्तिहान मेरी जीत कैसे छीन सकता है?”

दूसरी कोशिश, नई मेहनत और सफलता की सुबह

अगले ही दिन वह फिर लाइब्रेरी पहुंची। फिर वही पुरानी किताबें, फिर वही मेहनत का सफर। मगर इस बार पहले से ज्यादा जुनून के साथ। सुबह घरों का काम, दोपहर में पढ़ाई, शाम फिर काम और रात भर पढ़ाई। यह दिनचर्या फिर शुरू हो गई।

कभी-कभी शरीर जवाब देने लगता, कभी दिमाग बोझ से भर जाता, लेकिन कमरे की दीवार पर चिपका वह एक कागज उसे हमेशा संभाल लेता—”एक दिन मैं डीएसपी बनूंगी।” वह रोज उसे देखती और अपनी रूह में नई ताकत महसूस करती।

दूसरी बार परीक्षा का समय आया। इस बार सुहानी ने अपनी पूरी जान लगा दी। दिल कहीं गहराई में कह रहा था—किस्मत ने मुझे एक साल रोका है, लेकिन हमेशा नहीं रोक सकती। एग्जाम हुआ और इंतजार शुरू हुआ।

दिन बीतते गए। रिजल्ट वाले दिन उसकी सांसे तेज हो गई। वह कंप्यूटर स्क्रीन पर अपनी रोल नंबर की खोज में ऊपर-नीचे पेज कर रही थी। हर बार पेज स्क्रॉल करती, पर नाम नजर नहीं आता। एक पल उसने हल्की सी आंखें बंद की और फिर दोबारा देखा। इस बार उसका नाम सूची में था।

पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। उसने पूजा को बुलाया—”देखो, मेरा नाम है क्या?” पूजा ने स्क्रीन देखी और खुशी से उछल पड़ी—”सुहानी, तुम पास हो गई। तुमने कर दिखाया।”

इस बार सुहानी की आंखों से जो आंसू निकले वह दर्द के नहीं, कामयाबी के थे। उसकी मेहनत आखिरकार रंग लाई थी। कुछ दिनों बाद फाइनल रैंक आई और सुहानी को बेहतरीन नंबरों के साथ डीएसपी का पद मिला।

सरकारी गाड़ी, सरकारी मकान, वर्दी—सब अब उसके नाम था। जब उसने पहली बार अपनी पुलिस की वर्दी पहनी, आईने के सामने खड़ी होकर देर तक खुद को देखती रही। वर्दी में उसका चेहरा एक अलग ही रोशनी से चमक रहा था।

सम्मान, पहचान और दिल का खालीपन

उसकी आंखों में वह गर्व था जो सिर्फ उन लोगों को मिलता है जो अंधेरों से लड़कर रोशनी तक पहुंचते हैं। उसे अचानक याद आया—वही लड़की जो कभी अंधेरी रात में घर छोड़कर भागी थी, आज लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने जा रही थी।

उसने आसमान की तरफ देखा और धीरे से कहा—”शुक्रिया भगवान, मेरी मेहनत को मंजिल मिल गई।”

डीएसपी बनने के बाद उसकी जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी। अब गाड़ी भी थी, वर्दी भी, सम्मान भी और समाज में एक अलग पहचान भी। लोग दूर से सलाम करते, हर जगह उसका मान बढ़ चुका था।

लेकिन उसके दिल में एक सवाल हमेशा सन्नाटा बनकर बैठा रहता—जगदीश कहां है? किस हाल में है? जब वह ससुराल गई थी, घर खाली मिला था। दरवाजे पर ताला जड़ा हुआ था। पड़ोसियों ने बस इतना बताया कि जगदीश और उसका परिवार किसी वजह से अचानक गांव छोड़कर चले गए। कहां गए? क्यों गए? किसी को पता नहीं।

यह बात सुहानी के दिल में कहीं गहरी धंस गई। उसकी जिंदगी संभल गई थी, लेकिन पति की गुमशुदगी उसके अंदर एक खालीपन छोड़ जाती थी। वह अक्सर सोचती—इतने सालों में उसने मुझे ढूंढने की कोशिश क्यों नहीं की?

मथुरा की भीड़ और जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई

इसी बीच सरकार की तरफ से एक अहम आदेश आया। मथुरा में होने वाले बड़े धार्मिक कार्यक्रम की सुरक्षा संभालने के लिए उसे भेजा जा रहा था। मथुरा—जहां रोज लाखों श्रद्धालु आते हैं। संकरी गलियां, भीड़ भरे रास्ते, हर तरफ भक्तों का सैलाब। यहां सुरक्षा का काम सिर्फ हिम्मत नहीं, बल्कि तेज दिमाग और जज्बे की भी मांग करता था।

पर डीएसपी सुहानी को देखकर हर किसी को यकीन था—वह यह जिम्मेदारी बखूबी निभाएगी। मथुरा पहुंचकर उसने पहली बार वहां की गलियों, मंदिरों और घाटों को करीब से देखा। रंग-बिरंगे फूल, राधे-राधे की गूंज और भक्तों का समुद्र। इस माहौल में एक अजीब सी शांति थी, दिल को छू लेने वाली।

लेकिन उसे क्या पता था—यहीं उसी भीड़, उसी शहर में उसे अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी सच्चाई मिलने वाली है।

भीड़ में एक चेहरा: अतीत की परछाईं

मथुरा की भीड़, मंदिरों का शोर और भक्तों की लहर के बीच डीएसपी सुहानी अपने काम को समझने के लिए खुद मैदान में उतरी थी। वह उन अफसरों में से नहीं थी जो दूर से आदेश दे दें। वह हर मोड़, हर चौराहे, हर मंदिर के बाहर की स्थिति खुद अपनी आंखों से देख रही थी। भीड़ का दबाव, सुरक्षा व्यवस्था, लंबी-लंबी लाइनें—वह सब की बारीकी से जांच कर रही थी।

साधु-संत भजन गा रहे थे। गरीब लोग भीख मांगकर अपने दिन काट रहे थे। इसी भीड़ में उसकी नजर एक आदमी पर पड़ी—बहुत दुबला-पतला, फटे पुराने कपड़े, सड़क किनारे बैठकर भीख मांग रहा था। पहले तो सुहानी ने ध्यान नहीं दिया, क्योंकि ऐसे लोग वहां बहुत थे। लेकिन जैसे ही वह उसके पास से गुजरी, वह आदमी कांपते हुए हाथ आगे बढ़ाकर बोला—”माता जी, कुछ दान दे दीजिए।”

उसकी आवाज टूटी हुई, कमजोर और भरी हुई थी। लेकिन सुहानी के कानों में यह आवाज एक अजीब सी चुभन बनकर उतर गई। जैसे यह आवाज उसने कहीं सुनी हो—बहुत गहराई में। वह रुकी, धीरे-धीरे उसकी तरफ मुड़ी। चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था। लेकिन फिर उसकी नजर उस आदमी पर गई। सुहानी का दिल जैसे अचानक रुक गया। उसके कदम ठिठक गए। उसकी सांसों की आवाज तेज हो गई।

उसने झुककर आदमी के चेहरे को गौर से देखा—गंदगी, धूल और लंबी दाढ़ी के पीछे वही कमजोर टूटी हुई आंखें। उसी पल उसने पहचान लिया—यह कोई और नहीं, बल्कि उसका पति जगदीश था।

अतीत का सामना, पछतावा और माफ़ी

दुनिया जैसे एक पल को थम गई। सुहानी पूरी तरह स्तब्ध खड़ी रह गई। यह वही आदमी था जिसने कभी उसे सपने पूरे करने से रोका था, जिसके गुस्से ने उसकी आत्मा को तोड़ दिया था, जिसके अपमान ने उसे घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। और आज वही आदमी मथुरा की सड़कों पर भीख मांग रहा था।

जगदीश की नजर भी डीएसपी की वर्दी वाली सुहानी पर पड़ी। पहले वह समझ ही नहीं पाया। फिर अचानक उसकी आंखें चौड़ी हो गई। वह कांपते हुए बोला—”सुहानी, यह… यह सच है?” उसकी आवाज टूट रही थी। आंखों में शर्म, डर, पछतावा—सब कुछ एक साथ घुला हुआ था।

सुहानी अंदर से बिखर गई, लेकिन उसने खुद को संभाल लिया। उसकी टीम को लगा कि यह कोई पागल आदमी है। वे उसे हटाने लगे। सुहानी ने तुरंत कहा—”रुको, इन्हें मत छुओ। यह मेरे पति हैं।”

पुलिसकर्मी दंग रह गए। इतनी बड़ी अफसर के पति को इस हालत में देखकर वे कुछ बोल ही नहीं पाए। सुहानी उसके पास गई और धीमी आवाज में पूछा—”यह क्या हाल बना लिया है तुमने?”

जगदीश की आंखों से आंसू बहने लगे। वह जमीन की तरफ देखते हुए बोला—”मेरी गलतियों ने, मेरे गुस्से ने, मेरे अहंकार ने सब कुछ खत्म कर दिया। मैं तुम्हें ढूंढता रहा, पर कभी तुम्हें पा नहीं सका। मैंने सब खो दिया।”

सुहानी चुप रही। उसके मन में तूफान मचल रहा था। वह आदमी जो कभी उसका दर्द था, आज उसके सामने टूटा हुआ इंसान बनकर बैठा था। उसके कपड़े मैले थे, शरीर कमजोर था, चेहरा पछतावे से भरा हुआ। उसके सामने जगदीश नहीं, एक टूटी हुई रूह बैठी थी।

कुछ देर की खामोशी में पुराने घाव भी उभरे, पुराने दर्द भी। लेकिन साथ ही इंसानियत की एक नरम चिंगारी भी जाग उठी। उसने सोचा था—अगर कभी यह आदमी उसके सामने आया तो शायद वह सिर्फ गुस्सा करेगी। लेकिन आज जब उसने उसे इस हालत में देखा तो उसके दिल में गुस्से से ज्यादा दया उमड़ आई।

मौका, बदलाव और नई शुरुआत

जगदीश ने कांपती आवाज में कहा—”सुहानी, तुम्हें देखकर मुझे एहसास हुआ भगवान ने मुझे मेरी हर गलती का फल दे दिया है। तुम आगे बढ़ गई और मैं यहां सड़क पर गिर गया।” इतना कहते ही वह फूट-फूट कर रो पड़ा। आंसू उसके चेहरे की गंदगी के साथ मिलकर बह रहे थे। वह अपनी हथेलियों से चेहरा ढक कर बोला—”जो कुछ तुमने सहा, वह सब मेरी वजह से था। मैंने तुम्हें रोका, तुम्हारे सपनों को तोड़ा, हमेशा गलत साबित किया। अगर मैं तुम्हारा साथ देता, तो शायद मेरी जिंदगी भी ऐसे बर्बाद ना होती। मैंने अपने हाथों से सब नष्ट कर दिया।”

सुहानी ने गहरी सांस ली। वह उसके पास नीचे बैठ गई ताकि लोग उसे डर या शर्म की नजर से ना देखें। धीरे से उसने पूछा—”घर पर क्या हुआ था? तुम अचानक कहां गायब हो गए?”

जगदीश ने चोरी-चोरी उसकी तरफ देखा। उसकी आंखें फट चुकी थी, आवाज थरथरा रही थी—”तुम्हारे जाने के कुछ महीनों बाद एक बड़ा हादसा हो गया। मेरे मां-बाप दोनों मर गए। मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया। गुस्सा मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गया था। मैं गलत लोगों में पड़ गया, नशे की लत लग गई। घर बिक गया, जमीन चली गई, आखिरी कमाई भी शराब में डूबा दी। आखिर में मेरे पास ना घर था, ना पैसा, ना कोई अपना—बस अकेलापन और बर्बादी थी।”

सुहानी की आंखें भर आई। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि वह आदमी जिसने कभी उसे दबाया था, आज खुद ऐसी जिंदगी जी रहा होगा। दुनिया में बहुत लोग गलतियां करते हैं, लेकिन बहुत कम लोग अपनी गलती स्वीकार करते हैं।

सुहानी ने नरम आवाज में कहा—”जगदीश, हां, तुमने गलतियां की। लेकिन इंसान गलतियां करता है। अगर तुम सच में बदलना चाहते हो, तो जिंदगी तुम्हें एक और मौका जरूर देगी।”

जगदीश ने कांपती आवाज में पूछा—”क्या तुम मुझे इस हालत से निकालने में मदद करोगी? मुझे पता है मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं। लेकिन मैं फिर से जीना चाहता हूं। तुम्हें देखकर हिम्मत मिल रही है।”

सुहानी ने उसके कंधे पर हाथ रखा—”मैं तुम्हें अपने घर वापस नहीं बुला रही, ना ही मैं सब कुछ तुरंत भूल सकती हूं। लेकिन मैं तुम्हें उठने में जरूर मदद करूंगी। बदलने का फैसला तुम्हें लेना है, रास्ता मैं दिखाऊंगी।”

जगदीश फिर रो पड़ा—”मैं बदल जाऊंगा सुहानी, बस एक बार सहारा दे दो। मैं खुद को साबित कर दूंगा।”

उस पल मथुरा की हवा जैसे थम गई। दूर मंदिरों में मंगला आरती की घंटियां बज रही थी। माहौल में एक अजीब सी पवित्रता थी। मानो भगवान खुद इस पल को देख रहे हो।

दूसरा मौका: इंसानियत की जीत

सुहानी ने तुरंत अपनी टीम को आदेश दिए—”इन्हें साफ-सफाई कराओ, खाना खिलाओ और डॉक्टर को दिखाओ।” कुछ ही घंटों में उसका चेहरा धुल गया, लंबी दाढ़ी काट दी गई, बाल ठीक कर दिए गए, कपड़े बदल दिए गए। वह पहले जैसा तो नहीं लगा, लेकिन अब कम से कम एक इंसान की तरह दिखने लगा।

सुहानी उसे पास के हॉस्पिटल ले गई, जहां लोग नशे की गिरफ्त से बाहर निकलकर अपनी जिंदगी दोबारा शुरू करते थे। डॉक्टर ने कहा—”मैडम, हम इनका पूरा इलाज करेंगे। समय लगेगा, लेकिन यहां इन्हें अच्छा माहौल मिलेगा।”

जगदीश डरते हुए बोला—”तुम मुझे छोड़कर चली तो नहीं जाओगी?” सुहानी हल्का सा मुस्कुराई—”नहीं, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगी। लेकिन मैं तुम्हें उस जिंदगी में भी वापस नहीं ले जाऊंगी, जहां से मैं भागकर आई थी। तुम्हें पहले खुद को सुधारना होगा। जब तुम अपनी जिंदगी संभाल लोगे, तब हम दुनिया को बताएंगे कि गलती करने वाला इंसान भी अगर सच्चे दिल से पछता ले, तो जिंदगी उसे दूसरा मौका देती है।”

जगदीश पूरी तरह ठीक हो गया। लत छूट गई, शरीर संभल गया, चेहरा फिर से इंसानियत की रोशनी से भर गया। और यहीं यह कहानी खत्म होती है। लेकिन सुहानी की ताकत, जगदीश का पछतावा और जिंदगी का दिया हुआ दूसरा मौका लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेगा।

कहानी का संदेश

सुहानी की कहानी बताती है—सपनों का पीछा करने के लिए हिम्मत चाहिए, अपमान और कठिनाई से लड़ने के लिए जज्बा चाहिए, और किसी को दूसरा मौका देने के लिए दिल चाहिए। अगर आप भी किसी सपने को जीना चाहते हैं, तो डरिए मत, कोशिश कीजिए, और अगर किसी ने गलती की है, तो उसे सुधारने का मौका जरूर दीजिए। क्योंकि जिंदगी हर किसी को दूसरा मौका देती है—बस उसे पहचानना और अपनाना आना चाहिए।

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