सोने का पिंजरा, लोहा का जीवन
मुंबई के किनारे बसी विशाल ‘राजरथ फैक्ट्री’ हमेशा से ही शहर की शान मानी जाती थी। इसका मालिक युवराज चौधरी, अपनी सफलता को जितना दिखाता था, असल में उसका दिल उतना ही काँच जैसा नाजुक था। हाल ही में उसे इंडस्ट्रियलिस्ट ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिला था और उसने अपने वे-फार्बिच ऑफिस में जश्न भी मनाया। उसे लगता था, उसकी फैक्ट्री चालू है यानी सिस्टम बढ़िया है, मगर सच्चाई उससे दूर थी।
एक सुबह, जब वह अपने ऑफिस की खिड़की से दूर गगनचुंबी इमारतों को निहार रहा था, एक गुमनाम चिट्ठी ने उसकी दुनिया उलट दी। उस चिट्ठी में लिखा था— “सेठ जी, आपके कारखाने की ईंटें हमारे खून से लाल हैं। आप राजा हैं, मगर नींव में हमारी कब्रें हैं।” युवराज ने इसे किसी जलनखोर प्रतिद्वंदी की चाल समझकर भुला देना चाहा, पर ना जाने क्यों ये शब्द उसका पीछा कर रहे थे। उसे अपने पिता की पुरानी सीख याद आने लगी— “रिपोर्ट पढ़ना अच्छी बात है बेटा, मगर आंखें बन्द कर लेना सस्ता सौदा है। खुद देखो, तब सच्चा मालिक बनोगे।”
चिट्ठी की बेचैनी उसे पूरी रात सोने न दी। अगली सुबह उसके अंदर कुछ बदल चुका था। उसने अपनी पसंदीदा शर्ट, घड़ी— सब उतार दिया, तीन दिन शेव नहीं किया, पुराने घिसे कपड़े, फटी-सी चप्पल और सस्ती-सी टोपी पहन ली। पहली बार, वह खुद को शीशे में देख नहीं पाया। उसे अब अपनी पहचान छिपानी थी। उसने अपने घर के माली से हाथ पकड़ के सीखा— मिट्टी में हाथ डालना, झाड़ियाँ काटना और छाले पड़ जाने की पीड़ा भी झेल ली।
भोर होते ही, वह फैक्ट्री के उस गेट पर जा खड़ा हुआ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूरों की भीड़ लगती थी। ठेकेदार ने उसे ऊपर से नीचे घूरा और पूछा, “कहाँ से आया रे? काम कर पाएगा?” युवराज ने नज़रें झुका लीं। अब वह युवराज नहीं, बस एक मामूली मजदूर ‘राजू’ था। उसकी दिहाड़ी 350 रुपए तय हो गई और उसे सबसे कठिन सेक्शन यानी भट्ठी के पास भेज दिया गया।
अंदर की दुनिया बाहर से बिल्कुल अलग थी। भीषण गर्मी, कोल्हू सी मशीनों का शोर, हर ओर चमड़े के दस्ताने, लेकिन कितनों के हाथों में फटे या टूटे थे। वहाँ का सुपरवाइजर हर मजदूर से “तेरी जान चली जाए तो कंपनी नहीं रुकेगी, समझा?” कहता ही रहता था। मजदूर चुप, सिर झुकाए, थमे-सुथरे जुमलों में अपने दर्द दबा लेते थे।
एक दिन नया लड़का, सोनू, लोहा ढोते वक्त जल गया। सुपरवाइजर ने डांटकर उसकी आवाज़ दबा दी— “काम कर!” युवराज पहली बार भीतर से हिल गया। काम के बाद कैँटीन गया तो एक अंधेरी सी जगह मिली— बेस्वाद खाना, सड़ी रोटियाँ, पानी में घुला सा कुछ। नौकरी छोड़ने का मन हुआ, लेकिन पिता की सीख याद आई— “हिम्मत से शर्म मत खाना, खुद में उतरना।”
वह धीरे-धीरे मजदूर बस्ती के रंग में रंगने लगा। एक ही चप्पल, वही पुराने कपड़े, बदबूदार पसीना— अब यही उसकी पहचान थी। रामलाल, एक बुजुर्ग मजदूर, उसके लिए गुरु सा हो गया था। रामलाल ने उसे फावड़ा चलाना, लोहा उठाना, और सबसे ज्यादा, चुप रहकर अपमान सहना सिखाया। युवराज ने देखा, मजदूरों की दुनिया में सब कुछ सिने में दबाकर रखना ही जीने की पहली शर्त थी।
फैक्ट्री के बाहर बसी झुग्गियों में उसकी दोस्ती श्यामा से हो गई थी। श्यामा अकेली माँ थी, जिसके बच्चे को गंदे पानी की वजह से बीमारियाँ हो गई थीं। श्यामा की आँखों में हमेशा एक डर और शिकायत दिखती थी— “इनका मुनाफा बढ़े या नहीं, हमारी तकलीफ हमेशा रहती है।”
एक शाम कैँटीन में, रवि नाम का एक युवा मजदूर अपने ओवरटाइम के पैसे ना मिलने पर झगड़ पड़ा। सुपरवाइजर ने बिना सुनवाई सिक्योरिटी को बुला लिया। रवि को धमकी दी— “बहुत बोलेगा तो नौकरी जाएगी!” इसका असर शांत मजदूरों पर भी हुआ— सबका साहस और भरोसा धीरे-धीरे मर गया।
जल्द ही, फैक्ट्री में यूरोपीय प्रतिनिधि मंडल आने का समाचार फ़ैल गया। आनन-फानन में सब मजदूरों को नए हेलमेट और सस्ते जूते दिए गए, दीवारों पर बलात रंग-रोगन कर दिया गया, और कैंटीन के खाने में पनीर-हलवा परोस दिया गया। दादी-दादी की झुग्गी बस्ती में भी सफाई करवा दी गई, बच्चों को साबुन बांट दिए गए।
नियुक्त दिन, मेहमान आए, सब अपने-अपने हिस्से का नाटक करने लगें। सुपरवाइजर, वर्मा, अंग्रेजी बोलते हुए, “कंपनी अपने मजदूर को परिवार मानती है, वर्ल्ड क्लास सेफ्टी, अंतरराष्ट्रीय मानक,” गाता रहा।
पर अचानक सेक्शन पांच के पास पुरानी क्रेन से स्टील प्लेट गिरने लगी। रवि ने चीख कर सबका ध्यान खींचा, बच्चों की भीड़ में अफरा-तफरी मच गई। हिम्मत दिखाते रामलाल ने बच्चों को धक्का देकर बचाया, और खुद स्टील से बुरी तरह घायल हो गए। सब सन्न! युवा मजदूर पहली बार रो पड़े थे। मेहमानों के कैमरे में सब रिकॉर्ड हो गया— अब झूठ की कोई गुंजाइश बाकी नहीं थी।
हंगामा मचने पर युवराज ने अपने भेष का पर्दा हटा दिया। उसने सिर उठाकर घोषणा की— “मैं युवराज चौधरी, इस कंपनी का स्वामी हूँ! यह हादसा मेरी जिम्मेदारी और अपराध है।” मेनेजर वर्मा को निलंबित किया गया, हादसे की फोरेंसिक जांच शुरू हुई। मजदूरों से माफी मांगी— “यह मंदिर था, उसे कब्रिस्तान बना डाला… मुझे माफ करो!” सबको लगा, जिन पर यकीन था, वह भी झूठा निकला; और जिनसे सबसे कम उम्मीद थी, वह सबसे सच्चा।
युवराज ने तुरंत नई मजदूर समिति गठित की, जिसमें श्रमिक नेता रवि, श्यामा और रामलाल की बेटी शामिल किए गए। साफ पानी, बस्ती में प्राथमिक स्कूल, फैक्ट्री परिसर में स्वास्थ्य केंद्र, हर मजदूर को समान वेतन, ओवरटाइम की पारदर्शी ऑनलाइन गणना, और फर्जी खर्चों, सिक्योरिटी इन्फ्रास्ट्रक्चर का ऑडिट— ये सब उसकी पहली घोषणाएँ थीं।
कुछ महीनों में बस्ती पूरी तरह बदल गई। अब वहाँ पक्के घर, स्कूल, बच्चों के लिए छोटी सी लाइब्रेरी, और स्वास्थ्य के लिए सालाना चेकअप कैम्प लगने लगे। मजदूरों को पक्का रोजगार मिला; पहली बार उनके पास मेडिकल बीमा और उनका श्रम कार्ड था। फैक्ट्री कैंटीन शाकाहारी, पौष्टिक और साफ़-सुथरी हो गई।
नौकरी मिलने पर भी रामलाल को गंभीर चोट के चलते बचाया नहीं जा सका, लेकिन मजदूरों की माँग पर फैक्ट्री के मुख्य द्वार पर उसकी कांस्य प्रतिमा लगवा दी गई, जिसमें उसके चेहरे पर गरिमा थी, दुःख नहीं। नीचे पीतल की प्लेट पर लिखा था— “राजरथ फैक्ट्री केवल मशीनें नहीं, मेहनतकशों की जान से चलती है।”
युवराज चौधरी अब सिर्फ मालिक या सेठ नहीं था, बल्कि श्रमिकों का संरक्षक और सच्चा साथी था। वह रोज सुबह सीधा कैंटीन जाता, लाइन में खड़ा दशहरे का हलवा खाता, मजदूरों के बच्चों को स्कूल ले जाता, और उनकी पढ़ाई, ख़ुशियों का हाल खुद पूछता। ऑफिस की दीवारों पर प्रॉफिट और ग्रोथ के चार्ट नहीं, सुरक्षा के, बच्चों के अटेंडेंस और श्रमिक संतोष के चार्ट टंगे रहते। प्रतिनिधि मंडल लौटकर गया तो उस रिपोर्ट में पहली बार लिखा— “यहाँ काम करने वाला हर व्यक्ति परिवार की तरह है।”
वह फिर से अवॉर्ड के लिए नामांकित हुआ, पर फॉर्म फेंक दिया। उसके लिए असली ट्रॉफी— वही रामलाल की मूर्ति, श्यामा के बच्चों की मुस्कान, फैक्ट्री के गेट से मुस्कराकर ‘सेठ जी नमस्ते’ कहती
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