🌼 दियों की रोशनी में लौटी आर्या
दिवाली की दोपहर थी।
पूरा शहर रौनक और रंगों में डूबा हुआ था। सड़कों पर लोगों की भीड़ थी, दुकानों पर मिठाइयों की खुशबू बिखरी हुई थी, और हर चेहरे पर एक ही चमक — “आज खुशियों का दिन है।”
पर उसी भीड़ के बीच, शहर के एक व्यस्त चौराहे पर, तेज धूप में तपती हुई जमीन पर एक छोटी-सी बच्ची बैठी थी — अपनी टोकरी में मिट्टी के दीये सजाए हुए।
उसकी उम्र मुश्किल से दस साल रही होगी।
धूल और पसीने से सना चेहरा, फटे कपड़े, और आंखों में मासूम उम्मीद। वह बार-बार राह चलते लोगों को पुकारती —
“दिये ले लो, अच्छे दिये हैं… पाँच रुपये में दो…”
पर उसकी धीमी आवाज़ शहर के शोर में गुम हो जाती।
लोग गुजरते रहे — कोई मुस्कुराकर निकल गया, कोई झिड़क कर चला गया।
फिर भी वह बच्ची मुस्कुराती रही।
शायद इसलिए क्योंकि उसे उम्मीद थी — “शाम तक कोई न कोई तो रुकेगा, कोई तो इन दियों से अपना घर रोशन करेगा।”
वह बार-बार अपने दीयों को ठीक करती, उन्हें ऐसे सहलाती जैसे वे उसके सपनों के टुकड़े हों।
हर दिया उसकी अपनी उम्मीद का प्रतीक था।
एक बच्चा खेलते हुए भागा और उसकी टोकरी से एक दिया गिरकर टूट गया।
वह कुछ नहीं बोली।
बस झुकी, टूटा हुआ दिया उठाया और धीरे से बुदबुदाई —
“तू भी टूटा जैसे मैं टूटी हूँ…”
उसने उस टूटे हुए दिये को झोले में रख लिया, जैसे अपने ही हिस्से का दर्द संभाल लिया हो।
पास की मिठाई की दुकान से आवाज़ आई —
“भैया, दो किलो जलेबी देना!”
उसने वहां देखा और अनायास मुस्कुरा दी।
पर तभी पेट से एक हल्की सी कराह निकली — भूख की।
उसने झोले में हाथ डाला, दो सूखे चने निकाले और खाने लगी।
फिर पास के नल से पानी पीने चली गई।
वह पानी ठंडा नहीं था, पर उसके लिए अमृत जैसा था।
सड़क पर गाड़ियां दौड़ रही थीं, लोग मिठाइयों और उपहारों से भरे हाथों के साथ आगे बढ़ रहे थे।
लेकिन कोई नहीं रुका उस बच्ची के पास।
कभी कोई औरत कहती — “बेटा, बहुत महंगे हैं।”
तो वह विनम्रता से जवाब देती —
“आप जितना देना चाहें, उतने में ले जाइए।”
फिर भी दिये वहीं के वहीं रह जाते।
सूरज ऊपर चढ़ता गया, जमीन और तपने लगी।
लेकिन वह बच्ची वहीं बैठी रही, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि शाम तक शायद कुछ दिये बिक जाएँगे — और वह भी अपने लिए एक दिया जला पाएगी।
करीब चार बजे, सड़क पर भीड़ और बढ़ गई।
तभी एक काली कार उसके सामने आकर रुकी।
कार से एक आदमी उतरा — सूट पहने, चेहरा गंभीर, शायद कोई बड़ा कारोबारी।
वह दिवाली की खरीदारी करने आया था।
उसकी नज़र इधर-उधर घूमी और फिर उस बच्ची पर टिक गई।
वह उसके पास गया, झुका और बोला —
“बेटा, दिये कितने के हैं?”
बच्ची ने सिर उठाया, मुस्कुराई और बोली —
“साहब, पाँच रुपये में दो। पर अगर चार देंगे तो भी चलेगा।”
वह आदमी मुस्कुराया।
पर अगले ही पल उसका चेहरा बदल गया।
वह बच्ची के चेहरे को देखता रह गया — जैसे कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा हो।
उसकी आँखों में कुछ था — एक झलक, एक स्मृति, एक दर्द।
वह सोच में डूब गया —
“यह चेहरा… यह मुस्कान… यह आँखें… मैंने कहीं देखी हैं।”
अचानक उसकी यादों में एक तूफ़ान उठा।
एक हँसती हुई बच्ची की आवाज़, उसकी किलकारियाँ, उसकी छोटी हथेलियाँ…
वह बच्ची जो आठ साल पहले एक हादसे में उससे बिछड़ गई थी।
जिसे उसने हर मंदिर, हर अख़बार, हर अनाथालय में ढूंढा था — पर कभी नहीं मिली।
वह सोच में पड़ा रहा — “नहीं, यह कैसे हो सकता है?”
वह मुड़ा, कार की ओर बढ़ने लगा।
लेकिन पीछे से एक आवाज़ आई —
“साहब, एक दिया ले लीजिए ना… अपने घर की रोशनी बढ़ जाएगी।”
उसके कदम थम गए।
वह पलटकर देखता है।
बच्ची मुस्कुरा रही थी।
उसी पल एक दिया उसके हाथ से गिरा और मिट्टी में टूट गया।
वह झुकी उसे उठाने लगी।
विक्रम की नज़र उसकी कलाई पर पड़ी —
वहाँ एक पुरानी टूटी हुई चैन लटक रही थी।
जिस पर खुदा था — “आर्या।”
विक्रम का दिल धड़क उठा।
हाथ कांपने लगे।
आँखों में आँसू आ गए।
वह नाम वही था — उसकी बेटी का नाम।
वह वहीं खड़ा रह गया।
उसके दिमाग में आठ साल पुरानी यादें उमड़ पड़ीं —
वह बरसात की रात, जब कार फिसलकर नदी में गिर गई थी।
वह केवल अपनी पत्नी का शव ढूंढ पाया था।
बेटी आर्या की लाश कभी नहीं मिली।
पुलिस ने कहा था, शायद बहाव उसे बहा ले गया।
लेकिन आज, आठ साल बाद, वही नाम उसकी आँखों के सामने था।
सूरज ढलने लगा था।
शहर की रोशनियाँ जल उठी थीं।
पर विक्रम मल्होत्रा के दिल में अब तक का सबसे गहरा अंधेरा छा गया था —
डर, उम्मीद और विश्वास का मिला-जुला साया।
वह कुछ नहीं कह पाया।
बस एक दिया खरीदा और वहीं खड़ा होकर उसे देखता रहा।
च्ची अब अपने बचे हुए दिये समेट रही थी।
कई दिये बिके नहीं थे।
फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कान थी।
वह थकी थी, भूखी थी, पर खुश थी — क्योंकि उसे विश्वास था कि आज की कमाई से वह अपने झोपड़े में भी एक दिया जला पाएगी।
विक्रम उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
वह पुरानी गलियों से होती हुई एक टूटी हुई पुलिया के नीचे पहुँची।
वहां एक बूढ़ी औरत बैठी थी, चेहरे पर झुर्रियाँ और हाथों में सुई-धागा।
बच्ची दौड़कर बोली —
“अम्मा, आज मैंने कुछ पैसे कमाए हैं। देखो!”
बूढ़ी औरत मुस्कुराई, उसके सिर पर हाथ फेरा —
“तू बहुत मेहनती है, आर्या। भगवान तुझे खुश रखे।”
वह नाम सुनते ही विक्रम वहीं ठिठक गया।
उसके होंठ कांप उठे।
आँखों से आँसू बह निकले।
उसने वही सुना था — आर्या!
वह चुपचाप पुल के उस पार खड़ा रहा।
रात गहराती जा रही थी।
बूढ़ी और बच्ची दोनों मिलकर दिये जला रही थीं।
बूढ़ी बोली —
“इस दिवाली, इन दियों की लौ की तरह तेरी जिंदगी भी रोशन हो जाए।”
आर्या ने पूछा —
“अम्मा, मेरी असली माँ कैसी थी?”
अम्मा की आँखें भीग गईं।
उन्होंने आसमान की ओर देखा —
“तेरी माँ बहुत अच्छी थी, बेटी। अगर वह ज़िंदा होती, तो आज तुझ पर गर्व करती।”
विक्रम अब खुद को रोक नहीं पाया।
धीरे-धीरे आगे बढ़ा, और उनके पास पहुँच गया।
आर्या ने उसे देखा और मासूमियत से मुस्कुराई —
“अरे आप तो वही अंकल हैं जो मेरे दिये खरीदकर ले गए थे।”
विक्रम ने सिर हिलाया।
“हाँ, बेटा। वही अंकल।”
उसने काँपते स्वर में पूछा —
“अम्मा, यह बच्ची तुम्हें कहाँ मिली थी?”
अम्मा ने गहरी साँस ली।
“आठ साल पहले की बात है। बारिश, तूफान और नदी का उफान। एक टूटी कार पानी में बह रही थी। उसमें यह बच्ची बेहोश मिली। मैं इसे किनारे ले आई। जब होश आया, इसे कुछ याद नहीं था। अपने पास रख लिया। मेरे खुद के कोई बच्चे नहीं थे।”
विक्रम की आँखों से आँसू थम नहीं रहे थे।
वह फुसफुसाया —
“इसका नाम आर्या मल्होत्रा है… मेरी बेटी।”
अम्मा स्तब्ध रह गई।
आर्या ने हैरानी से देखा।
“आप… मेरे पापा?”
विक्रम घुटनों पर झुक गया, जेब से पुराना लॉकेट निकाला।
उसमें तस्वीर थी — उसकी पत्नी और छोटी आर्या की।
उसने वह लॉकेट उसके सामने रखा।
आर्या ने उसे देखा — और चुप हो गई।
वह तस्वीर में वही चेहरा था, वही मुस्कान।
विक्रम की आवाज़ भर्रा गई —
“बेटा, तू मेरी आर्या है। अगर तू चाहे तो हम डीएनए टेस्ट करा सकते हैं। पर वादा कर — अब तू मुझसे दूर नहीं जाएगी।”
आर्या ने धीरे से कहा —
“अंकल, सब पहले प्यार करते हैं फिर छोड़ देते हैं। सब कहते हैं अपने हैं, पर बाद में चले जाते हैं।”
विक्रम का दिल टूट गया।
उसने उसके सिर पर हाथ रखा —
“बेटा, अगर तू मेरी आर्या निकली तो मैं तुझे अपनी नज़रों से दूर नहीं जाने दूँगा। और अगर तू नहीं भी निकली, तब भी मैं तुझे बेटी बनाकर रखूँगा।”
आर्या की आँखों से आँसू छलक पड़े।
पहली बार उसने किसी को गले लगाया।
अगले दिन अस्पताल में डीएनए टेस्ट हुआ।
विक्रम की धड़कनें तेज थीं।
हर मिनट सदियों जैसा लग रहा था।
आखिर डॉक्टर मुस्कुराए —
“मिस्टर विक्रम, बधाई हो… यह बच्ची सचमुच आपकी बेटी है।”
विक्रम की आँखों से आँसू झरने लगे।
उसने आर्या को अपनी बाँहों में भर लिया।
“मेरी गुड़िया, तू सच में लौट आई…”
आर्या ने सिर उसके सीने से लगा दिया।
वो दिवाली की रात अब उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी रोशनी बन चुकी थी।
क्योंकि उस रात, एक बेटी ने अपना पिता पाया था,
और एक पिता ने अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी कमी को पूरा किया था।
दियों की मद्धम लौ के बीच, दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे —
बिना शब्दों के, पर सब कुछ कह देने वाली नज़रों से।
सालों की दूरी, दर्द और तन्हाई उस एक पल में मिट गई थी।
कभी-कभी ज़िंदगी भी दीये की तरह होती है —
मिट्टी में जलती है, पर रोशनी आसमान तक जाती है।
उस रात, एक टूटे हुए दीये ने दो बिछड़ी ज़िंदगियों को जोड़ दिया।
और साबित कर दिया कि उम्मीद की लौ कभी बुझती नहीं,
बस सही समय का इंतज़ार करती है जलने के लिए।
“कभी-कभी सबसे चमकीली दिवाली, किसी टूटे हुए दिये से शुरू होती है।”
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