कहानी का शीर्षक: निस्वार्थ सेवा का इनाम

क्या इंसानियत का कोई मोल होता है? क्या आज की व्यस्त और स्वार्थी दुनिया में कोई किसी अनजान, लावारिस इंसान के लिए सचमुच अपनी नींद, अपने सपने, अपने चैन कुर्बान कर सकता है? और अगर कोई ऐसा कर भी दे, तो क्या उसकी इस नेकी का कभी कोई सिला, कोई इनाम उसे मिलता है?

यह कहानी है दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल की, और वहाँ की एक साधारण लेकिन असाधारण नर्स कविता की। कविता अभी 28 साल की थी। उसका बचपन बिहार के एक छोटे से गाँव में बीता था, जहाँ तंगी और समस्याएँ उसके लिए रोजमर्रा की बात थीं। उसके पिता किसान थे, माँ गृहणी, और दो छोटे भाई बहन। किस्मत ने मजबूर कर दिया था कि कविता जल्दी आत्मनिर्भर हो और परिवार को सहारा दे सके।

पाँच साल पहले कविता दिल्ली आई थी। नर्स की ट्रेनिंग ली और सरकारी अस्पताल में नौकरी पा गई। उसके लिए ये सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि सेवा थी। वह हर मरीज को अपना मानती थी—चाहे अमीर हो या गरीब, युवा हो या बूढ़ा… उसके व्यवहार में कभी कोई फर्क न होता। हर कोई उसे “दीदी” कहकर पुकारता।

एक दिन की बात है। अस्पताल के जनरल वार्ड में हलचल मच गई। पुलिस ने एक लावारिस बुजुर्ग को बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया था। उम्र करीब 70 साल के होंगे। पहनावे से अच्छे-खासे खाते-पीते जान पड़ते थे, लेकिन साथ में कोई था नहीं—न नाम पता, न कोई रिश्तेदार। डॉक्टरों ने बताया—ब्रेन हैमरेज है, गहरा कोमा। बचने की उम्मीदें नाममात्र थीं। वे मरीज वार्ड के कोने वाले बेड नंबर 24 पर डाल दिए गए।

बाकी सबके लिए वह सिर्फ “बेड नंबर 24” था। पर कविता के लिए वह एक जरूरतमंद इंसान था। उसने उस बूढ़े इंसान के सूखे, थके चेहरे में अपने पिता की झलक देखी और उसके मन में जैसे करुणा का सागर हिलोरें मार गया।

वह रोज़ ड्यूटी खत्म होने के बाद भी घंटों उस बेड के पास बैठ जाती। उनके हाथ, पैर धीरे-धीरे सहलाती, शरीर की मालिश करती, कपड़े बदलती, खुराक की नली ठीक से देखती। खाली समय में वह उन्हें गाँव की कहानियाँ सुनाती, गीता के श्लोक पढ़ती, उन्हें “बाबा” कहकर बुलाती। एक दिन उसने अपनी छोटी सी सैलरी में से बाबा के लिए नया कंबल, सॉफ्ट कपड़े और उनके पसंदीदा फल लाकर रख दिए।

अस्पताल के कई कर्मचारी हँसते—“अरे कविता, ये तो लावारिस है, माँगने वाला है, दो-चार दिन में चला जाएगा, क्यों इतना वक्त बर्बाद करती हो?” कविता मुस्कराकर जवाब देती—“जब कोई अपना न हो, तभी तो हम हैं। सेवा दवा से बड़ी बात होती है।”

कई दिनों तक बाबा की हालत नहीं सुधरी। वे बेहोश ही पड़े रहे, साँसें हल्की, शरीर लाचार। कविता की सेवा, देखभाल और दुआएं फिर भी जारी रहीं। धीरे-धीरे एक महीना बीत गया।

इसी बीच एक सुबह अस्पताल के दरवाजे पर चमचमाती बेंटले आकर रुकी। उस गाड़ी से एक युवा, सु़ट-बूट में सजे पढ़े-लिखे शख्स बाहर निकले। उनकी आँखों में चिंता और तकलीफ थी। वह सीधे रिसेप्शन पहुंचे, अपने पिता की तसवीर दिखाई—“यह मेरे पापा हैं, रामनाथ मेहरा, एक महीना से लापता हैं। कोई खबर है?”

रिसेप्शनिस्ट ने मना किया, रजिस्टर में उनका कोई नाम न था। युवक ने लगभग हार मान ली थी, तभी एक वार्ड बॉय ने तसवीर देखकर कह दिया—“ये तो बेड नंबर 24 वाले लावारिस बाबा हैं।”

जब वह युवक वार्ड में पहुँचा, चाहत, दर्द और पछतावे के मिलेजुले भाव में भागता आया। पिता रामनाथ मेहरा, टॉप बिजनेस टायकून, अरबपति, किसी जमाने में रुतबे के प्रतीक—आज सरकारी अस्पताल के कोने में, न पहचान, न रिश्ता; बस एक लावारिस मरीज!

बेटा राजीव फूट-फूटकर रोने वाला था, गुस्से में डॉक्टरों पर आगबबूला होने ही वाला था कि उसकी नजर पड़ी—कविता बहुत प्यार से बाबा का माथा पोंछ रही थी, उनसे बातें कर रही थी, जैसे सगी बेटी हो।

एक वार्ड बॉय ने राजीव के कान में कहा—“साहब, ये कविता दीदी ना होती, तो आज आपके पिताजी जिंदा ना होते। इन्होंने सब छोड़ कर इनकी रात-दिन सेवा की है।”

राजीव कविता के पास गया, हाथ जोड़कर बोला, “मैं राजीव मेहरा। ये मेरे पापा हैं… आपने इनके लिए जो किया—उसके लिए मैं उम्रभर आपका एहसान नहीं चुका सकता…ये क्या ले लीजिए।” उसने लाखों का चेक बढ़ाया, विदेशी गिफ्ट्स देने चाहे।

कविता ने मना कर दिया, “मैंने सेवा पैसों के लिए नहीं, फर्ज के लिए की है। आपके पापा की सलामती से बड़ी दौलत कोई नहीं।” यह सुन पूरी भीड़ और अस्पताल का स्टाफ हैरान रह गया।

राजीव की जिंदगी बदल गई। उसकी इंसानियत जाग गई। वह अपने पिता को एयर एंबुलेंस में प्राइवेट अस्पताल ले गया, इलाज करवाया। लेकिन जाते-जाते उसने कविता से वादा किया—“मैं आपके फर्ज का कर्ज नहीं चुका सकता। लेकिन मैं अपने पापा के नाम पर एक अस्पताल बनवाऊँगा—जहां हर गरीब, लावारिस, बेसहारा को सम्मान और सेवा मिलेगी—और आप उसकी डायरेक्टर बनेंगी। सारी पढ़ाई, ट्रैनिंग मेरी फाउंडेशन कराएगी।”

कविता हतप्रभ थी—पर उसकी सेवा और सच्चाई रंग लाई। कुछ ही महीनों में रामनाथ मेहरा ठीक हो गए। बाप-बेटे में दोस्ती लौट आई। और एक साल में ही नगर में शानदार “रामनाथ मेहरा चैरिटेबल अस्पताल” खड़ा था — जिसकी हेड थी कविता।

वह अपने अस्पताल में आज भी हर मरीज की सेवा उसी समर्पण से करती है। उसे अब हजारों बाबा और अम्मा मिल गए हैं। उसने साबित कर दिया कि निस्वार्थ सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। ईश्वर सब देखता है और वह गुण-गणना करके वक्त आने पर इतना देता है, जितना कल्पना भी न की हो।

सीख: सच्ची इंसानियत, दया और सेवा का फल जरूर मिलता है। पद, पैसा, पहचान… यह सब टिकाऊ नहीं, लेकिन किसी अजनबी के आँसू पोंछने की दौलत हमेशा याद रहती है।

यदि कविता की इस सच्ची सेवा ने आपके दिल को छू लिया हो, तो इसे पढ़कर आगे बढ़ाएं—इंसानियत का यह उजाला फिर से दुनिया में फैलाएं।