स्नेहा की सेवा : एक नर्स, एक ममता, एक क्रांति

लखनऊ की चमकती सड़कों और भागती दौड़ती जिंदगी के बीच, एक ऐसी जगह थी जहाँ सांसें हमेशा कमजोर थीं और उम्मीद कम। सिटी चैरिटेबल हॉस्पिटल—जहाँ नाम तो चैरिटी का था, मगर हालात और इमारत दोनों जर्जर थी। वहां काम करने वाली 27 वर्षीय नर्स स्नेहा थी जिसकी आंखों में हमेशा करुणा और चेहरे पर मुस्कुराहट रहती थी। मरीज उसे ‘दीदी’ कहकर पुकारते थे, क्योंकि वह हर दर्द को अपना समझती थी। स्नेहा गाँव से आई थी। पिता वर्षों पहले गुजर चुके थे, मां बीमार थीं और छोटा भाई कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था। दोनों की जिम्मेदारी स्नेहा के कंधे पर थी। उसकी सादगी यही थी—मां ठीक हो जाएं, भाई की पढ़ाई पूरी करवा दे; यही उसका सपना था। अस्पताल की वर्दी उसके लिए इबादत थी, बोझ नहीं।

अस्पताल की अनसुनी कहानियाँ

शहर के उस पुराने अस्पताल का सिस्टम करीने से नहीं, बस चलाया जा रहा था। डॉक्टर कम, मरीज ज्यादा; संसाधन कम, जरूरतें अनगिनत। कोई फीकी-सी सहानुभूति, कोई संवेदनहीन आदेश—और इन सबके बीच एक नर्स, स्नेहा, जो सिर्फ दवाइयां नहीं, दुआएं देती थी।

अक्सर कुछ लावारिस मरीज आ जाते, कोई बुजुर्ग, तो कोई मासूम बच्चा—जिनकी अपनी पहचान भी खो चुकी थी। उनकी देखभाल नदारद थी। लेकिन जहां बाकी स्टाफ बस अपनी पारी समझते, वहीं स्नेहा किसी न किसी कोने में, ऐसे ही अकेले मरीज के सिर पर हाथ फेरते मिल जाती।

एक बरसात की रात

इसी अस्पताल के दरवाजे एक दिन पुलिस की एंबुलेंस रुकी। बरसात से भीगी-भीगी सड़क, और स्ट्रेचर पर एक छह साल का बच्चा। नाम, परिवार, पता—कुछ नहीं। मंदिर की सीढ़ी पर मिला था, कुपोषण और तेज बुखार से झुलसा हुआ।

डॉक्टरों ने देखा, बताया—निमोनिया है, इंफेक्शन खून तक पहुँच चुका है, हालत नाजुक है। उसकी पहचान के नाम पर उसके गले में सिर्फ चांदी का एक लॉकेट था। अस्पताल के स्टाफ ने, “बेड नंबर बारह” कह के, उसे सबसे कोने वाले पलंग पर डाल दिया। बाकी सब आगे बढ़ गए, लेकिन स्नेहा वहीं ठहर गई। बेड नंबर बारह उसके लिए सिर्फ एक गिनती नहीं, एक मासूम जीवन था। स्नेहा ने मन ही मन उसका नाम रख दिया—‘कान्हा’।

निस्वार्थ सेवा: एक नर्स की ममता

स्नेहा जल्दी ही कान्हा की सेवा में रम गई। ड्यूटी के बाद भी घंटों बैठी रहती। ठंडी पट्टियां रखती, संस्कारों की कहानियां सुनाती, खुद खाना खिला देती। स्टाफ कहता, “इतनी मेहनत क्यों, ये दो-चार दिन का मेहमान है!” मगर स्नेहा का जवाब था—“किसी का न होना ही तो हमारे होने का सबसे बड़ा कारण है।”

हालत खराब थी। डॉक्टरों ने कहा, बचाना है तो विदेश से 500 रुपये का महंगा इंजेक्शन मंगवाना होगा। अस्पताल के मैनेजमेंट ने साफ मना कर दिया—“इतने पैसे लावारिस बच्चे पर क्यों खर्च करें?” हेड नर्स मिसेज वर्मा ने ताना मारा, “तुम्हारा काम दवाई देना है, दया दिखाना नहीं।” स्नेहा का दिल टूट गया।

त्याग की कसौटी

स्नेहा घर गई, माँ को सब बताया। माँ ने बस आशीर्वाद दिया—”अगर नीयत सही है तो जो भी करेगा, भगवान साथ देंगे।” अगले ही दिन, स्नेहा ने अपनी शादी के लिए रखे दो सोने के कंगन बेच डाले; कुछ पैसे अपनी बचत से, बाकी प्रोविडेंट फंड से निकाल कर 500 रुपये जमा कराए और इंजेक्शन लगवाया।

हेड नर्स भड़क गयी, डांटा-“ये नियम तोड़ना है। आगे से ऐसा किया तो नौकरी से निकाल दूंगी।” पर स्नेहा का हौसला कम न हुआ।

अब स्नेहा ने अतिरिक्त ड्यूटी ली। दिन-रात काम करने लगी। थकान इतनी कि खुद की तबियत हिल गई, मगर कान्हा के लिए थकान गायब हो जाती। चमत्कार हुआ—इंजेक्शन का असर हुआ, और कुछ दिनों में कान्हा होश में आ गया।

पहली आवाज—“माँ!”

कान्हा ने पहली बार आंख खोली, और धीमे से बोला—“माँ!” स्नेहा की आंखों में आंसू थे। उसकी सारी मेहनत सफल हो गई थी। दोनों का रिश्ता अब गहरा हो गया। पूरा वार्ड, स्नेहा और कान्हा के इस बेमिसाल रिश्ते को देखकर मुस्कुरा उठता।

अस्पताल में बड़ा बदलाव

एक दिन अस्पताल की किस्मत बदल गई। देश के सबसे बड़े सिंघानिया ग्रुप ने अस्पताल खरीद लिया। नये मालिक राजवीर सिंघानिया को सख्त, अनुशासन प्रिय और पत्थर दिल माना जाता था। उनके आने वाले दिन, पूरा स्टाफ डरा-सहमा, सफाई में जुटा था।

सिंघानिया इंस्पेक्शन में आए, हर वार्ड देखा। बच्चों के वार्ड में पहुंचे, तो देखा कि एक कमजोर सी नर्स—ड्यूटी खत्म होने के बाद भी—एक अनाथ बच्चे को खाना खिला रही है। मिसेज वर्मा को मौका मिला—“सर, ये नर्स काम की जगह भावनाओं में डूबी रहती है, अपनी सेहत भी बिगाड़ ली, नियम तोड़े, इंजेक्शन तक अपने पैसों से लगाया।”

राजवीर सिंघानिया ने स्नेहा को डांटा—”ऐसे कर्मचारियों की जरूरत नहीं। कल से मत आना।” स्नेहा रोने लगी। उसी वक्त सिंघानिया की नजर उस बच्चे के गले के लॉकेट पर पड़ी।

लॉकेट की सच्चाई, किस्मत का मोड़

सिंघानिया ने लॉकेट देखा, उनकी आंखें फैल गई। यह वही लॉकेट था, जो उन्होंने पांच साल पहले अपनी इकलौती बेटी रिया के नवजात बेटे ‘रोहन’ को गिफ्ट किया था। एक एक्सीडेंट में रिया और दामाद मारे गये थे, पोता गायब हो गया था—माना गया था कि वो भी नहीं बचा।

सिर थाम कर, आँसूओं के साथ सिंघानिया ने बच्चे को पास बुलाया, गले लगा लिया—“रोहन! बेटा!!” पूरी अस्पताल सन्न रह गई।

ईमानदारी, ममता और इंसानियत का पुरस्कार

सबने सच्चाई बताई—कैसे स्नेहा ने अपनी जान, चैन, गहने सब दाँव पर लगाकर अनजाने बच्चे को बचाया। सिंघानिया ने फौरन मिसेज वर्मा को नौकरी से निकाल दिया।

और स्नेहा के पास आकर बोले—“बेटी, ये कर्म, ये ममता…इसकी कोई कीमत नहीं हो सकती। आज से तुम अस्पताल की डायरेक्टर होगी, और बच्चों के नए विंग का नाम ‘स्नेहा-रोहन चिल्ड्रेंस विंग’ होगा। साथ ही, तुम अब हमारी बेटी हो, तुम्हारी माँ का इलाज सबसे अच्छे अस्पताल में, भाई की पढ़ाई विदेश में…अब तुम्हारे परिवार की जिम्मेदारी मेरी है। आगे बढ़कर डॉक्टर बनो।”

स्नेहा अवाक रह गई। जहाँ कभी अस्पताल की जर्जर दीवारें ग़मगीन थीं, आज वहां खुशियों की लहर थी। छोटे बच्चे, गरीब, लावारिस—अब सबको सम्मान, प्यार और बेहतर इलाज मिलने लगा। स्नेहा ने अस्पताल को प्रेम, सेवा और समर्पण से भर दिया।

निष्कर्ष

यह कहानी यह सिखाती है—इंसानियत और ममता सबसे बड़ी दौलत हैं। निस्वार्थ सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। कर्म का फल कभी न कभी मिलता है—और वे हाथ जो दूसरों के लिये जुड़ते हैं, वही एक दिन दुआओं से गहने जाते हैं।

अगर स्नेहा की यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे जरूर आगे साझा करें—शायद किसी और को भी सेवा और ममता की ताकत का एहसास हो सके।