एक बेवा और उसकी मजबूरी
प्रारंभ
रमजान का महीना आने को था, लेकिन मेरे घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। मैं एक बेवा औरत थी, चार छोटे-छोटे बच्चों की मां। दिल में बस यही फिक्र थी कि बिना कुछ खाए मेरे मासूम बच्चे रोजा कैसे रखेंगे। आखिरकार, हिम्मत करके मैंने अपने बड़े भाई के घर जाने का फैसला किया, इस उम्मीद में कि शायद वह मदद कर दे।
भाई के घर की यात्रा
दरवाजा खुलते ही भाभी की तीखी आवाज ने मेरे होश उड़ा दिए। “हमने कोई यतीम खाना नहीं खोला। हर बार तुम ही भीख मांगने क्यों चली आती हो?” उसने कहा और मुझे दरवाजे से धक्के देकर भगा दिया। मेरा भाई, जो बहुत पैसे वाला था, एक लफ्ज भी मेरे हक में नहीं बोला। मैं रोती हुई वापस घर लौटी।
बच्चों की भूख
मेरी 9 साल की छोटी बेटी मासूम निगाहों से मुझे देख रही थी, जैसे पूछ रही हो, “अम्मी, खाने को कुछ मिला?” लेकिन घर में ना आटा था, ना दाल, ना कोई और खाने की चीज। मैंने बच्चों को पानी पिलाकर बहलाने की कोशिश की कि रात को खाना मिलेगा, लेकिन रात के 9:00 बज चुके थे और बच्चे भूख से बिलक रहे थे। मैं चाहती तो नहीं थी कि मेरे जिगर के टुकड़े भूखे सोए, मगर मेरे इख्तियार में कुछ भी नहीं था।
पड़ोसियों की मदद
कई बार सोचा कि फहीम भाई के घर चली जाऊं, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। मजबूरी के हाथों हारकर मैंने पड़ोस के दरवाजे खटखटाए। नसीमा खाला निकलीं, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन साफ नजर आ रही थी। झुंझला कर बोलीं, “अब क्या चाहिए?” मैंने हाथ जोड़कर कहा, “खाला, बस दो सूखी रोटियां दे दो। बासी हो तो भी चलेगा, बच्चों के लिए आई हूं।”
ताने और अपमान
उन्होंने दो बासी रोटियां मेरी तरफ बढ़ाई, लेकिन साथ ही ताना मारना नहीं भूलीं। “हड्डी ट्टी हो, मगर शर्म नहीं आती मांगते हुए।” मैंने चुपचाप आंसू पोंछे और रोटियां लेकर घर लौट आई। बच्चों ने जब मेरे हाथ में रोटी देखी, तो उनके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ उठी। लेकिन रोटी इतनी अकड़ी हुई थी कि चबाना मुश्किल था। मैंने उसे थोड़ा पानी में भिगोया और फिर आंसू बहाते हुए अपने मासूमों के मुंह में निवाले डाले।
गरीबी का दर्द
बच्चों ने बड़ी मुश्किल से उसे चबा-चबा कर निगलते रहे और मैं अंदर ही अंदर टूट रही थी। गुरबत कितनी अजीब चीज है, मगर उससे भी अजीब वो अपने होते हैं जो गरीब की हालत देखकर भी आंखें फेर लेते हैं। ऐसे भाई का क्या करना जो बहन के हालात से बेखबर रहे?
काम की तलाश
बच्चों ने आधी-आधी रोटी खाई, फिर चादर बिछाकर सो गए। लेकिन उनके होंठ अब भी सूखे थे और पेट अभी भी सुलग रहा था। मैं उन लोगों में से नहीं थी जो भीख मांगकर दुनिया के सामने अपनी मजबूरी का रोना रोते हैं। मेरा जमीर इसकी इजाजत नहीं देता था। मैंने कोशिश की लोगों के घरों में काम किया, मेहनत से भागी नहीं, लेकिन अमीरों के अपने उसूल होते हैं।
साहिता बाजी के घर
मैं साहिता बाजी के घर काम करने लगी। वह भी मेरी ही उम्र की थी, दो बच्चों की मां। उनके शौहर की उम्र मेरे मरहूम शौहर के बराबर थी। मेरा शौहर चौकीदार था और अपने मालिक के घर की हिफाजत करते हुए चोरों के हाथों मारा गया। लेकिन उस अमीर मालिक ने हमें बस दो जुमले तसल्ली के कहे और अपनी दुनिया में मशगूल हो गया।
एक भयानक दिन
एक दिन जब मैं काम पर गई, तो पता चला कि साहिता बाजी मायके गई हुई थी। हालांकि जाते वक्त उन्होंने अपने शौहर से कह दिया था कि अगर नजमा आए, तो बता देना कि आज छुट्टी है। मगर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा। जब मैंने घर में शाहिस्ता बाजी को ढूंढा और नजर नहीं आई, तो उनके शौहर से पूछा। वह बेपरवाही से बोला, “वह अपने कमरे में आराम कर रही है।”
दुर्व्यवहार का सामना
जैसे ही मैं उधर बढ़ी, उसने झट से दरवाजा बंद कर लिया। मुझे कुछ अजीब सा महसूस हुआ। मैंने जब कमरे में जाकर देखा, तो वहां शाहिस्ता बाजी थी ही नहीं। मैंने फिर पूछा, “शाहिस्ता बाजी तो यहां नहीं हैं।” वह ठंडी मुस्कान के साथ बोला, “वो मायके गई है।” मैंने सिर हिलाया और कहा, “अच्छा, फिर मैं चलती हूं।”
बुरी स्थिति
लेकिन तभी उसने मेरी कलाई जोर से पकड़ ली। दिल धड़कने लगा। “अरे, मैं तो हूं ना। साहिता से ज्यादा पैसे दूंगा। बस तू मुझे खुश कर दे।” यह सुनते ही मेरी रूह कांप गई। मैंने झटके से हाथ छुड़ाने की कोशिश की, मगर वह और मजबूती से पकड़ने लगा। “साहब जी, मेरा हाथ छोड़िए! मैं इस किस्म की औरत नहीं हूं। मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पालती हूं।”
संघर्ष और प्रतिरोध
वह हंसा और बोला, “मेहनत से तुझे मिलता क्या है? पूरे दिन बर्तन मांज, कपड़े धो, घर की सफाई कर और महीने का बस 5-6 हजार। इससे तेरा क्या होता होगा? बस कुछ घंटे मेरे साथ बिता ले, 200 हज दूंगा।” मुझे गुस्सा आ गया। “साहब जी, मेरा हाथ छोड़ो! मैं अपने बच्चों को हलाल की रोटी खिलाती हूं। मेहनत से कमाती हूं। हर औरत बिकाऊ नहीं होती।”
बर्बरता का अंत
अब वह जबरदस्ती करने लगा। “तुझे आज नहीं छोड़ूंगा। तेरी मर्जी हो या ना हो, मेरी तो है। जब से तुझे देखा है, चैन खा बैठा हूं।” कहते हुए वह मुझे घसीटते हुए कमरे में ले गया। मैं चीखने लगी, तो उसने झट से मेरा मुंह दबा दिया। “अगर शोर मचाया, तो तेरा गला घोट दूंगा।” उसने दरवाजा बंद कर लिया। मैं छटपटा आई, लेकिन ताकत उसके बराबर नहीं थी।
आत्मरक्षा
तभी मेरी नजर कोने में रखे लोहे के गुलदान पर पड़ी। मैंने पूरी ताकत से उसे उठाया और उसके सिर पर दे मारा। वह तड़प कर पीछे हटा, माथे से खून बहने लगा। मैंने मौका देखा और उसे धक्का देकर भाग निकली। जैसे ही उसने पीछा करने की कोशिश की, मैं मेन दरवाजा खोलकर गली में दौड़ पड़ी।
घर की वापसी
घर पहुंचकर मैं फूट-फूट कर रोई। उस वक्त मुझे अपने मरहूम शौहर अरशद की शिद्दत से याद आई। जब वह था, किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि मुझ पर गलत नजर डाले। मगर उसके जाने के बाद दुनिया की नजरों में मैं एक कमजोर बेसहारा बेवा बन गई थी। कुछ देर बाद मुझे पता चला कि उस शख्स ने उल्टा मुझे ही इल्जाम दे दिया। “नजमा चोरी करने आई थी। जब मैंने उसे रंगे हाथों पकड़ लिया, तो मेरे सिर पर वार कर दिया।”
समाज की बेरुखी
उसने यह झूठ पूरे मोहल्ले में फैला दिया। मैं उसी गली के तीन-चार घरों में काम करती थी, लेकिन साहिता ने मुझे “चोर-चोर” कहकर मशहूर कर दिया। किसी ने मेरी बात नहीं सुनी। सबने मुझे काम से निकाल दिया और तो और मेरी बकाया मजदूरी तक नहीं दी। अब मैं पूरी तरह बेरोजगार हो चुकी थी। ना मुझे सिलाई आती थी, ना ही मैं पढ़ी लिखी थी, क्योंकि फहीम भाई ने कभी पढ़ने ही नहीं दिया था।
फहीम भाई की स्थिति
वह हमेशा कहते, “तुझे नौकरी थोड़ी करनी है, मैं पढ़ूंगा, बड़ा अफसर बनूंगा और तुझे ढेर सारे दहेज के साथ रुखसत कर दूंगा।” मगर हुआ क्या? फहीम भाई तो अफसर बन गए, लेकिन मेरे लिए उनकी दुनिया ही बदल गई। भाभी एक बड़े घराने से आई थीं और आते ही उन्होंने मुझे हिकारत की नजरों से देखना शुरू कर दिया। “यह तो अनपढ़ है, इससे भला कौन शादी करेगा? कोई अच्छा घराना इसे पसंद नहीं करेगा।”
शादी का निर्णय
भाई भी बीवी के आते ही बदल गए थे। उन्होंने जल्दबाजी में मेरी शादी एक गरीब चौकीदार से कर दी। मैं उसके साथ भी खुश थी, लेकिन किस्मत को शायद मेरा सुकून मंजूर नहीं था। चार बच्चों की मां बनी ही थी कि अरशद का साया भी सर से उठ गया। जब उसकी तदफीन हो रही थी, मेरा भाई कब्रिस्तान से सीधा अपने घर चला गया। भाभी ने तो इतनी भी जहमत नहीं की कि दो लफ्ज तसल्ली के बोल दे। उन्होंने अफसोस नहीं जताया।
रमजान का महीना
मैं जान चुकी थी कि भाई से कोई उम्मीद रखना बेकार था। मेहनत करने को तैयार थी, लेकिन अब इज्जत के लाले पड़ने लगे थे। गुरबत और बेबसी के इस समुंदर में मेरी कश्ती डगमगाने लगी थी। रमजान मुबारक का महीना सर पर था और मेरे घर में फाके चल रहे थे। मेरे बच्चे भूख से तड़प रहे थे। मैं बैठे-बैठे यही सोच रही थी, काश कोई जकात ही दे दे, कोई अपने बच्चों का सदका ही निकालकर मुझे दे दे।
मदद की तलाश
बड़ी मुश्किल से अपने बच्चों की भूख से बेबस होकर पहली बार मैंने महल्ले में किसी से दो सूखी बासी रोटियां मांगी थीं। वरना, जैसे-तैसे भी मैं खुद कोई ना कोई हल निकाल ही लेती थी। कभी किसी के बर्तन मांज देती, तो कभी छोटे-मोटे काम किसी घर जाकर कर देती। मैंने अपनी पड़ोसन रुखसार से कहा, “अगर किसी को रमजान से पहले घर की सफाई करवानी हो या मकड़ी के जाले उतरवाने हों, तो मुझे बता देना, मैं कर दूंगी।”
अपमान का सामना
वह तन से हंस पड़ी। “तुझे कौन काम देगा? तू तो चोर है, शाहिस्ता बाजी के घर चोरी करते पकड़ी गई थी।” दिल छलनी हो गया। मैं क्या बताती कि चोरी मैंने नहीं, बल्कि शाहिस्ता के शौहर ने मेरी इज्जत को ने की कोशिश की थी। लेकिन मैं यह कह भी देती, तो कोई यकीन नहीं करता। हमारे समाज में इल्जाम हमेशा औरत पर ही लगता है, चाहे वह गलत हो या फिर बिल्कुल बेगुनाह।
नई नौकरी
मैंने गम को निगलते हुए कहा, “मैंने चोरी नहीं की थी, बस उन्हें गलत फहमी हुई है।” शायद उसे भी मुझ पर थोड़ा रहम आ गया था। बोली, “मेरी मुलाजिम छुट्टी पर है, चंद दिनों के लिए तुझे रख लेती हूं।” मैंने शुक्र अदा किया और उसके घर काम पर जाने लगी। पांच दिनों तक मैं वहां झाड़ू-पोंछा, बर्तन, कपड़े, दीवारें तक चमका रही। दिल में उम्मीद थी कि मेहनत का सिला मिलेगा।
मेहनत का फल
मगर जब हिसाब करने का वक्त आया, तो उसने सिर्फ 500 रुपये मेरी हथेली पर रख दिए। मैंने कांपते लबों से पूछा, “बस 500 बाजी?” वह बोली, “तो क्या, अपनी जान भी निकाल कर दे दूं?” मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैं पहले ही हज रप का आटा और राशन उधार ले चुकी थी, इसी उम्मीद पर कि मेहनत आएगी और मैं उधार चुका दूंगी। लेकिन पांच दिन की कड़ी मेहनत का सिला सिर्फ 500 रुपये।
रमजान की दुआ
मैं गिड़गिड़ा आई, “बाजी, रमजान मुबारक का महीना आ रहा है, अल्लाह के वास्ते मेरे घर कुछ राशन ही रखवा दो। पांच दिन से मैं आपका पूरा घर चमका रही हूं और आपने मुझे ढंग से पैसे तक नहीं दिए।” उसने बेरुखी से हाथ झटक दिया। “चलो, दफ्फा हो जाओ। जितनी मेहनत की थी, उससे ज्यादा ही दे दिया है।” कई बार मिन्नतें करने के बाद उसने महज 100 रुपये और दिए, वो भी सीधे जाकर राशन वाले को दे दिए।
निराशा का सामना
मैंने उससे थोड़ा ही राशन मांगा, तो राशन वाले ने तंज कसते हुए कहने लगा, “मैं उधार नहीं दूंगा, तुमने सही तमाशा पकड़ रखा है। अगर कल को पैसे नहीं मिले, तो कौन चुकाए?” मैं बेबस लौट आई। रास्ते में सोचने लगी कि हर रमजान मेरा भाई फहीम गरीबों में राशन बांटता है। लोग उसकी सखावत की वाह-वाह करते नहीं थकते। सोचा, शायद इस बार मेरी भी मदद कर दे।
भाई के घर की यात्रा
मैंने काले रंग की चादर ओढ़ी और अपने भाई के घर की तरफ चल पड़ी। अब वह घर दो मंजिला बन चुका था। गली में कदम रखते ही एक ठंडी आह निकली। यही गली थी जहां मेरा बचपन बीता था, लेकिन यह नहीं पता था कि इसी गली में मुझे अपने बच्चों की भूख की वजह से लौटना पड़ेगा।
दरवाजे पर दस्तक
भाई के घर जाते हुए दिल धड़क रहा था, क्योंकि भाभी का रवैया हमेशा सर्द और तंजिया होता। वह मुझे कभी अपने स्टील के गिलास में पानी देकर बैठा देती, खाना तो दूर की बात, चाय तक नहीं पूछती। और फिर पहला सवाल होता, “तो कब जाओगी? हमें बाहर घूमने जाना है।” मैं बच्चों के साथ उदास लौट आती।
भाई का व्यवहार
अरशद भी मायके जाने को कभी राजी नहीं होता था। वह हमेशा यही कहता, “तुम्हारा भाई और भाभी मुझे इज्जत नहीं देते। मैं रूखा-सूखा खा लूंगा, मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊंगा।” वह कहता, “जहां इज्जत ना मिले, वहां जाना भी नहीं चाहिए।” धीरे-धीरे मैंने भी यही करना सीख लिया था। अपने ही घर में दिल लगा लिया, क्योंकि शायद भाई का स्टैंडर्ड अब बहुत ऊंचा हो गया था और मेरी जैसी गरीब बहन उसके लिए अब कोई मायने नहीं रखती थी।
भाई की बेरुखी
फिर किस मुंह से भाई के पास जाती? हर ईद आती और गुजर जाती, लेकिन मेरा भाई ना कभी मिलने आया, ना कभी मेरे हाथ पर चंद रुपये ईदी रखे। शायद अब उसके अख्लाक बहुत बढ़ गए थे या फिर महंगाई इतनी हो गई थी कि अपनी बहन के लिए भी उसके पास कुछ नहीं बचा था। वह बहन, जो रो-रोकर भाई की कामयाबी की दुआएं मांगती थी, आज इस हाल में थी कि दर-दर की ठोकरें खा रही थी। लेकिन उसके दिल में जरा सा भी हमदर्दी का जज्बा नहीं पनपा।
दरवाजे पर दस्तक
मैंने अपना चेहरा चादर में छुपा लिया कि कहीं मेरी सूरत देखकर भाभी के माथे पर बल ना पड़ जाए। गरीब समझकर शायद राशन दे भी देती, लेकिन अपनी नंद समझकर कभी नहीं। मैंने हिम्मत करके दरवाजे पर दस्तक दी। भाभी ने दरवाजा खोला। “बीबी, रमजान का महीना है, घर में बच्चे भूख से बिलक रहे हैं, खुदा के लिए मुझे आटा, दाल, चावल ही दे दो।”
बेरुखी का सामना
भाभी बेरुखी से बोलीं, “चलो, चलो, यहां से। हम पहले ही राशन बांट चुके हैं।” मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा, “खुदा के लिए कुछ तो दे दो, अपने बच्चों का सदका ही सही।” लेकिन भाभी ने मेरे मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे अपने मेरे ऐसे रवैया करेंगे और यूं मुंह मोड़ लेंगे।
भाई की गाड़ी
ठीक उसी वक्त भाई की गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी में बैठे मेरे भतीजे और भतीजी बर्गर खा रहे थे। उन्होंने आधे-आधे खाए हुए बर्गर उठाकर कचरे में फेंक दिए और घर के अंदर चले गए। फहीम भाई मेरे सामने खड़े हुए, तो मैंने चुपचाप अपनी चादर हटाई। शायद मेरा यह हाल देखकर उनका दिल पसीज जाए। उन्होंने एक नजर मुझ पर डाली और फिर नजरें चुरा लीं।
बेरुखी का सामना
“क्या बात है?” उन्होंने बेरुखी से पूछा। “भाई, मेरे बच्चे भूखे हैं।” उन्होंने सिगरेट जलाते हुए कहा, “अच्छी खासी तो हो, कोई काम क्यों नहीं करती?” “भाई, खुदा के लिए, अपने ही बच्चों का सदका दे दो।” मैं सदका-खैरात कर चुका हूं, अब मेरे पास कुछ नहीं है। मेरी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने सिगरेट का कश लिया और अपने घर के अंदर चले गए।
कचरे से बर्गर उठाना
मैंने कचरे में पड़े आधे-आधे बर्गर उठाए, अपनी चादर में लपेटे और तेज कदमों से वहां से चल पड़ी। आंखों में आंसू थे। अचानक किसी से टकरा गई। हाथ से बर्गर छूटकर जमीन पर गिर गए, मिट्टी में सने। मैंने बर्गर देखा, तो आंखों से आंसू निकल पड़े। “अब मेरे बच्चे यह मिट्टी भरे बर्गर कैसे खाएंगे?” दिल डूब गया। मैं जमीन पर बैठ गई और बर्गर उठाने लगी।
पहचान का डर
तभी सामने खड़ा शख्स भी झुक गया। “तुम नजमा हो ना?” आवाज सुनते ही दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। बिना देखे ही मैं तेजी से उठी, बर्गर दोबारा चादर में लपेटे और तेज कदमों से आगे बढ़ गई। काश उसने मुझे ना पहचाना होता। काश मैं इस गली में दोबारा कभी ना आती। लेकिन इंसान अपने मांजी से कभी पीछा नहीं छुड़ा सकता। मैं भी नहीं छुड़ा पाई थी।
घर की वापसी
घर पहुंची, दरवाजा खोला। बच्चों की भूखी आंखें मुझ पर टिकी थीं। मैंने वही बर्गर चादर से निकाले, जो अपने ही भाई के घर के कचरे से उठाए थे। बच्चों ने भूख से बिलबिलाते हुए खाने शुरू कर दिए। मेरी आंखों से आंसू बह निकले। तभी कानों में वही आवाज गूंजी, “नजमा, तुम एक बार अपने भाई से बात तो करो। मैं तुम्हें बहुत खुश रख सकता हूं।”
फैजान का प्रस्ताव
मैंने कहा था, “नहीं, मेरा भाई जो भी फैसला करेगा, वही मेरे लिए बेहतर होगा।” मैंने तुम्हें कोई आस, कोई उम्मीद नहीं दिलाई। वह कहने लगा, “मैंने कब कहा? लेकिन मैं तुम्हारी खातिर कुछ भी करने को तैयार हूं। अगर तुम्हारे भाई को पैसा चाहिए, तो मैं खूब पैसा कमाऊंगा। बस तुम मुझसे वादा करो कि तुम मेरा इंतजार करोगी।”
भाई की भूमिका
लेकिन मैंने उस वक्त इंकार कर दिया था। मुझे अपने भाई पर अब भी यकीन था, क्योंकि भाई ही तो होता है जो बहन के लिए हमेशा एक ढाल बनता है। पर शायद मेरी किस्मत में यह हिफाजत नहीं लिखी थी। फैजान ने जाते हुए कहा, “मैं 5 साल बाद लौटूंगा। अगर हो सके, तो मेरा इंतजार करना।” यह कहकर वह चला गया।
फैजान का अतीत
फैजान हमारे पड़ोस में रहता था। जब भी उसकी वालिदा कुछ अच्छा पकाती, वह हमेशा हमारे लिए लेकर आता। उस वक्त घर में मैं अकेली होती। दरवाजे पर खड़े-खड़े प्लेट पकड़ा आता, चेहरे पर हल्की मुस्कान होती। जब मैं खाली बर्तन लौट आती, तो हमेशा कहता, “आप बहुत अच्छी हैं, मुझे बहुत अच्छी लगती हैं।” मैं घबरा जाती और झट से दरवाजा बंद कर देती।
भाई की शादी
हर बार वह यही अल्फाज दोहराता, लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं कहता था। एक दिन फहीम भाई ने उसे देख लिया। “यह कौन है?” उन्होंने सख्त लहजे में पूछा। मैंने कहा, “पड़ोस से आया है।” भाई गुस्से से बोले, “आइंदा यह घर आए, तो दरवाजा मत खोलना।” मैं सहम गई। कुछ ही दिनों बाद फहीम भाई ने बताया कि उन्हें एक लड़की पसंद है और वह उससे शादी करना चाहते हैं।
भाभी का आगमन
उन्होंने अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली। मुझे लगा, भाभी आएंगी तो मेरी जिंदगी में भी सुकून आ जाएगा, लेकिन सुकून शायद मेरी किस्मत में ही नहीं था। भाभी ने घर के सारे काम मुझसे करवाने शुरू कर दिए। भाई अब वही करते जो भाभी कहती।
फैजान की वापसी
एक दिन फैजान खाना लेकर आया और मैंने दरवाजा खोला। भाभी ने देख लिया। उन्होंने गुस्से में मुझे डांटा, थप्पड़ मारा। आंखों में आंसू लिए जब दरवाजे पर पहुंची, तो फैजान खड़ा था। “क्या हुआ? किसी ने कुछ कहा?” मैंने झूठ कहा, “नहीं, कुछ नहीं।” जैसे ही मैंने उसके हाथ से प्लेट पकड़ी, भाभी पीछे ही खड़ी थी।
आरोप और प्रतिशोध
“तो यहां यह सब हो रहा है? अपने भाई की नाक के नीचे तुम इस लड़के से मोहब्बत के किस्से रच रही हो?” मैं घबरा गई। “ऐसा कुछ नहीं है, भाभी!” फैजान सफाई देने लगा, “आप गलत समझ रही हैं।” लेकिन भाभी ने बात को तूल दे दिया। “अब फहीम को आने दो, मैं तुम्हारी असलियत उसके सामने लाकर रहूंगी।”
फैजान की मां
वह घर से बाहर निकली और सीधा फैजान की वालिदा के पास जा पहुंची। “तुम्हारा बेटा मेरी ननद को मोहब्बत के जाल में फंसा रहा है और ना जाने इसके साथ क्या-क्या कर चुका है।” बेचारी शरीफ औरत थी, बेटे पर हाथ उठा दिया। फैजान कहता रह गया, “मैंने कुछ नहीं किया, यह झूठ बोल रही है।” लेकिन उसकी मां ने कहा, “आइंदा हमारे घर मत आना।”
फैजान का अंतिम संदेश
फैजान ने हमारे घर आना छोड़ दिया। बस एक बार आया था। मैं छत पर कपड़े डाल रही थी। उसने नीचे से आवाज दी, “बस मेरा इंतजार करना। 5 साल लगेंगे, लेकिन मैं तुम्हें इस तकलीफ से निकाल लूंगा।” यह कहकर वह चला गया। लेकिन मैंने उसका इंतजार नहीं किया। मुझे डर था कि कहीं भाई की नजरों में बुरी ना बन जाऊं।
अरशद का रिश्ता
भाई ने मेरा रिश्ता अरशद से तय कर दिया। अरशद एक चौकीदार था, बंगले के बाहर पहरा देता था। भाभी के कहने पर भाई ने मुझसे बिना पूछे रिश्ता तय कर दिया। मुझे इंकार का हक था, लेकिन नहीं वरना भाभी मुझ पर ना जाने कौन-कौन से इल्जाम लगा देती। मैंने अरशद के साथ भी जिंदगी निभा ली, लेकिन उसका मेरा साथ बहुत कम रहा।
फैजान से सामना
आज कई साल बाद फैजान से सामना हो गया। वह मुझे देखकर बहुत खुश था। शायद उसे यकीन था कि मैं अब भी उसका इंतजार कर रही हूं। लेकिन मैं इस हाल में थी। चार बच्चे थे मेरे, मैं एक बेबसी की जिंदगी गुजार रही थी। फैजान ने कभी कहा था, “मैं तुम्हें बहुत खुश रखूंगा, दुबई जाकर बहुत पैसा कमाऊंगा।” शायद अब तक वह सब कुछ भूल चुका होगा।
भाई की बेरुखी का सामना
मैं अपने भाई के घर से खाली हाथ लौट आई थी। उसने तो पलटकर भी नहीं देखा कि जिस बहन ने सब कुर्बान कर दिया, उसे क्या मिला। उसने मेरा हिस्सा तक नहीं दिया। कहता था, “यह सब मेरा है, मां-बाप का छोड़ा हुआ घर भी मेरा ही है। बहन उसकी नहीं थी।” लेकिन मैंने आज तक उसे कोई बददुआ नहीं दी।
फैजान का प्रस्ताव
मैं अपनी ही सोच में गुम थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला, तो सामने फैजान खड़ा था। उसे देखते ही मेरी आंखों में नमी आ गई। उसने कहा, “अंदर आने की इजाजत नहीं दोगी?” मैंने जवाब दिया, “नहीं, मेरा शौहर इस दुनिया में नहीं रहा और मैं गैर मर्दों को अपने घर में दाखिल नहीं करती। मोहल्ले वाले मेरा जीना हराम कर देंगे। बस यह छत है, जहां मैं सर छुपाए बैठी हूं।”
फैजान की दया
फैजान मेरी आंखों में एक नजर डालकर चुपचाप लौट गया। अगले ही दिन फिर दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला, तो उसके हाथ में कई थैले थे। उसने बिना कुछ कहे उन्हें दरवाजे के पास रख दिया। “इसमें खाने-पीने और जरूरी सामान है, रख लो।” मैंने शक्ति से कहा, “नहीं, मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। अल्लाह का दिया सब कुछ है। मैं तुम्हारा एहसान नहीं लेना चाहती।”
सहारा बनने की इच्छा
वह हल्के लहजे में बोला, “मैं सब जानता हूं। अगर तुम यह रख लोगी, तो मुझे खुशी होगी। और बेफिक्र रहो, यह मेरे बच्चों या घर वालों की सदका-खैरात नहीं, मेरा अपना है।” यह कहकर वह चला गया। मेरे बच्चे बाहर आए और सामान देखकर खुश हो गए। मैंने थैले उठाए, अंदर ले आई। आटा, दाल, चावल, चीनी—हर जरूरत की चीज थी।
बच्चों की खुशी
मैंने आटा गूंथा, रोटियां बनाई। बच्चों ने पेट भरकर खाना खाया और हाथ उठाकर फैजान के लिए दुआ करने लगे। “अल्लाह उनकी रोजी में बरकत दे।” कुछ रोज बाद फिर वह आया। इस बार दरवाजे के बाहर ही खड़ा रहा। “अगर मुझे इस काबिल समझो, तो मैं तुम्हारा और तुम्हारे बच्चों का सहारा बनना चाहता हूं।”
नया जीवन
मैंने सर झुका लिया। “तुम्हारी बीवी तुम्हें इस बात की इजाजत देगी?” वह हल्के से मुस्कुराया। “बीवी है ही नहीं। अगर तुम हामी भर दो, तो मेरा घर भी बस जाएगा और तुम्हारे बच्चों को बाप का साया मिल जाएगा। मैं तुम्हें बहुत खुश रखूंगा।” मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। मैं इंकार क्यों करती? मुझे वाकई एक सहारे की जरूरत थी।
रमजान का निकाह
रमजान से एक दिन पहले हमारा निकाह हुआ। फैजान ने मुझे और मेरे बच्चों को अपने घर ले लिया। फैजान का घर मेरे भाई के घर के बिल्कुल बराबर था। जब मेरी भाभी ने देखा, तो ताने कसने लगी। “मुझे पहले से ही पता था कि यह अपने शौहर के नाम पर नहीं बैठी रहेंगी।” लेकिन इस बार मैंने जवाब नहीं दिया, बल्कि फैजान ने दिया।
भाई की मुसीबत
“जब सगे भाई और भाभी ऐसे हो, तो औरत को मजबूरन ऐसा कदम उठाना पड़ता है।” भाभी गुस्से से तिलमिला उठी और चुपचाप अंदर चली गई। अगले ही दिन फहीम भाई रोते-पीटते हुए घर में दाखिल हुए। उनकी चीख से मेरा दिल दहल गया। उनकी फैक्ट्री, जिसमें करोड़ों रुपये लगाए थे, जलकर खाक हो गई थी। अब वह दिवालिया हो चुके थे।
भाई की स्थिति
कर्जदार दरवाजे पर खड़े थे। घर भी बेचना पड़ा। अब भाई और भाभी सड़क पर आ चुके थे। अल्लाह जब बादशाहत देता है, तो उसे बांटना चाहिए। लेकिन फहीम भाई ने मेरा हक मारा था, मेरी हक तफी की थी। आज उसके पास कुछ नहीं था। किराए के घर में गुजारा कर रहा था। उसके बच्चे अब बर्गर और गोश्त मांगते थे, लेकिन अब उनके बाप के पास इतना भी नहीं था कि उनकी फरमाइश पूरी कर सके।
दया और सहारा
लेकिन मैं पत्थर दिल नहीं थी। हर महीने चुपचाप कुछ पैसे भाई के हाथ पर रख देती ताकि उसे अपने बच्चों के लिए किसी के दर पर बासी रोटी ना मांगनी पड़े। खुदा के लिए अपनी बहनों के साथ अच्छा सुलूक करें। अगर वो बेवा हो जाए या बेसहारा हो, तो उन्हें अकेला ना छोड़ें। क्योंकि जरूरी नहीं कि हर बहन की तकदीर में फैजान जैसा कोई हो। हो सकता है कि उसे सिर्फ आपके सहारे की जरूरत हो।
निष्कर्ष
उम्मीद है कि आज की कहानी आपको बहुत पसंद आई होगी। अगर पसंद आई, तो वीडियो को लाइक जरूर कीजिए। आपकी बहुत मेहरबानी होगी, क्योंकि आपके लाइक से हमें हौसला मिलता है। अल्लाह हाफिज।
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