कहानी: असली वर्दी – शिव शंकर चौधरी का सम्मान का सबक

लखनऊ शहर की उस हल्की सर्द रात में सड़कों पर ट्रैफिक की आवाजें मंद पड़ चुकी थीं। आसपास चाय की टपरी और पान की दुकानों पर सन्नाटा था। लेकिन पुलिस पेट्रोलिंग की गाड़ियों की खटाखट अब भी सुनाई देती थी। स्टेशन रोड पर एक पुराने पुलिस थाने के सामने, फुटपाथ पर, चादर ओढ़े एक दुबला-पतला बुजुर्ग आदमी लेटा था। उसके पास कोई खास समान नहीं था—बस एक झोला, एक पुराना सा मोबाइल और एक जोड़ी फटी चप्पलें। चेहरे पर गहरी झुर्रियां, बालों में सफेदी, लेकिन आंखों की चमक में अब भी वह तेज़ था जो कभी इंसाफ की मिसाल हुआ करता था।

इस बुजुर्ग का नाम था—शिव शंकर चौधरी, उम्र लगभग 75 वर्ष। कोई दो दशक पहले वे बिहार के डीजीपी रह चुके थे, उनकी कड़क छवि और न्यायप्रियता के किस्से आज भी पुलिस महकमे में सुनाए जाते हैं। पर आज न वर्दी थी, न सत्ता—बस साधारण से कपड़े और एक अनाम-प्रायः ज़िंदगी।

पुलिस का असली चेहरा

अचानक पुलिस की लाल बत्ती वाली जीप रुकी। एक हेड कांस्टेबल, मनोज तिवारी उतरा। उसने आवाज दी—”ओए उठो बाबा! यह होटल-वोटल नहीं समझे? चलो, कहीं और जाकर सोओ।” शिव शंकर ने शांति से चादर सिर से हटाई, बिना एक शब्द बोले आंखें खोली और मनोज को देखा। मनोज भड़क उठा—”क्या देख रहे हो? बहरा है क्या? कहीं अभी लॉकअप में डाल दूंगा, वही चैन से सोओगे!”

पास ही खड़े दो जवान सिपाही मज़ाक करने लगे—”लगता है कोई पागल बूढ़ा है, बड़ा आराम से पसरा है साहब के सामने!”

शिव शंकर चुप रहे, अपनी चप्पल पहन, झोला उठाया और बोल पड़े, “तुम्हारी बात मान लेता हूं बेटा, लेकिन एक कॉल कर लूं?” मनोज ने हँसते हुए कहा, “हाँ-हाँ, कर ले। शाम को बुला ले, लेकिन दो मिनट में निकल जाना यहां से!”

शिव शंकर ने अपने पुराने बटन वाले फोन से नंबर डायल किया, सिर्फ दो शब्द बोले—”समय हो गया है, पुलिस स्टेशन नंबर 19,” और फोन बंद कर दिया।

मनोज ने हँसते हुए तंज कसा—”किसे बुला रहे हो बाबा? ऊपर से कोई देवता उतर आए क्या?” लेकिन पांच मिनट के भीतर ही स्टेशन के सामने बड़े-बड़े अफसरों की गाड़ियाँ रुकने लगीं—एसयूवी, फिर लाल बत्ती वाली इनोवा, सायरन बजाती एक सरकारी गाड़ी! बाहर पूरे थाने का स्टाफ जुट गया—एसपी, डीएसपी, क्राइम ब्रांच के अफसर, सब मौके पर। हर तरफ उथल-पुथल मच गई।

बदलाव का पल

फिर एक नाम गूंजा—”शिव शंकर चौधरी सर!” मनोज तिवारी की लाठी गिर चुकी थी, घबराकर वह शिव शंकर के पैरों में गिर पड़ा, “सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैं पहचान नहीं पाया!” पूरा पुलिस स्टेशन सन्न, जिसे सबने फुटपाथ पर बेसहारा बूढ़ा समझा, वह पूरा सिस्टम हिला सकता था! डीएसपी राजीव कुमार बोल पड़े, “सर, माफ करिए, हमने आपको पहचाना नहीं। इतनी साधारण वेशभूषा में…यह हमारी बड़ी भूल थी।”

शिव शंकर बोले, “यही तो मैं देखना चाहता था। मैं यहां तमाशा नहीं देखने आया था। मैं देखना चाहता था क्या वर्दी पहनने वाला हर पुलिसवाला अब भी मूल इंसानी मूल्य लेकर चलता है या अब सिर्फ पद और रैंक देखकर सलाम मिलता है?”

उसकी आवाज में ठहराव था, लेकिन बात में पत्थर काट देने की ताकत, “तुमने मेरे साथ नहीं, एक गरीब, एक नागरिक के साथ व्यवहार किया। हर बुजुर्ग भिखारी नहीं होता। कुछ ऐसे हैं जो पूरे सिस्टम को खड़ा कर सकते हैं।”

असली सिख – इंसानियत की वर्दी

एसपी आरती सिंह बोलीं, “सर, क्या हम जान सकते हैं आपने सबक सिखाने के लिए यह तरीका क्यों चुना?” शिव शंकर मुस्कुराए, “क्या हमने इंसान को इंसान समझना बंद कर दिया है? क्या अब रैंक या चमकदार कपड़े देखकर ही सम्मान मिलता है? अगर ऐसा है, तो इंसाफ सिर्फ किताबों में रह जाएगा।”

मनोज अब भी घुटनों पर था, कांपती आवाज में बोला, “सर, मैं आपकी ट्रेनिंग में था, तब पहचान गया था…आज तो और आंखों में पर्दा पड़ गया…” शिव शंकर ने उसका कंधा थाम कर उठाया, “सजा से जरूरी है सीख। अगर तुम आज बदल जाओ तो वही सबसे बड़ा सम्मान है मेरे लिए।”

नई प्रेरणा, नया बदलाव

एसपी आरती बोलीं, “सर, अगर आप चाहें तो हर थाने में अपनी बात रखें, ताकि कोई ऐसी गलती न दोहराए…” शिव शंकर मुस्कुराए, “मैं फिर आऊंगा, लेकिन बिना बताए, क्योंकि असली परीक्षा तभी होती है जब कोई देख नहीं रहा होता।”

उनके शब्द सिर्फ चारदीवारी में नहीं, दिलों में उतर गए। अगली सुबह पुलिस स्टेशन के बाहर एक बोर्ड लगा—’मानव गरिमा दिवस’—हर महीने की पहली तारीख को! आदेश था—”हर पुलिसकर्मी बिना नाम, रैंक देखे हर व्यक्ति से सम्मान से पेश आए।” बोर्ड पर प्रेरणा चित्र लगी जहां शिव शंकर फुटपाथ पर चादर ओढ़े सो रहे थे, नीचे लिखा था—”असली ताकत शोर नहीं मचाती।”

ट्रेनिंग हॉल की सीख

हफ्ते भर बाद पटना पुलिस ट्रेनिंग अकादमी में स्पेशल सेशन था। सैकड़ों नए ट्रेनी पुलिस अफसर, मंच पर शिव शंकर वही पुराने कपड़ों में। उन्होंने कहा, “वर्दी इज्जत दिला सकती है, लेकिन उस इज्जत को बनाए रखने के लिए इंसानियत चाहिए। अगर तुम्हारा सलाम सिर्फ ऊँची पोस्ट देखकर होता है, तो याद रखो तुम केवल वर्दी पहनने वाले बनोगे, अफसर कभी नहीं।”

सन्नाटा छा गया—हर चेहरा सोच में डूबा।

बदलाव की मिसाल

पुलिस स्टेशन की दीवार पर एक और बोर्ड—”हर व्यक्ति जो दरवाजा खटखटाए, पहले उसे भिखारी नहीं, नागरिक समझो।”

राजीव, वही डीएसपी, हर रपट के पहले एक सवाल पूछता—”क्या हमने उसकी आवाज को सुना?”

एक और सुबह, थाने के बाहर फटे कपड़ों में बैठा एक बुजुर्ग…भीड़ हँस रही थी, वीडियो बना रही थी, लेकिन एक नए ट्रेनी ने नजदीक जाकर प्रेम से पूछा—”बाबा, चलिए अंदर, आपको कुछ चाहिए?”

बुजुर्ग ने उसकी पीठ थपथपाई—”अब भी उम्मीद जिंदा है बेटा…सबसे बड़ा आदमी अक्सर सादगी में छिपा होता है।”

सीख

इज्जत वर्दी, नाम, या रैंक में नहीं—इंसानियत में बसती है। असली अफसर वह होता है जो खुले दिल से, हर गरीब, हर बेसहारा को उसी सम्मान से देखे जैसे वह एक बड़े अफसर को देखता है।

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धन्यवाद।