गाँव से आए पिता को अफसर बेटे ने कहा – तू कौन है? मैं नहीं जानता… फिर जो हुआ
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पिता की पहचान: रिश्तों का आईना
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के एक छोटे से गाँव में रहते थे रामानंद जी। उनका जीवन बहुत साधारण था — छोटा सा खेत, मामूली आमदनी, दिन-रात की मेहनत और परिवार के लिए हजारों सपने। दो बेटे: राजन और आकाश, और एक बेटी। घर की हालत तंग थी, मगर बच्चों की पढ़ाई में कभी कमी नहीं आने दी। खुद भूखे रह जाते, लेकिन बेटों की किताबें पूरी होतीं। पत्नी पुराने कपड़े सिलती, बच्चों की फीस भरने के लिए गहने तक बेच दिए। गाँव वाले ताने देते — “रामानंद, इतना क्यों भागता है? गाँव के लड़के कहाँ अफसर बनते हैं?” मगर रामानंद जी हमेशा मुस्कुरा कर कहते, “एक दिन मेरे बेटे गाँव का नाम रोशन करेंगे।”
समय बदला। बड़ा बेटा राजन मेहनत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर सरकारी इंजीनियर बन गया। छोटा बेटा आकाश बैंक में अफसर बन गया। जब यह खबर गाँव में फैली, हर चौपाल पर रामानंद जी के बेटे की चर्चा थी। उनके चेहरे पर गर्व की मुस्कान थी, आँखों में चमक थी। गाँववाले सलाम करते, “रामानंद जी, आपके बेटे अफसर बन गए!”
लेकिन जैसे-जैसे सफलता आई, बेटों और माता-पिता के बीच दूरी बढ़ती गई। शहर की चमक-धमक, नई सोच और व्यस्तता ने रिश्तों को फीका कर दिया। दोनों बेटे शहर में व्यस्त रहते, कभी-कभी पैसे भेज देते, फोन पर बातें भी कम हो गईं। त्यौहारों पर दो-चार मिनट की बात, बस औपचारिकता।
रामानंद जी और उनकी पत्नी अक्सर सोचते, “क्यों न बच्चों से मिलने शहर जाएँ?” लेकिन फिर एक-दूसरे की आँखों में देखकर चुप हो जाते — “बच्चे काम में व्यस्त होंगे, परेशान नहीं करेंगे।” एक दिन रामानंद जी ने सोचा, अब बड़े बेटे राजन की शादी कर देनी चाहिए। गाँव में एक अच्छा रिश्ता देखा — पढ़ी-लिखी, संस्कारी लड़की। पंडित जी ने कुंडली मिलाई, बोले, “सारे गुण मिल रहे हैं, चट मंगनी पट ब्याह कर दीजिए।”
रामानंद जी ने बेटे को फोन किया, “राजन बेटा, तुम्हारे लिए अच्छा रिश्ता देखा है।” लेकिन उधर से राजन की आवाज़ में गुरूर था, “पिताजी, आपने मेरे लिए बिना पूछे रिश्ता कैसे तय कर लिया? मैं गाँव की लड़की से शादी नहीं करूँगा। अब मैं शहर में रहता हूँ, बड़े लोगों के साथ उठता-बैठता हूँ। मेरा स्तर अब गाँव वालों से अलग है।” और फोन काट दिया।
रामानंद जी का दिल टूट गया। पत्नी ने पूछा, “क्या हुआ जी?” आँसू लिए बोले, “तेरा बेटा अब हमें छोटा समझने लगा है।” पत्नी का कलेजा काँप उठा, “हे भगवान, कैसी हवा लग गई है मेरे बेटे को!” कई दिन दोनों पति-पत्नी यही सोचते रहे — कहाँ गलती हो गई? पत्नी ने कहा, “आप खुद शहर जाकर राजन से बात करें, शायद सामने जाकर समझाएँ तो मान जाए।” रामानंद जी बोले, “पैसे नहीं हैं…” पत्नी ने आंचल से छोटे-छोटे नोट निकालकर हाथ में रख दिए, “यही थोड़े बहुत हैं, कल सुबह की गाड़ी से निकल जाइए।”
अगली सुबह, रामानंद जी नहा-धोकर भगवान के सामने दीपक जलाकर, हाथ जोड़कर, भारी मन से छोटा सा बैग कंधे पर टाँगकर बस अड्डे की तरफ निकल पड़े। गाँव की पगडंडी, हरे खेत, मिट्टी की खुशबू — सब दिल में उतर गए। लेकिन मन में सवाल था, “क्या मेरे बेटे मुझे गले लगाकर मिलेंगे?”
शहर पहुँचे — ऊँची इमारतें, भागती भीड़, चमकदार बाजार। जेब से पर्ची निकाली, बेटे का दफ्तर और मकान का पता लिखा था। राहगीरों से पूछते-पूछते आखिरकार राजन के दफ्तर पहुँचे। गार्ड से बोले, “राजन इंजीनियर का दफ्तर है क्या? मैं उनसे मिलने आया हूँ।” गार्ड ने ऊपर से नीचे तक देखा, धोती-कुर्ता, पुराना बैग, पसीने से भीगा माथा। “आप कौन होते हैं राजन साहब के?” “मैं पिता हूँ।” गार्ड बोला, “साहब मीटिंग में हैं, अभी नहीं मिल सकते। घर पास में है, छोटा भाई आकाश वहीं रहता है। चलिए, मैं पहुँचा देता हूँ।”
आकाश ने दरवाजा खोला, पिता को देखकर दौड़कर पैर छुए, “पिताजी, आप अचानक! आइए…” घर अंदर से बेहद सुंदर था, चमचमाती फर्श, महंगे सोफे, बड़े-बड़े पेंटिंग्स। रामानंद जी बोले, “बेटा, ये सब तो बहुत महंगा होगा ना?” आकाश हँसकर बोला, “पिताजी, अब जमाना बदल गया है, शहर में ये सब आम है।”
रामानंद जी ने बैग खोलते हुए कहा, “तेरी माँ ने तेरे लिए देसी घी की पिनिया और अचार भरा है।” आकाश बोला, “अब ये सब कौन खाता है? आपने इतना बोझ क्यों ढोया?” रामानंद जी का दिल बैठ गया, “बेटा, मैंने तो मना किया था, लेकिन तेरी माँ बोली शहर में ये सब कहाँ मिलता होगा।”
रात के आठ बज चुके थे। रामानंद जी धोती-बनियान पहनकर बरामदे में टहलने लगे। आकाश दौड़ा, “पिताजी, आप ये कपड़े पहनकर बाहर मत जाइए, ये गाँव नहीं है, लोग क्या कहेंगे…” रामानंद जी बोले, “अगर कोई मुझे गँवार या देहाती कह देगा तो मेरी इज्जत कहाँ कम होगी? मैंने पूरी जिंदगी मेहनत-मजदूरी करके तुम्हें पाला है। आज तुम पैसे कमा लिए तो अपनी शान का डर लगने लगा?”
आकाश शर्मिंदा हो गया, “गलती हो गई पिताजी, आइए खाना खा लीजिए।” मगर रामानंद जी के आँसू बहते रहे। रात गहराती गई, लेकिन राजन नहीं आया। “बेटा, राजन अभी तक आया क्यों नहीं?” आकाश बोला, “भैया अक्सर देर से आते हैं, कई बार तो रात के दो बजे तक, काम ज्यादा हो तो दफ्तर में ही रुक जाते हैं।”
रामानंद जी बोले, “चल मुझे उसके पास ले चलो। देखूँ मेरा खून मुझे पहचानता भी है या नहीं।” आकाश मजबूरी में पिता को साथ लेकर राजन के दफ्तर पहुँचा। दरवाजे पर दस्तक दी। अंदर से लड़खड़ाती आवाज आई, “कौन है इतनी रात को?” दरवाजा खुला — राजन सामने खड़ा था, लाल आँखें, शराब की बदबू, हाथ में गिलास। पिता को देखकर भड़क उठा, “कौन है ये बूढ़ा? रात में मेरे दफ्तर के बाहर क्या कर रहा है?” आकाश ने कहा, “भैया, ये हमारे पिताजी हैं, गाँव से मिलने आए हैं।”
राजन हँस पड़ा, “पिताजी, ये गँवार मेरे पिताजी तो गाँव के रईस लोग हैं, ये धोती-कुर्ते वाला मेरा बाप नहीं हो सकता।” रामानंद जी स्तब्ध रह गए, सीना फट गया। “राजन, शराब ने तेरा विवेक छीन लिया है। इतना अंधा हो गया कि अपने बाप को नहीं पहचानता?” इतने में दो-तीन दोस्त भी बाहर आ गए, “अरे राजन भाई, ये कौन बूढ़ा चिपक गया है? निकालो इसे…” राजन ने नोटों की गड्डी निकाल कर आकाश को थमा दी, “ले इन्हें दे दे और कह दे कि आगे से मेरे सामने मुंह ना दिखाएँ।”
रामानंद जी ने गुस्से में नोटों की गड्डी राजन के चेहरे पर दे मारी, “लानत है तेरे ऐसे पैसों पर। तू बड़ा आदमी बन गया, लेकिन अपने बाप को पहचानना भूल गया। आज से ना तू मेरा बेटा, ना मैं तेरा बाप।” दोस्तों के सामने राजन की आँखें झुक गईं, मगर नशे में अहंकार कायम था। रामानंद जी आकाश का सहारा लेकर लौट आए, आँखों में आँसू, होठ बुदबुदा रहे थे, “हे भगवान, ऐसा बेटा क्यों दिया जो अपने ही पिता को ठुकरा दे?”
पूरी रात करवटें बदलते रहे, दिल बोझ से दबा हुआ। सुबह पाँच बजे दरवाजे की घंटी बजी। आकाश ने दरवाजा खोला, सामने राजन था — चेहरा उतरा हुआ, आँखें लाल, कदम लड़खड़ा रहे थे, मगर अब होश में था। बैठक में गया, पिता पूजा करके लौट रहे थे। राजन उनके पैरों पर गिर पड़ा, “पिताजी मुझे माफ कर दीजिए, कल मैंने नशे में जो कहा, वो मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी। मुझे एक मौका दे दीजिए।”
रामानंद जी बोले, “कौन है तुम? मैंने तुम्हें नहीं पहचाना। मेरा बेटा तो गाँव में रह गया है, जो अपनी मिट्टी, संस्कार और माँ-बाप को जानता है। तुम तो कोई और हो, मेरे लिए मर चुके हो।” राजन फूट-फूट कर रोता रहा। आकाश बोला, “पिताजी, भैया सचमुच पछता रहे हैं। शराब इंसान को अंधा कर देती है, एक मौका और दे दीजिए।”
रामानंद जी बोले, “राजन, पैसे से आदमी बड़ा नहीं होता, अपने बड़ों की इज्जत से बड़ा होता है। तूने मेरी बेइज्जती देखी और अब माफी माँग रहा है। अगर सचमुच बदलना चाहता है तो मुझे दिखाकर साबित कर, सिर्फ शब्दों से नहीं।” राजन ने पिता का हाथ पकड़ लिया, “पिताजी, मैं वचन देता हूँ, अब मेरी जिंदगी का हर दिन आपके नाम होगा। जिस बाप को मैंने ठुकराया, उसी बाप का आशीर्वाद लेकर अब मैं जीना चाहता हूँ।”
कुछ सोचने के बाद रामानंद जी ने हाथ उठाकर बेटे के सिर पर रख दिया, “ठीक है, मैं तुझे आखिरी मौका देता हूँ, लेकिन अगर फिर गलती की तो यह हाथ तुझे आशीर्वाद नहीं, सजा देगा।” राजन ने रोते हुए उनके पैर छू लिए। आकाश की आँखों में भी आँसू थे।
उसी दिन राजन ने अपने दोस्तों को बुलाकर कहा, “कल रात मेरे पिता का अपमान करने में तुम भी शामिल थे। अगर तुम मेरे दोस्त हो तो कसम खाओ, आज के बाद शराब नहीं पियोगे और बड़ों का सम्मान करोगे।” दोस्तों ने शर्मिंदा होकर सिर झुका लिया, “अंकल, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई, अब कभी ऐसा नहीं होगा।”
रामानंद जी बोले, “याद रखना, पैसा अगर घमंड दे तो वह शाप है, और वही पैसा अगर सेवा और संस्कार दे तो वरदान है।” घर का वातावरण बदल चुका था। राजन अब पिता की ओर देखकर सिर झुकाता, रामानंद जी के चेहरे पर पहली बार संतोष की झलक थी।
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि असली दौलत रुपयों में नहीं, बल्कि माँ-बाप के आशीर्वाद और उनकी इज्जत में होती है। पैसा हर कोई कमा सकता है, लेकिन अपने माता-पिता को पहचानना और उनका सम्मान करना ही जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई है।
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