बीमार पिता की जान बचाने के लिए बेटी ने मदद मांगी… करोड़पति लड़के ने 15 लाख का ऑफर दिया, फिर…
यह कहानी है संध्या वर्मा की, जो मुंबई के एक अस्पताल में अपने बीमार पिता की जान बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी। उसके पिता, श्यामलाल जी, किडनी फेलियर से जूझ रहे थे और डॉक्टर ने कहा था कि अगर आज शाम तक ऑपरेशन के पैसे नहीं मिले, तो वह कुछ नहीं कर पाएंगे। संध्या के लिए यह एक ऐसी स्थिति थी, जहां उसके पास कोई विकल्प नहीं था। उसके सामने एक ही रास्ता था – मदद मांगना।
संध्या का संघर्ष
संध्या अपने कांपते हाथों से अस्पताल के आईसीयू के दरवाजे पर खड़ी थी, जहां उसके पिता ऑक्सीजन मास्क के नीचे बेहोश पड़े थे। उनके चेहरे पर पीला रंग चढ़ चुका था और संध्या के दिल में डर था कि वह अपने पापा को खो देगी। उसने कभी नहीं सोचा था कि उसे इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ेगा। उसके पास पैसे नहीं थे, और ₹15 लाख की राशि उसके लिए एक सपना थी, जिसे वह कभी नहीं देख पाई थी।
उसने अस्पताल से बाहर निकलकर एक ऊंची इमारत के सामने खड़ी हुई। यह मल्होत्रा इंडस्ट्रीज थी, जहां आदित्य मल्होत्रा, करोड़पति व्यवसायी, काम करता था। संध्या को याद था कि कई साल पहले उसने एक इंटरव्यू के दौरान आदित्य से बात की थी। तब उसने कहा था, “इस दुनिया में किसी को तरस नहीं, हुनर चाहिए।” आज उसे अपनी मजबूरी बतानी थी।
आदित्य से मुलाकात
संध्या ने गहरी सांस ली और गार्ड से कहा, “मुझे अंदर जाना है। बहुत जरूरी है।” लेकिन गार्ड ने उसे रोक दिया। “मैडम, बिना अपॉइंटमेंट के आप नहीं जा सकतीं।” संध्या वहीं खड़ी रह गई, थकी हुई, लेकिन उम्मीद से भरी। तभी एक काली मर्सिडीज बिल्डिंग के गेट पर रुकी। ड्राइवर ने जल्दी से दरवाजा खोला और आदित्य बाहर निकला। वह काले सूट में आत्मविश्वास से भरा था, जैसे दुनिया उसके कदमों में हो।
संध्या ने हिम्मत जुटाई और आदित्य के सामने खड़ी हो गई। “सर, मेरी बात सुन लीजिए,” उसने कहा। आदित्य ने उसे देखा और पूछा, “तुम कौन हो?” संध्या की आंखें भर आईं। “मेरा नाम संध्या वर्मा है। मेरे पापा अस्पताल में हैं। उन्हें किडनी फेलर है। डॉक्टर ने कहा है कि अगर आज ऑपरेशन नहीं हुआ तो…” वह लड़खड़ा गई।
आदित्य ने उसकी बात सुनी और कहा, “देखो, मिस, मैं रोज ऐसे कई लोगों को देखता हूं जो मुझसे पैसे मांगने आते हैं। अगर मैं सबको मदद देने लगूं, तो खुद भी सड़क पर आ जाऊं।” संध्या ने कांपते हुए कहा, “मैं भीख नहीं मांग रही हूं। मैं काम करूंगी। जो कहेंगे करूंगी। बस मेरे पापा की जान बचा लीजिए।”
संध्या की विनती
उसकी आवाज में सच्चाई थी, जो किसी पत्थर को भी पिघला दे। आदित्य के कदम ठिठक गए। वह कुछ पल तक उसे देखता रहा। फटे कपड़े, पसीने से भरा चेहरा, कांपते होंठ और आंखों में नमी जो मदद नहीं, जिंदगी मांग रही थी। कुछ सेकंड बाद आदित्य ने अपने ड्राइवर की तरफ देखा और कहा, “गाड़ी अंदर ले जाओ।” फिर उसने संध्या की ओर देखा, “मेरे साथ चलो।”
संध्या घबरा गई। “क-कहां?” उसने पूछा। “अंदर। ऑफिस में।” उसका लहजा सख्त था, लेकिन आंखों में हल्की नरमी थी। ऑफिस की लिफ्ट में चढ़ते हुए संध्या का दिल धड़क रहा था। हर मंजिल के साथ उसे लग रहा था कि वह किसी अंधेरे समझौते की ओर बढ़ रही है।
ऑफिस में शर्त
कमरे में पहुंचकर आदित्य ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “तुम्हारे पिता का इलाज मैं करवाऊंगा।” संध्या की आंखों में उम्मीद की चमक लौटी, लेकिन अगला वाक्य सुनते ही वह फिर पत्थर सी हो गई। “बदले में तुम्हें मेरी शर्त माननी होगी।” संध्या ने फुसफुसाकर पूछा, “कौन सी शर्त?” आदित्य ने टेबल की दराज खोली और एक कॉन्ट्रैक्ट फाइल निकाली। “यह एक मैरिज कॉन्ट्रैक्ट है। अगले छह महीनों तक तुम मेरी पत्नी बनकर मेरे साथ रहोगी।”
कमरे में सन्नाटा छा गया। संध्या की आंखें फैल गईं। “क्या? क्या कहा आपने?” आदित्य शांत स्वर में बोला, “तुम्हें पैसे चाहिए। मुझे किसी की जरूरत है जो मेरे साथ कुछ समय रहे। दोनों की मजबूरी पूरी हो जाएगी।” संध्या का दिल जैसे थम गया। वह उठकर जाने लगी, लेकिन फिर पापा का चेहरा उसके सामने आया। मॉनिटर पर टिमटिमाती लाइट्स। डॉक्टर की आवाज, “24 घंटे हैं बस।”
उसके कदम रुक गए। वह वापस मुड़ी और धीरे-धीरे फाइल की ओर बढ़ी। पेन उठाया और कांपते हाथों से साइन कर दिए। पन्ने पर स्याही सूखने से पहले ही उसकी आंखों से एक आंसू गिरा। शायद उसी में उसकी जिंदगी की आखिरी मासूमियत डूब गई थी।
अस्पताल में ऑपरेशन
अस्पताल के गेट पर पहुंचते ही संध्या के कदम लड़खड़ा गए। रात भर की दौड़, सूझी आंखें और कांपते हाथ। लेकिन अब उसके दिल में एक ही बात थी – “पापा बच जाएंगे।” वह भागती हुई रिसेप्शन पर गई। “मैम, यह पैसे हैं। कृपया ऑपरेशन शुरू कर दीजिए।” उसने कांपते हाथों से बैंक रसीद दिखाई। ₹15 लाख का ट्रांसफर।
नर्स ने नजरें उठाई और सिर हिलाया। “आपकी रकम मिल गई है। डॉक्टर को सूचित कर दिया गया है।” संध्या वहीं खड़ी रह गई। एक गहरी सांस ली और दीवार से टिक कर नीचे बैठ गई। पहली बार उसे लगा जैसे उसके कंधों से कोई बोझ उतर गया हो। उसने धीरे से बुदबुदाई, “धन्यवाद भगवान।”
ऑपरेशन की घड़ी
ऑपरेशन थिएटर की लाइटें जल चुकी थीं। श्यामलाल जी को स्ट्रेचर पर ले जाया जा रहा था। उन्होंने मास्क के नीचे से अपनी बेटी की तरफ देखा। “बेटा, अब मत रो। सब ठीक हो जाएगा।” संध्या ने सिर हिलाया, लेकिन आवाज नहीं निकली। वह बस उनके पैर छूकर बोली, “आप बस लौट आइए पापा।”
ऑपरेशन थिएटर का दरवाजा बंद हुआ और उसके पीछे जैसे संध्या की सांसें भी बंद हो गईं। वह अस्पताल की बेंच पर बैठी थी। आंखों में उम्मीद, हाथों में पिता की पुरानी तस्वीर और दिल में तूफान। घंटों बीत गए। दीवार की घड़ी 12 बजने का संकेत दे चुकी थी। हर बार जब नर्स बाहर निकलती, वह उठकर पूछती, “कैसे है पापा?” लेकिन जवाब वही होता, “डॉक्टर अंदर है। प्रेयर कीजिए।”
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