रामचंद्र जी और सरोज देवी की कहानी: उपेक्षा, संघर्ष और पुनर्मिलन की दास्तान

राजस्थान के छोटे से गाँव सूरजपुर में रामचंद्र जी और उनकी पत्नी सरोज देवी रहते थे। दोनों उम्र के उस पड़ाव पर थे जहाँ उनके हाथ-पैर कांपने लगे थे, और आँखों की रोशनी भी धीरे-धीरे कम हो रही थी। हर कदम पर उन्हें किसी न किसी की मदद की ज़रूरत होती थी। उनके साथ उनके बेटे रमेश, बहू कविता और इकलौते पोते आरव भी रहते थे। आरव विदेश में मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था। वह अपने दादा-दादी का लाडला था, उनकी आंखों का तारा। जब तक वह गाँव में था, घर में खुशियों का माहौल रहता था।

रामचंद्र जी और सरोज देवी सोचते थे कि उनकी यह छोटी सी दुनिया हमेशा खुशहाल रहेगी। लेकिन वक्त ने करवट ली और सब कुछ बदल गया जब आरव अपनी पढ़ाई के लिए विदेश चला गया। उस दिन से घर की रौनक जैसे चली गई। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनकी सेहत भी बिगड़ने लगी। कभी रामचंद्र जी का ब्लड प्रेशर अचानक बढ़ जाता, तो कभी सरोज देवी को शुगर की शिकायत सताने लगती। लेकिन सबसे बड़ी तकलीफ उनका बीमार शरीर नहीं था, बल्कि उनके बेटे और बहू का बेरुखा और उपेक्षापूर्ण व्यवहार था। यह उनके लिए किसी सज़ा से कम नहीं था।

रमेश अपने माता-पिता की कोई परवाह नहीं करता था। वह दिन-रात अपने काम में व्यस्त रहता और कविता को केवल अपनी सुख-सुविधाओं की चिंता थी। पड़ोसी भी रामचंद्र जी और सरोज देवी की हालत देखकर रो देते थे। वे दोनों अपने ही घर में पराए हो गए थे। कविता अक्सर उन्हें बासी खाना परोस देती। सोचिए, वे वही माँ-बाप थे जिन्होंने अपने बच्चों के लिए भूख और नींद दोनों त्याग दी थी, आज वही बासी रोटियां खाने को मजबूर थे।

जब रामचंद्र जी ने रमेश से शिकायत की, तो वह गुस्से में भड़क उठा और चिल्लाया, “अब तुम लोग क्या करते हो? जो मिलता है, चुपचाप खा लो। मेरे पास तुम्हारी फालतू बातों के लिए वक्त नहीं है।” यह सुनकर रामचंद्र जी और सरोज देवी का दिल टूट जाता। वे अपने छोटे कमरे में चले जाते, दरवाजा बंद करते और एक-दूसरे का हाथ थामकर फूट-फूट कर रोते। वे उन पुराने दिनों को याद करते जब उनका बेटा उनकी हर बात मानता था, और घर में प्यार और इज्जत का माहौल होता था। अब वह सब बस एक सपना बनकर रह गया था।

जब तक आरव गाँव में था, तब तक घर में थोड़ी-बहुत खुशियाँ थीं। वह अपने दादा-दादी से बेइंतहा मोहब्बत करता था। उनकी हर जरूरत का ख्याल रखता, दवाइयाँ लाता, फल खरीदता और रात को उनके पास बैठकर पुरानी बातें सुनता। वह अपने माता-पिता को भी समझाता, “मम्मी-पापा, दादा-दादी अब बूढ़े हो गए हैं, इनका ख्याल रखो, अच्छा खाना दो, सेहत का ध्यान रखो।” उसकी बातों का थोड़ा बहुत असर भी होता था, लेकिन जब वह विदेश चला गया, तो रमेश और कविता का व्यवहार और कठोर हो गया।

वे रामचंद्र जी और सरोज देवी को बोझ समझने लगे। उनकी छोटी-छोटी जरूरतें भी उनके लिए परेशानी बन गईं। अगर रामचंद्र जी को दवाई चाहिए होती तो कविता ताने मारती, “हर बार दवाई चाहिए, पता नहीं कितना खर्च करवाओगे।” और अगर सरोज देवी कुछ कहती तो रमेश की बेरुखी भरी बातें उन्हें चुप करा देतीं। ऐसे ही उनके दुख भरे दिन कट रहे थे।

एक दिन सुबह-सुबह रामचंद्र जी की तबीयत अचानक बहुत खराब हो गई। उनकी सांस तेज चल रही थी, सीने में दर्द हो रहा था, और शरीर इतना कमजोर था कि वह बिस्तर से उठ भी नहीं पा रहे थे। सरोज देवी डर गईं। कांपते पैरों से वह रमेश के पास गईं और कहने लगीं, “बेटा, तेरे पिताजी की हालत बहुत खराब है। उन्हें तुरंत अस्पताल ले चल वरना कुछ अनहोनी हो जाएगी।” लेकिन रमेश ने उनकी बात को हल्के में लिया। वह गुस्से में भड़क उठा, “मुझे बस यही काम बचा है क्या? दिनभर काम करता हूं, थक कर चूर हो जाता हूं, और तुम लोग हर बार नई मुसीबत लेकर आते हो। अस्पताल ले जाऊंगा तो मेरा पूरा दिन बर्बाद हो जाएगा। जो करना है खुद कर लो।” यह कहकर वह अपने कमरे में चला गया।

रामचंद्र जी बिस्तर पर पड़े कराह रहे थे, और सरोज देवी उनकी हालत देखकर रो रही थीं। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। उनकी आंखों में लाचारी, दर्द और सवाल था कि क्या उनका बेटा सचमुच इतना बदल गया है?

लेकिन सरोज देवी ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने कांपते हाथों से रामचंद्र जी का सहारा दिया और कहा, “चलो, मैं तुम्हें खुद अस्पताल ले जाऊंगी। हमारा बेटा भले हमें छोड़ दे, लेकिन मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ूंगी।” दोनों किसी तरह तैयार हुए। सरोज देवी ने अपनी पुरानी साड़ी के पल्लू में कुछ पैसे बांध रखे थे जो उन्होंने सालों से जोड़े थे। उसी से उन्होंने एक ऑटो लिया और रामचंद्र जी को लेकर गांव के पास के सरकारी अस्पताल पहुंची।

डॉक्टर ने रामचंद्र जी को देखा और गंभीर आवाज़ में कहा, “इनका ब्लड प्रेशर बहुत ज्यादा बढ़ गया है और शुगर भी कंट्रोल से बाहर है। इन्हें तुरंत दवाइयां शुरू करनी होंगी और पूरा आराम करना होगा। अगर ध्यान नहीं दिया तो हालत और बिगड़ सकती है।” सरोज देवी ने कांपते हाथों से दवाइयां लीं और रामचंद्र जी को लेकर घर की ओर चल पड़ीं।

लेकिन उस दिन किस्मत भी उनके साथ नहीं थी। रास्ते में अचानक तेज बारिश शुरू हो गई। आसमान से पानी ऐसे बरस रहा था जैसे वह भी उनके दर्द को देखकर रो रहा हो। दोनों एक ऑटो में बैठे थे, लेकिन गांव की पतली और कीचड़ भरी गलियों में ऑटो नहीं जा सकता था। ऑटो वाला रुक गया और बोला, “यहां से उतर जाओ, मेरा ऑटो आगे नहीं जाएगा। मुझे और सवारी लेनी है।” सरोज देवी ने हाथ जोड़कर मिन्नत की, “बेटा, थोड़ा रुक जाओ। बारिश बहुत तेज है। अभी उतरे तो हम भीग जाएंगे और मेरे पति की तबीयत और खराब हो जाएगी। बस बारिश थोड़ी कम हो जाए फिर हम चले जाएंगे।” लेकिन ऑटो वाले का दिल नहीं पसीजा। वह बोला, “मां जी, अगर मैं यहां रुका तो मेरा रोजगार छिन जाएगा। आप उतर जाओ।”

मजबूरन दोनों उस तेज बारिश में ऑटो से उतरे। सरोज देवी ने रामचंद्र जी का हाथ थामा, अपनी साड़ी का पल्लू उनके सिर पर रखा ताकि वह कम से कम भीगे और कीचड़ भरे रास्ते पर धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ने लगीं। रामचंद्र जी का शरीर कमजोर था। उनके पैर लड़खड़ा रहे थे, लेकिन सरोज देवी ने उन्हें हर कदम पर संभाला। बारिश की बूंदें उनके चेहरे पर गिर रही थीं और उनके आंसू उस पानी में मिल गए थे।

तभी रमेश और कविता घर से बाहर निकले और यह नजारा देख लिया। कविता ने ताने मारते हुए रमेश से कहा, “देखो, इन लोगों ने तो हमारी इज्जत मिट्टी में मिला दी। इस उम्र में भी शर्म नहीं है। गांव वाले देख लेंगे तो क्या कहेंगे कि हमारे मां-बाप बारिश में ऐसे घूम रहे हैं।” यह सुनकर रमेश का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया।

जैसे ही रामचंद्र जी और सरोज देवी घर पहुंचे, गीले कपड़ों में ठिठुरते हुए रमेश उन पर चिल्लाने लगा, “तुम लोगों को बुढ़ापे में यह सब करना सूझ रहा है? यह उम्र है बाहर घूमने की, बारिश में ऐसे चलने की, कुछ तो शर्म करो।” सरोज देवी ने रोते हुए जवाब दिया, “बेटा, तेरे पिताजी की तबीयत खराब थी। तूने तो हमें अस्पताल ले जाने से मना कर दिया था। बारिश में अगर मैं उन्हें ना संभालती तो वह कीचड़ में गिर जाते। क्या मैं उन्हें ऐसे छोड़ देती?” लेकिन रमेश का दिल नहीं पसीजा। वह उन्हें घूरता हुआ अंदर चला गया।

रामचंद्र जी और सरोज देवी अपने कमरे में गए, गीले कपड़े बदले और एक-दूसरे को देखकर फूट-फूट कर रोने लगे। वे अपने पोते आरव को याद करने लगे, जो उनकी हर तकलीफ में उनका सहारा बनता था। वे सोचने लगे, “काश हमारा आरव यहाँ होता, वह हमें कभी इस हाल में ना देखता।” उनकी आंखों से आंसू बहते और वे चुपचाप सो जाते।

इधर, विदेश में आरव ने अपना मेडिकल कोर्स पूरा किया। उसने अपने मां-बाप को फोन किया और कहा, “मम्मी-पापा, मेरा कोर्स खत्म हो गया है। मैं जल्दी ही भारत आ रहा हूँ। मुझे जयपुर के एक बड़े अस्पताल में इंटरव्यू देना है। लेकिन पहले दादा-दादी से बात कराओ, मुझे उनसे बात किए हुए बहुत दिन हो गए।” रमेश ने झूठ बोला, “बेटा, वे लोग तीर्थ यात्रा पर गए हैं। जहां वे हैं वहां फोन का नेटवर्क नहीं है। तू जयपुर आ जा, फिर बात करेंगे।” आरव को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन उसने ज्यादा सवाल नहीं किए। उसने अपना सामान पैक किया और भारत के लिए रवाना हो गया।

जयपुर एयरपोर्ट पर उतरकर उसने एक कैब ली और उस अस्पताल पहुंचा जहां उसका इंटरव्यू था। इंटरव्यू अच्छा रहा। बाहर निकलते वक्त उसे जोर की भूख लगी। पास में वही होटल था जहां सरोज देवी काम करती थीं। आरव ने सोचा, “चलो यहाँ खाना खा लेता हूँ।” होटल में घुसते ही उसकी नजर एक बुजुर्ग महिला पर पड़ी जो फर्श पर पोछा लगा रही थी। उस महिला की शक्ल उसे जानी-पहचानी लगी। उसने दिमाग़ लगाया और अचानक उसके दिल की धड़कन तेज हो गई। वह महिला उसकी दादी सरोज देवी जैसी दिख रही थी।

पहले तो उसने सोचा, “नहीं, यह मेरा वहम होगा। दादी तो तीर्थ यात्रा पर गई हैं। वो यहाँ क्या करेंगी?” लेकिन फिर उसने हिम्मत की और पास गया। जैसे ही वह करीब पहुंचा, उसे यकीन हो गया। उसने जोर से पुकारा, “दादी!” सरोज देवी ने आवाज़ सुनी, अपना सिर उठाया और सामने अपने पोते आरव को देखा। उनकी आंखें छलक पड़ीं। वह पोछा छोड़कर उठीं और आरव से लिपट गईं। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे।

रामचंद्र जी भी पास ही कुर्सी पर बैठे थे। आरव ने उन्हें देखा और दौड़कर उनके पैर छुए। “दादाजी, आप यहाँ कैसे?” उसने कांपती आवाज़ में पूछा। सरोज देवी और रामचंद्र जी ने उसे सारी कहानी सुनाई—कैसे रमेश उन्हें इलाज के बहाने जयपुर लाया और छोड़ गया, कैसे वे बेसहारा हो गए, और अब इस होटल में काम करके गुजारा कर रहे थे।

आरव का खून खौल उठा। उसकी आंखें गुस्से से लाल हो गईं। उसने अपने दादा-दादी को गले लगाया और कहा, “आप चिंता मत करो। अब मैं हूँ आपके साथ। मैं आपको इस हाल में नहीं छोड़ूंगा।” उसने तुरंत जयपुर में एक छोटा सा किराए का घर लिया, अपने दादा-दादी को वहाँ शिफ्ट किया और उनकी देखभाल के लिए दो नौकर रखे—एक खाना बनाने के लिए और दूसरा उनकी सेवा के लिए।

फिर उसने उनसे कहा, “दादाजी, दादी, आप यहाँ आराम करो। मैं अभी आता हूँ, मुझे कुछ जरूरी काम निपटाना है।” रामचंद्र जी और सरोज देवी को थोड़ा सुकून मिला। उन्हें लगा कि अब उनका लाडला पोता उनके साथ है तो सब ठीक हो जाएगा।

फिर आरव गाँव लौटा। रमेश और कविता ने उसे देखा तो खुशी से झूम उठे। “अरे, हमारा बेटा आ गया!” कविता ने अच्छे-अच्छे पकवान बनाए। रात को पूरा परिवार एक साथ खाना खाने बैठा। खाते वक्त आरव ने कहा, “मम्मी-पापा, मुझे विदेश में एक अच्छी नौकरी मिल गई है। वहां मुझे अच्छा पैसा मिलेगा, लेकिन मैं आपको यहाँ अकेले नहीं छोड़ सकता। आप मेरे साथ चलो।” रमेश और कविता खुश हो गए।

फिर आरव ने कहा, “मम्मी-पापा, अपना सामान पैक कर लो। हम कल जयपुर से विदेश के लिए निकलेंगे।” दोनों ने जल्दी-जल्दी सामान पैक किया। जो थोड़े बहुत पैसे उनके पास थे, वे एक बैग में रखे। रास्ते में रमेश ने वह बैग आरव को दे दिया और बोला, “बेटा, इसे तू संभाल। हमसे कहीं गिर गया तो मुसीबत हो जाएगी।”

आरव उन्हें जयपुर एयरपोर्ट ले गया। वहाँ पहुंचकर उसने कहा, “मम्मी-पापा, आप यहाँ थोड़ा इंतजार करो, मैं टिकट कंफर्म करवा कर आता हूँ।” वह अंदर गया, लेकिन दूसरे गेट से निकलकर अपने दादा-दादी के पास चला गया। रमेश और कविता उसका इंतजार करते रहे। घंटों बीत गए लेकिन आरव नहीं आया। उसका फोन भी स्विच ऑफ हो गया। आखिरकार उन्हें समझ आया कि आरव उन्हें छोड़कर चला गया।

उनके पास ना पैसे थे, ना कोई सहारा। वे उस बड़े एयरपोर्ट पर बेसहारा बैठे रोने लगे। इधर आरव अपने दादा-दादी को लेकर घंटों बाद फिर से एयरपोर्ट पहुंचा। रमेश और कविता अभी भी वहीं थे। वह उनके पास गया और बोला, “मम्मी-पापा, जो आपने दादाजी और दादी के साथ किया, वही मैंने आपके साथ भी किया है। अब आपको उनका दर्द समझ आया?” रमेश और कविता शर्मिंदगी से सिर झुका बैठे।

रमेश रोते हुए अपने मां-बाप रामचंद्र जी और सरोज देवी के पैरों में गिर पड़ा और बोला, “मां-पिताजी, मुझे माफ कर दो, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।” रामचंद्र जी और सरोज देवी ने उसे माफ कर दिया क्योंकि मां-बाप अपने बच्चों की खुशी के लिए हर दुख भूल जाते हैं।

आखिरकार पूरा परिवार फिर से एक साथ रहने लगा। इस बार वे एक-दूसरे का सम्मान करने और साथ निभाने का वादा किए। रामचंद्र जी और सरोज देवी ने सिखाया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएं, परिवार का प्यार और साथ सबसे बड़ा सहारा होता है।

समाप्त