“ईंट भट्टे पर मिट्टी ढोती लड़की पर सेठ का बेटा मर मिटा, आगे जो हुआ सबको रुला गया!”

मेरठ की मिट्टी में जन्मी एक प्रेमकथा: जब ईंट भट्ठे की रचना ने सेठ के बेटे का दिल जीत लिया — फिर जो हुआ उसने पूरे ज़िले को हिला दिया!

मेरठ, उत्तर प्रदेश — यह कहानी किसी फ़िल्म की नहीं, बल्कि उस सच्ची मिट्टी की है जहाँ इंसान अपने पसीने से रोज़ ज़िंदगी गढ़ता है। ज़िला मेरठ के मशहूर उद्योगपति सेठ धनराज सिंह, जिनके पास पाँच ईंट भट्टे और सैकड़ों मजदूर थे, उन्हीं के साम्राज्य में जन्म लेती है एक ऐसी प्रेमकथा जिसने सबकी नींदें उड़ा दीं।

सेठ के भट्टों पर काम करने वाले मजदूरों में एक लड़की थी — रचना, जिसने अभी-अभी 12वीं कक्षा पास की थी। जितनी सुंदर, उतनी ही होशियार और मेहनती। उसके चेहरे की चमक मिट्टी और पसीने के बीच भी साफ़ झलकती थी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।

एक दिन शहर से लौटे सेठ जी के बेटे यशवीर सिंह, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुका था, भट्टों का निरीक्षण करने पहुंचे। वहां उसकी नज़र रचना पर पड़ी — मिट्टी में सनी हुई, पसीने से तर-बतर, पर चेहरे पर एक अद्भुत तेज़। वह बस देखता रह गया। उसी पल उसके दिल में कुछ बदल गया।

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अगले दिन से यशवीर का ऑफिस भट्ठे के पास ही बन गया। रचना जब भी काम करती, यशवीर वहीं आस-पास मंडराता। वह उससे बातें करने की कोशिश करता, छोटी-छोटी बातों में मुस्कान ढूंढता। और धीरे-धीरे दोनों की निगाहें एक-दूसरे में खोने लगीं।

रचना पढ़ी-लिखी थी। जब यशवीर ने उससे पूछा कि कौन सा विषय पढ़ा है, तो उसने बेझिझक कहा — “साइंस और मैथ।” यशवीर हैरान रह गया। उसने मज़ाक में कहा, “63 का पहाड़ा सुनाओ।” रचना ने बिना रुके पूरे 100 तक पहाड़े सुना दिए। वह अब सिर्फ़ एक मजदूर नहीं रही, बल्कि उसकी नज़रों में एक ‘चमत्कार’ बन गई।

धीरे-धीरे बातचीत बढ़ी, और एक दिन जब दोनों अकेले मिले, यश ने मज़ाक में कहा कि वह शादीशुदा है। रचना की आंखों से आँसू छलक पड़े। वह टूट गई। तभी यश ने कसम खाई — “मैं तुम्हारे सिर की कसम, मेरी शादी नहीं हुई। मैं सिर्फ़ तुमसे प्यार करता हूं।
दोनों ने एक-दूसरे को गले लगा लिया। लेकिन इसी बीच रचना की मां आ गईं। उन्होंने बेटी को डांटते हुए कहा, “ये बड़े लोग हैं बिटिया, इनके चक्कर में पड़ना सही नहीं। अगर सेठ जी को पता चल गया, तो हम सब जिंदा भट्ठे में झोंक दिए जाएंगे!”

उसके बाद रचना ने दूरी बना ली। पर यश रुकने वाला नहीं था। वह उसके लिए कपड़े, गिफ्ट्स लाता, मिलने की कोशिश करता। लेकिन रचना अब डर के साए में जी रही थी। एक दिन उसकी मां ने हाथ जोड़कर कहा —
साहब, हम गरीब हैं। हमारे पेट पर लात मत मारिए। हमारी बिटिया का पीछा छोड़ दीजिए।

यश ने हार नहीं मानी। उस रात उसने अपने पिता से कहा — “पापा, मुझे शादी करनी है।”
धनराज सिंह ने मुस्कराते हुए पूछा, “कौन सी लड़की?”
“भट्टे पर काम करने वाली रचना,” यश ने जवाब दिया।

बस यही सुनते ही हवेलीनुमा घर में तूफ़ान आ गया। मां ने कहा, “भट्टे वाली से शादी करेगा? तुझे किसी ने जादू करा दिया है!”
और सेठ धनराज ने ग़ुस्से में फ़ोन उठाया — “मुंशी जी, अभी बलदेव की बेटी और उसके परिवार को घर लेकर आओ। तुरंत!

रात के ग्यारह बजे, रचना, उसके माता-पिता और मुंशी सेठ के बंगले पहुंचे। सबके चेहरों पर भय था। मां के आंसू थम नहीं रहे थे। वे गिड़गिड़ा रही थीं — “सेठ जी, हमारी बेटी की कोई गलती नहीं। छोटे मालिक खुद उसके पास आते थे। हमें छोड़ दीजिए। हम गांव छोड़ देंगे। बस हमारी जान बख्श दीजिए।

अब सवाल ये था — क्या सेठ धनराज अपने बेटे का प्यार मंज़ूर करेंगे, या उस गरीब परिवार की ज़िंदगी राख में मिल जाएगी?
मेरठ की इस प्रेमकथा ने समाज की हर दीवार को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया —
क्या प्यार की कोई जात होती है? क्या मज़दूर की बेटी अमीर के बेटे का सपना देख सकती है?

इस कहानी का अंत अभी अधूरा है… लेकिन एक बात तय है —
रचना और यशवीर का नाम अब सिर्फ़ भट्टों की राख में नहीं, बल्कि मेरठ की मिट्टी में हमेशा के लिए लिखा जा चुका है।