असलम खान: इज्जत की असली पहचान

गांव की कच्ची गलियों से शहर की पक्की सड़कों तक पहुंचने वाले असलम खान एक साधारण किसान थे, मगर उनके दिल में एक बड़ा ख्वाब था—हज की जियारत। 30 साल तक उन्होंने हर दाना बेचकर, हर मौसम की मार सहकर एक-एक रुपया जोड़ा। उनका बेटा इरफान जिले का मजिस्ट्रेट था, मगर असलम ने कभी बेटे के ओहदे या किसी सिफारिश का सहारा नहीं लिया। उनका हज सिर्फ अपनी मेहनत, अपनी नियत और अपने अल्लाह के लिए था।

एक दिन, अपनी जमा पूंजी और पुराना बस्ता लेकर असलम शहर के आलीशान हज ऑफिस पहुंचे। वहां की चमकदार दीवारों, महंगे कपड़ों और पेशेवर मुस्कान वाले लोगों के बीच उनकी सादगी सबको खटकने लगी। रिसेप्शन पर बैठी लड़कियों ने तंज किया, सिक्योरिटी गार्ड ने सख्ती दिखाई, और अफसरों ने उन्हें फकीर समझकर हिकारत भरी बातें की। किसी ने उनकी नियत नहीं देखी, बस उनके कपड़े, चप्पल और बस्ते को तौला।

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असलम ने सब्र से अपना बस्ता खोला, जिसमें 30 साल की मेहनत से जमा की गई रुपयों की गड्डियां थीं। कमरे में खामोशी छा गई। जिन लोगों ने उन्हें मजाक समझा था, अब शर्म से सिर झुका रहे थे। असलम ने कहा, “मैं किसान हूं, फकीर नहीं। हज अपनी कमाई से करने आया हूं।” फिर उन्होंने सबको आईना दिखाया, “अगर मेरे पास पैसे ना होते, तो क्या तब भी यही रवैया होता?” उनका सवाल सबके दिल तक उतर गया।

ऑफिस के सीनियर मैनेजर ने माफी मांगी, वीआईपी सेवा देने की पेशकश की, मगर असलम ने ठुकरा दिया। “गलती यह नहीं कि तुम मेरे बेटे का ओहदा नहीं जानते थे, असल गलती यह थी कि तुमने मुझे इंसान नहीं समझा।” वह वहां से चले गए, पीछे छोड़ गए शर्मिंदगीगी, पछतावा और एक गहरी सीख।

असलम खान ने एक पुराने मोहल्ले के सादे हज कंसलटेंसी में जाकर रजिस्ट्रेशन कराया। वहां के नौजवानों ने बिना शक, बिना सवाल, सिर्फ उनकी नियत पर भरोसा किया। “पैसे बाद में दे देना, आपकी मौजूदगी ही हमारे लिए इज्जत है।” असलम की आंखें भीग गईं, उन्हें एहसास हुआ—इज्जत लिबास में नहीं, दिल में होती है।

गांव लौटकर असलम ने किसी को अपने साथ हुए तजलील का जिक्र नहीं किया। मस्जिद में सबसे पहले पहुंचते, सफाई करते, बच्चों को हज की कहानियां सुनाते। गांव के लोग अब उन्हें सिर्फ किसान नहीं, बल्कि इज्जत का प्रतीक मानते थे। एक दिन किसी ने उनका वीडियो दिखाया, जिसमें हज ऑफिस में सबको आईना दिखाया गया था। असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “मैं बदला लेने नहीं गया था, बस हज की नियत से निकला था।”

हज की रवानगी के दिन गांव में जश्न सा माहौल था। बच्चों ने उनका बस्ता साफ किया, औरतों ने दुआओं के साथ खजूरें दीं। मस्जिद में सबने उन्हें गले लगाया, मौलवी साहब ने कहा, “आप हमारे गांव की इज्जत हैं।” असलम खान ने बस के शीशे से झांकते हुए कहा, “हज की नियत तस्वीर से नहीं, दिल से होती है।”

शहर का हज ऑफिस अब सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका था। डीएम के वालिद की तौहीन पर पूरे शहर में गुस्सा था, कई कर्मचारी सस्पेंड हो गए। मगर असलम को इन सब से फर्क नहीं पड़ा। उनका मकसद हज था, अल्लाह का बुलावा और इंसानियत की सेवा।

हज के दौरान असलम सादगी से हर मंसक अदा करते, बच्चों को पानी पिलाते, जूते सीधा करते। अराफात की दोपहर में दुआ मांगी, “या अल्लाह, जिन्होंने मेरा दिल दुखाया उन्हें माफ कर दे।” गांव लौटने पर सबने उन्हें गले लगाया, इज्जत दी और कहा, “आपने हमें इंसानियत का रास्ता दिखाया।”

आज भी असलम खान वही पुरानी चप्पल पहनते हैं, वही बस्ता उठाते हैं। मगर उनकी कहानी लाखों दिलों में जिंदा है—एक चिराग बनकर, जो अंधेरे में रोशनी बांटता है। उन्होंने दुनिया को सिखा दिया, इज्जत कपड़ों से नहीं, नियत और इंसानियत से मिलती है।