यूसुफ और नसीरीन की कहानी: उम्मीद का एक नया सवेरा
अलीगढ़ की तंग गलियों में यूसुफ, नसीरीन और उनके दो बच्चों, अहमद और सारा, का एक साधारण सा घर था। यह घर जर्जर था, लेकिन उसमें मोहब्बत और ईमान की रोशनी थी। यूसुफ हर दिन अपने पुराने रिक्शे पर सवार होकर काम पर निकलता। उसकी मुस्कान कभी फीकी नहीं पड़ती, भले ही अमीर लोग उसकी तरफ देखकर नजरें झुका लेते। नसीरीन मोहल्ले में जाकर कपड़े धोती और बर्तन मांझती, कभी-कभी कुछ पैसे कमा लेती।
उनका खाना अक्सर दाल, प्याज और आलू की भुजिया तक सीमित होता। नसीरीन कहती, “कल अल्लाह कुछ बेहतर करेगा।” अहमद, जो अपनी उम्र से ज्यादा समझदार था, अपनी छोटी बहन सारा को हंसाता ताकि भूख का एहसास कम हो सके। यूसुफ की थकान बच्चों की हंसी सुनकर मिट जाती थी।
लेकिन गरीबी का बोझ दिन-ब-दिन बढ़ रहा था। किराया छह महीने से नहीं भरा गया था, और दुकानदार अब उधार देने से भी मना कर रहे थे। यूसुफ अक्सर सोचता कि अगर उसके रिक्शे का पहिया टूट गया तो वह अपने बच्चों को खिलाएगा कैसे। नसीरीन हमेशा कहती, “हमारी मेहनत कभी बेकार नहीं जाएगी।”
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एक दिन, जब यूसुफ अपने रिक्शे पर काम से लौट रहा था, अचानक दरवाजे पर जोर से दस्तक हुई। मकान मालिक, राजेश वर्मा, गुस्से से खड़ा था। उसने कहा, “कल तक किराया दो, वरना घर खाली कर दो!” यूसुफ ने सर झुकाकर कहा, “मैं कल कुछ कर लूंगा।” लेकिन राजेश ने उसकी बात काट दी और दरवाजा बंद कर दिया।
यूसुफ और नसीरीन ने अपने बच्चों को संभाला। नसीरीन ने कहा, “जहां अल्लाह का साया है, वही घर है।” उस रात, यूसुफ ने दुआ की, “या अल्लाह, मेरे बच्चों को भूख से बचा।”

सुबह, यूसुफ ने फिर से रिक्शा चलाने का फैसला किया। आज उसे उम्मीद थी कि अल्लाह कुछ करेगा। एक बुजुर्ग महिला ने रिक्शा रोका और कहा, “बेटा, किराया नहीं दे सकती।” यूसुफ ने कहा, “आप मेरी मां जैसी हैं, बैठ जाइए।” वह महिला मुस्कुराई और यूसुफ को दुआ दी।
जब यूसुफ ने उसे गंतव्य पर पहुंचाया, तो महिला ने कहा, “अल्लाह तुम्हें आसानियाँ दे।” यूसुफ ने उसकी दुआ को अपने दिल में बसा लिया।
कुछ देर बाद, यूसुफ ने देखा कि महिला का थैला रिक्शे पर रह गया है। उसने थैला खोला और उसके अंदर हजार के नए नोटों का ढेर था। उसकी आंखों में आंसू आ गए। यह वही दुआ थी जो उसने रात में मांगी थी।
यूसुफ ने अपनी पत्नी नसीरीन और बच्चों को बुलाया। सबने मिलकर अल्लाह का शुक्र अदा किया। नसीरीन ने कहा, “यह दौलत नहीं, अल्लाह की रहमत है।”
वे तुरंत नए घर की तलाश में निकल पड़े। उन्होंने एक नया घर पाया और पहली बार उस घर में दाखिल होते वक्त यूसुफ की आंखों से आंसू बह निकले। अब उनके पास एक छत थी, जहां वे फिर से जी सकते थे।
नसीरीन ने एक छोटी दुकान खोली और यूसुफ ने नया रिक्शा खरीदा। अहमद ने स्कूल में दाखिला लिया और सारा ने नई यूनिफार्म पहनकर खुशी से झूम उठी।
यूसुफ ने बच्चों को सिखाया कि “दौलत इम्तिहान है, लेकिन दुआ हमेशा साथ रहती है।” उन्होंने अपनी मेहनत और ईमानदारी से सब कुछ हासिल किया।
इस प्रकार, यूसुफ और नसीरीन की कहानी एक नई शुरुआत बन गई। उन्होंने सीखा कि “गरीबी से हार नहीं माननी चाहिए, बल्कि ईमानदारी और मेहनत से आगे बढ़ना चाहिए।”
उनकी जिंदगी में अब खुशियाँ थीं, और वे हमेशा अल्लाह का शुक्र अदा करते थे। यह कहानी हमें सिखाती है कि कभी भी उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि अल्लाह हमेशा अपने बंदों की सुनता है।
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