कूड़ा बीनने वाला सूरज निकला ‘मैथ्स जीनियस’: जब फटे हाल बच्चे ने सुलझाया वो सवाल जिसे दुनिया के बड़े प्रोफेसर 15 साल में न कर सके!

कहते हैं कि हीरे की असली परख जौहरी को ही होती है। लेकिन जब एक हीरा कूड़े के ढेर में मिले और अपनी चमक से पूरी दुनिया को चकाचौंध कर दे, तो वह चमत्कार बन जाता है। यह कहानी एक ऐसे ही ‘सूरज’ की है जिसने अभावों के अंधेरे को चीरकर गणित की दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।


चमक-धमक के बीच एक धुंधली परछाई

शहर का सबसे आलीशान और महंगा स्कूल— ‘आर्यभट्ट इंटरनेशनल स्कूल’। यहाँ की सुबह महंगी गाड़ियों के शोर और ब्रांडेड जूतों की खनक से शुरू होती थी। अमीरों के लाडले यहाँ ज्ञान खरीदने आते थे। लेकिन इसी स्कूल की चकाचौंध से दूर, कूड़े के ढेर के पास एक 12 साल का लड़का खड़ा रहता था— सूरज

फटी हुई कमीज, बिखरे बाल और पैरों में अलग-अलग रंग की घिसी हुई हवाई चप्पलें। सूरज का काम था स्कूल के बाहर से प्लास्टिक की बोतलें और रद्दी चुनना। लोग उसे देखकर अपना रास्ता बदल लेते थे, कोई उसे दुत्कारता था, तो कोई डंडा मारकर भगा देता था। लेकिन किसी को नहीं पता था कि उस गंदे बोरे को ढोने वाले कंधों के ऊपर एक ऐसा दिमाग है जो आइंस्टीन और रामानुजन की टक्कर का था।

.

.

.

प्रोफेसर दिग्विजय और ‘द इम्पॉसिबल इक्वेशन’

स्कूल के अंदर का माहौल आज तनावपूर्ण था। गणित के सबसे सख्त टीचर प्रोफेसर दिग्विजय सिंह अपनी 12वीं की क्लास में थे। दिग्विजय सर के बारे में मशहूर था कि उनके सवाल हल करना तो दूर, उन्हें समझना भी सबके बस की बात नहीं थी।

गुस्से में भरे प्रोफेसर ने ब्लैकबोर्ड पर एक ऐसा उलझा हुआ सवाल लिखा जो ‘क्वांटम मैथ्स’ और ‘फॉर्मेट्स लास्ट थ्योरम’ का मिला-जुला रूप था। उन्होंने चौक पटकते हुए पूरी क्लास को चुनौती दी, “मैंने अपनी जवानी के 15 साल इस एक समीकरण (Equation) को हल करने में लगा दिए, लेकिन यह आज भी अधूरा है। मैं तुम रईस बच्चों को चैलेंज देता हूँ—अगर कल सुबह तक किसी ने इसे हल कर दिया, तो मैं अपनी नौकरी छोड़ दूँगा और उसे अपनी सोने की घड़ी इनाम में दूँगा!”

क्लास के टॉपर से लेकर हर छात्र के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। वह सवाल किसी पहेली की तरह नहीं, बल्कि एक भूलभुलैया की तरह लग रहा था।

रात का सन्नाटा और खिड़की से झांकता ‘जीनियस’

सूरज अक्सर खिड़की की जाली से लगकर क्लास की बातों को सुनता था। उसे कूड़े में मिले नंबरों के पैटर्न और गाड़ियों की नंबर प्लेट्स में गणित दिखता था। जब सब चले गए, सूरज ने उस सवाल को देखा। उसके लिए वह सवाल डरावना नहीं, बल्कि एक संगीत की धुन जैसा था।

रात के 2 बजे, जब दुनिया सो रही थी और सूरज के घर में गरीबी का सन्नाटा पसरा था, वह चुपके से स्कूल में घुसा। अंधेरे क्लासरूम में स्ट्रीट लाइट की हल्की रोशनी बोर्ड पर पड़ रही थी। सूरज ने कांपते हाथों से चौक उठाई।

अगले तीन घंटों तक उस अंधेरे कमरे में सिर्फ एक ही आवाज गूँजती रही— चौक के बोर्ड पर चलने की ‘खट-खट’। सूरज भूल गया कि उसे भूख लगी है, वह भूल गया कि वह एक भिखारी जैसा दिखने वाला बच्चा है। उसने समय, हवा की गति और ब्रह्मांड के नियमों को गणित के सूत्रों में पिरो दिया। उसने वह रास्ता खोज लिया जिसे प्रोफेसर 15 साल में नहीं ढूंढ पाए थे। अंत में उसने एक बड़ा सा बॉक्स बनाया और उत्तर लिखा— शून्य (Zero)

अविश्वास और चमत्कार की सुबह

अगली सुबह जब प्रोफेसर दिग्विजय क्लास में आए, तो उनके होश उड़ गए। बोर्ड भरा हुआ था और हर स्टेप बिल्कुल सटीक था। उनकी आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने चिल्लाकर पूछा, “यह किसने किया? किसकी इतनी हिम्मत हुई?” जब सीसीटीवी फुटेज देखा गया, तो सबकी आँखें फटी की फटी रह गई। एक फटे हाल लड़का, जिसे सब कूड़ा बीनने वाला समझते थे, वही इस महान उपलब्धि का रचयिता था।

जब प्रोफेसर ने झुकाया सिर

सूरज को जब स्टाफ रूम में लाया गया, तो वह डर से कांप रहा था। उसे लगा कि शायद उसे पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा। लेकिन प्रोफेसर दिग्विजय अपनी कुर्सी से उठे और सूरज के धूल से सने हाथों को चूम लिया। उन्होंने कहा, “बेटा, तुमने कुछ चुराया नहीं, तुमने तो मुझे मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी खोज दे दी है।”

प्रोफेसर उसे उसी क्लास में ले गए जहाँ अमीर बच्चे बैठे थे। दिग्विजय सर ने अपनी सोने की घड़ी उतारी और सूरज की कलाई पर बाँध दी। उन्होंने पूरी क्लास के सामने घोषणा की, “आज से यह लड़का कूड़ा नहीं उठाएगा, आज से यह कलम उठाएगा। इसकी हर जिम्मेदारी मेरी है।”

समाज के लिए एक बड़ा संदेश

सूरज की यह कहानी हमें कई महत्वपूर्ण बातें सिखाती है:

प्रतिभा किसी की जागीर नहीं: ज्ञान महलों की चकाचौंध में नहीं, बल्कि लगन और तपस्या में बसता है।

दृष्टिकोण का फर्क: जहाँ समाज ने सूरज को ‘कचरा’ समझा, वहीं गणित ने उसे अपना ‘सरताज’ बना लिया।

एक शिक्षक की भूमिका: अगर प्रोफेसर दिग्विजय अपनी ईगो (अहंकार) को ऊपर रखते, तो शायद सूरज का टैलेंट उस दिन दम तोड़ देता। एक सच्चे गुरु ने ही असली हीरा पहचाना।

निष्कर्ष: एक नई शुरुआत

सूरज ने अपना पुराना बोरा वहीं डस्टबिन में फेंक दिया। वह बोरा उसकी पुरानी जिंदगी का प्रतीक था। आज वह सूरज की तरह चमक रहा था। हमारे देश में न जाने कितने ऐसे ‘सूरज’ गरीबी की गर्त में दबे हैं। जरूरत है तो बस एक ऐसी नजर की जो कूड़े में भी हीरा पहचान सके।

गरीब होना कोई पाप नहीं है, लेकिन प्रतिभा को गरीबी की भेंट चढ़ने देना समाज का सबसे बड़ा अपराध है। सूरज ने साबित कर दिया कि असली दौलत बैंक बैलेंस नहीं, बल्कि ज्ञान और लगन है।