शंभू काका: एक मामूली चपरासी, जिसने इंसानियत की मिसाल कायम कर दी

दिल्ली।
किसी स्कूल की चारदीवारी में सबसे बड़ा कौन होता है? चमचमाती गाड़ियों में आने वाले बच्चे, रौबदार प्रिंसिपल, या फिर पढ़े-लिखे शिक्षक? शायद नहीं। असली महानता तो अक्सर उन लोगों में छुपी होती है, जिनकी मौजूदगी को हम नजरअंदाज कर देते हैं—जैसे स्कूल के एक साधारण से चपरासी, शंभू काका।

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एक सूखी रोटी की कीमत

दिल्ली के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल “दिल्ली पब्लिक हेरिटेज स्कूल” में शंभू काका पिछले 30 सालों से चपरासी थे। उम्र 60 पार, शरीर बूढ़ा, पर दिल में पिता की ममता और इंसानियत का जज़्बा हमेशा जवान। उनकी अपनी जिंदगी बहुत छोटी थी—बीमार पत्नी, किराए का कमरा, और सीमित तनख्वाह। लेकिन बच्चों के लिए उनका प्यार बेशुमार था।

एक दिन उन्होंने देखा—स्कूल में दाखिला पाए एक गरीब बच्चा मोहन, जो अपनी किताबों में आंखें गड़ाए रहता, लंच ब्रेक में हमेशा अकेला बैठा रहता था। उसके पास लंच नहीं था, बस भूख और खामोशी। शंभू काका का दिल पसीज गया। अगले दिन से उन्होंने अपनी आधी रोटी मोहन के साथ बांटनी शुरू कर दी। वह झूठ बोलते—”आज पत्नी ने ज्यादा रोटियां दे दी हैं, बेटा, अकेले नहीं खा पाऊंगा।”

ममता की छांव में बदली किस्मत

यह सिलसिला महीनों चला। शंभू काका ने मोहन को पिता जैसा स्नेह दिया, उसका अकेलापन दूर किया। मोहन पढ़ाई में और भी तेज हो गया, पर यह दोस्ती स्कूल के अनुशासनप्रिय प्रिंसिपल शर्मा को रास नहीं आई। उन्होंने शंभू काका को चेतावनी दी—”छात्रों से दूरी रखो, वरना नौकरी जाएगी।” लेकिन शंभू काका ने मोहन को खाना खिलाना नहीं छोड़ा।

वार्षिक समारोह में खुला राज

स्कूल के वार्षिक समारोह में शहर के सबसे बड़े उद्योगपति राजवंश सिंघानिया मुख्य अतिथि थे, जिनका इकलौता बेटा आठ साल पहले किडनैप हो गया था। जब मोहन को मंच पर बुलाया गया, सिंघानिया दंपत्ति की नजरें उस पर टिक गईं। मोहन की गर्दन पर एक खास जन्मचिन्ह देखकर उनका दिल दहल उठा—यह वही निशान था, जो उनके खोए बेटे रोहन के पास था। डीएनए टेस्ट हुआ और सच्चाई सामने आई—मोहन ही उनका बेटा रोहन था।

इंसानियत की जीत

पूरे स्कूल में सनसनी मच गई। प्रिंसिपल शर्मा, जो मोहन को बोझ समझते थे, शर्म से जमीन में गड़ गए। सिंघानिया साहब ने मंच से घोषणा की—”स्कूल को पांच करोड़ का दान, लेकिन शर्त यह कि स्कूल की नई ट्रस्ट के चेयरमैन अब शंभू काका होंगे।” शंभू काका को अपने परिवार का हिस्सा बनाया गया, उनकी पत्नी का इलाज करवाया गया, और स्कूल में ऐसी व्यवस्था हुई कि अब कोई बच्चा भूखा न रहे।

कहानी की सीख

शंभू काका ने अपनी आधी रोटी बांटी थी, बदले में उन्हें मिला एक बेटा और इज्जत, जो किसी भी दौलत से बड़ी थी। यह कहानी हमें सिखाती है—पद, पैसा या डिग्री नहीं, बल्कि इंसानियत और निस्वार्थता ही असली महानता है।

अगर शंभू काका की यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर साझा करें। सच्ची इंसानियत की मिसाल हर किसी तक पहुंचे, यही इस कहानी का मकसद है।