बच्चे ने बस एक कचौड़ी मांगी थी, पर दुकानदार ने जो किया उसने इंसानियत को हिला दिया

दोपहर का वक्त था। धूप ज़मीन को झुलसा रही थी और बाज़ार की भीड़ हमेशा की तरह शोर से भरी हुई थी। सब अपने-अपने कामों में व्यस्त थे — कोई सब्ज़ी बेच रहा था, कोई रिक्शा खींच रहा था, कोई जल्दी-जल्दी घर लौट रहा था। उसी भीड़ में एक छोटा-सा ठेला था — रामपाल का कचौड़ी वाला ठेला।

रामपाल पिछले पंद्रह साल से यही काम कर रहा था। दिन भर तली हुई कचौड़ियों की खुशबू से उसका ठेला महकता रहता था। लोगों की भीड़ लगी रहती, पर उसकी ज़िंदगी कभी नहीं बदली — वही मेहनत, वही संघर्ष।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही था, जब अचानक एक कमजोर, दुबला-पतला बच्चा उसके ठेले के सामने आकर खड़ा हो गया। उसके कपड़े फटे हुए थे, पैर नंगे, चेहरा धूल से भरा हुआ। आंखों में बस भूख थी।
वो बोला, “भइया, एक कचौड़ी दे दो…”

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रामपाल ने सख्त आवाज़ में पूछा, “पैसे हैं?”
बच्चा चुप रहा। उसकी आंखों से आँसू टपक पड़े। उसने सिर झुका लिया, “नहीं भइया… तीन दिन से कुछ नहीं खाया।”

आसपास खड़े लोग देखते रहे, पर कोई कुछ नहीं बोला।
रामपाल का दिल पिघल गया। उसने बिना कुछ कहे, गरम तेल से दो कचौड़ियाँ निकालीं, साथ में आलू की सब्ज़ी दी और कहा, “ले बेटा, पहले खा ले। आज पैसे की ज़रूरत नहीं।”

बच्चे की आंखों में चमक आ गई। उसने कांपते हाथों से थाली पकड़ी और ज़मीन पर बैठ गया। हर निवाला वो धीरे-धीरे खा रहा था, जैसे यह किसी राजा का भोज हो। कुछ देर बाद उसने हाथ जोड़े और कहा, “धन्यवाद भइया, भगवान आपका भला करे।”

रामपाल बस मुस्कुरा दिया, “खुश रहो बेटा।”

पर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।

रात को जब रामपाल ठेला समेट रहा था, तो उसने देखा वही बच्चा सड़क के उस पार किसी को कचौड़ी खिला रहा था — एक बूढ़ी औरत को, जो शायद उसकी दादी थी। बच्चा बोला, “भइया ने दी हैं, दादी… गरम हैं, आप पहले खा लो।”

रामपाल की आंखें भर आईं। उसने महसूस किया कि असली अमीरी पैसों में नहीं, बल्कि बांटने में है।

अगले दिन से उसने अपने ठेले पर एक तख्ती लगाई —
“जो भूखा है, यहाँ मुफ्त खा सकता है।”

धीरे-धीरे उसका ठेला पूरे इलाके में मशहूर हो गया। लोग कहते थे, “यह वही रामपाल है, जिसने इंसानियत को ज़िंदा रखा।”

आज भी जब कोई उस ठेले से कचौड़ी खाता है, तो उसकी खुशबू में सिर्फ मसालों की नहीं, बल्कि एक भूखे बच्चे की मुस्कान की कहानी भी बसी होती है।