सरहद पर मासूमियत: भेड़ चराती पाकिस्तानी बच्ची और भारतीय सेना की इंसानियत

राजस्थान की तपती दोपहर, भारत-पाकिस्तान सीमा पर कंटीले तारों के बीच, जवानों की पैनी नजरें हर हलचल पर थीं। अचानक, भेड़ों का एक झुंड सरहद की ओर बढ़ता दिखा। उनके पीछे एक नन्ही बच्ची—जिसकी उम्र मुश्किल से दस साल रही होगी। चेहरे पर डर, कपड़े मैले, हाथ में लकड़ी की लाठी। जवानों ने तुरंत घेरा डाल लिया।
“यह तो पाकिस्तान से आई है, दुश्मन देश की है। पकड़ लो, थाने ले जाओ,” एक जवान की आवाज गूंजी। बच्ची घबरा कर रो पड़ी। “मैं रास्ता भूल गई, भेड़े चराते-चराते इधर आ गई,” उसकी मासूम आवाज में डर और सच्चाई दोनों थे।

लेकिन जवानों को शक था। क्या पता यह कोई चाल हो, बच्ची के रूप में जासूस बनाकर भेजी गई हो? आदेश हुआ—उसे चौकी ले जाओ। बच्ची बार-बार रोती रही, “मुझे छोड़ दो, मेरी अम्मी मेरा इंतजार कर रही होंगी।”
चौकी पर कैप्टन अरुण सिंह सामने आए। 35 साल के अरुण सख्त अनुशासन वाले अफसर थे, लेकिन दिल में इंसानियत थी। उन्होंने कांपती बच्ची को देखा, आंसू पोंछती मासूमियत उनके दिल तक पहुंच गई।
अरुण ने जवानों को डांटा, “शर्म नहीं आती? यह बच्ची है, आतंकवादी नहीं।” जवान चुप हो गए। अरुण ने बच्ची से नाम, पता पूछा। “मेरा नाम सायरा है, पाकिस्तान के गांव धनक से आई हूं। भेड़े चराते-चराते रास्ता भटक गई।”
सायरा गरीब किसान की बेटी थी। घर की हालत इतनी खराब थी कि कई बार दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो जाती। मां बीमार थी, सायरा घर चलाने में मदद करती थी। उस दिन भेड़ों के पीछे-पीछे वह सरहद तक पहुंच गई थी।

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अरुण खुद किसान परिवार से थे। बचपन में उनकी बहन खेलते-खेलते पाकिस्तान की ओर चली गई थी, लेकिन वापस नहीं आई। उसी दर्द ने अरुण को सेना में आने की प्रेरणा दी थी।
अरुण ने सोचा, अगर सायरा भी अपनी मां से दूर हो गई तो उसका भी वही हाल होगा। लेकिन बाकी जवानों ने विरोध किया, “सर, खतरा हो सकता है।”
अरुण बोले, “मैं गारंटी लेता हूं। कोई बच्ची जासूस बनकर नहीं आती। हम सैनिक हैं, पर सबसे पहले इंसान हैं।”

सायरा को थाने लाया गया। उससे नाम, पता, गांव सब पूछा गया। वह बार-बार रोती रही, “मुझे मेरी मां के पास भेज दो।”
अरुण ने आदेश दिया, “पाकिस्तान आर्मी से संपर्क करो, इस बच्ची को सुरक्षित वापस भेजा जाएगा।”

यह खबर मीडिया तक पहुंच गई। हेडलाइंस चली—”भारतीय सेना ने दुश्मन देश की बच्ची को छोड़ा। क्या यह सुरक्षा से खिलवाड़ है?”
टीवी चैनलों पर बहस शुरू हो गई। कुछ आलोचना, कुछ तारीफ। सोशल मीडिया पर भी बवाल मच गया।
लेकिन बॉर्डर के गांवों में तस्वीर अलग थी। लोग बोले, “अरुण साहब ने सही किया। अगर हमारी बेटी गलती से पाकिस्तान चली जाती तो क्या हम नहीं चाहते कि उसे वापस भेजा जाए?”

अगले दिन अरुण खुद सायरा को लेकर बॉर्डर तक गए। पाकिस्तानी सेना के अफसर भी मौजूद थे। सायरा की आंखों में आंसू थे, “अल्लाह आपको खुश रखे अंकल, आपने मेरी जान बचाई।”
अरुण मुस्कुराए, “बेटा, सरहद हमें बांट सकती है, लेकिन इंसानियत हमें जोड़ती है।”

मीडिया जिसने कल आलोचना की थी, आज अरुण की तारीफ कर रही थी।
कैप्टन अरुण ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “अगर बच्चा दुश्मन है तो इंसानियत खत्म हो जाएगी। हमें सरहदों की नहीं, दिलों की रक्षा करनी है।”
सायरा अपने गांव लौटी तो उसकी मां ने उसे गले लगा लिया। गांव के लोग बोले, “भारतीय सेना ने हमारी बेटी को सुरक्षित लौटाया। यही असली जीत है।”

अरुण ने आसमान की ओर देखा और बुदबुदाया, “बहन, आज मैंने किसी और की बेटी को उसकी मां से मिलाया। शायद यही मेरी जिंदगी का मकसद था।”

यह कहानी बताती है—सरहदें बांटती हैं, इंसानियत जोड़ती है। अगर आपको यह लेख पसंद आया, तो शेयर जरूर करें।