संसद में प्रियंका गांधी का ‘रुद्र रूप’: मोदी सरकार की ‘नाम बदलने की सनक’ पर बरसीं— “महात्मा गांधी मेरे परिवार के नहीं, पर देश की आत्मा हैं!”
नई दिल्ली: संसद के गलियारों में आज एक बार फिर इतिहास, गरीबों के हक और सत्ता की कार्यप्रणाली पर तीखी बहस देखने को मिली। अवसर था ‘मनरेगा’ (MGNREGA) कानून में संशोधन और उसके संभावित नाम परिवर्तन से जुड़ा विधेयक। विपक्ष की ओर से कमान संभालते हुए प्रियंका गांधी वाड्रा ने न केवल सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए, बल्कि एक ऐसा भावनात्मक भाषण दिया जिसने सत्ता पक्ष को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।
“नाम बदलने की सनक समझ से परे है”
प्रियंका गांधी ने अपने भाषण की शुरुआत सरकार की ‘नाम बदलने की राजनीति’ पर कड़े प्रहार के साथ की। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि हर योजना का नाम बदलने की यह “सनक” समझ से बाहर है। उन्होंने कहा:
“महात्मा गांधी जी मेरे परिवार के नहीं थे, लेकिन वे मेरे परिवार जैसे ही हैं और इस पूरे देश की यही भावना है। नाम बदलना केवल राजनीति है, लेकिन मनरेगा गरीबों की जीवनरेखा है।”
उन्होंने विधेयक को पेश किए जाने पर अपनी सख्त आपत्ति दर्ज कराई और इसे ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था पर हमला बताया।
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मजदूरों के ‘पत्थर जैसे हाथ’ और ग्रामीण अर्थव्यवस्था
प्रियंका गांधी ने सदन में मनरेगा मजदूरों की जमीनी हकीकत का एक अत्यंत मार्मिक चित्रण किया। उन्होंने कहा कि एक जनप्रतिनिधि के रूप में जब वे अपने क्षेत्र में जाती हैं, तो दूर से ही मनरेगा मजदूर की पहचान हो जाती है। “उनके चेहरे पर झुर्रियां होती हैं और जब आप उनसे हाथ मिलाते हैं, तो उनके हाथ मजदूरी कर-करके पत्थरों की तरह कठोर हो चुके होते हैं।” उन्होंने याद दिलाया कि पिछले 20 वर्षों से मनरेगा ने ग्रामीण भारत को न केवल रोजगार दिया है, बल्कि उसे मजबूत बनाया है। यह एक ऐसा क्रांतिकारी कानून था जिसे सदन के सभी दलों ने सर्वसम्मति से पारित किया था।
राज्यों के अधिकारों का हनन और संघीय ढांचे पर चोट
प्रियंका गांधी ने तकनीकी रूप से विधेयक की खामियों को उजागर करते हुए बताया कि कैसे यह ’73वें संविधान संशोधन’ का उल्लंघन कर रहा है। उन्होंने कहा:
मांग आधारित प्रणाली का अंत: मनरेगा की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि जहाँ रोजगार की मांग होती थी, वहां काम देना अनिवार्य था। लेकिन नए नियमों के तहत केंद्र पहले से ही तय कर लेगा कि कितनी पूंजी कहां भेजी जाएगी।
ग्राम सभाओं का कमजोर होना: पहले ग्राम सभाएं जमीनी हकीकत के आधार पर मांग तय करती थीं, लेकिन अब केंद्र का नियंत्रण बढ़ाया जा रहा है और जिम्मेदारी घटाई जा रही है।
बजट में कटौती: प्रियंका ने डेटा साझा करते हुए बताया कि पहले केंद्र 90% अनुदान देता था, जिसे अब घटाकर 60% किया जा रहा है। इससे उन राज्यों पर बोझ बढ़ेगा जिनका जीएसटी (GST) बकाया पहले से ही केंद्र के पास फंसा है।
“125 दिन का काम, पर मजदूरी की बात कहां है?”
सरकार द्वारा कार्य दिवसों को 100 से बढ़ाकर 125 करने के दावे पर भी प्रियंका ने सवाल दागे। उन्होंने कहा कि आप दिन तो बढ़ा रहे हैं, लेकिन वेतन (मजदूरी) में बढ़ोतरी का कोई जिक्र नहीं है। बकाया मजदूरी का भुगतान अभी तक पूरा नहीं हुआ है, ऐसे में खोखले वादों से गरीबों का पेट नहीं भरेगा।
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संसद को सलाह: “किसी की निजी महत्वाकांक्षा पर न चलें”
भाषण के अंत में प्रियंका गांधी ने सदन और अध्यक्ष महोदय से इस विधेयक को वापस लेने या कम से कम ‘स्थाई समिति’ (Standing Committee) के पास गहन जांच के लिए भेजने की मांग की। उन्होंने तीखा कटाक्ष करते हुए कहा:
“कोई भी विधेयक किसी की निजी महत्वाकांक्षा, सनक या पूर्वाग्रहों के आधार पर न तो पेश होना चाहिए और न ही पास होना चाहिए। संसद का कीमती समय जनता की समस्याओं को हल करने के लिए है, न कि केवल नाम बदलने के उत्सव के लिए।”
निष्कर्ष: गरीबों के हक की नई लड़ाई
प्रियंका गांधी का यह भाषण यह साफ करता है कि मनरेगा केवल एक योजना नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत का ‘अधिकार’ है। उनके इस रुख ने कांग्रेस और विपक्ष को एक नया धारदार मुद्दा दे दिया है। अब देखना यह है कि क्या सरकार इस विरोध के बाद अपने कदम पीछे खींचती है या ‘नाम बदलने’ और ‘केंद्रीकरण’ की अपनी नीति पर अडिग रहती है।
साफ है कि आने वाले दिनों में यह मुद्दा संसद से लेकर सड़कों तक गूंजेगा।
लेख की मुख्य विशेषताएं:
प्रभावशाली उपशीर्षक: पाठकों को हर मुद्दे की गहराई समझाने के लिए।
भावनात्मक जुड़ाव: मजदूरों के संघर्ष और महात्मा गांधी के प्रति देश की भावना का वर्णन।
तथ्यात्मक विश्लेषण: बजट आवंटन (90% से 60%) और संवैधानिक संशोधनों का जिक्र।
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