“जिस बच्चे को पुलिस वाले ने सड़क पर पीटा था, उसी की बद्दुआ ने उसे मौत के दरवाजे तक पहुंचा दिया — एक यतीम की आह ने कैसे पलट दी इंसाफ की परिभाषा”

लेख:
दोपहर का वक्त था। तपते सूरज के नीचे एक नाजुक सा बारह साल का लड़का, किरण, कंधे पर पुरानी बोरी लटकाए, नंगे पांव शहर की सड़कों पर चल रहा था। भूख, थकान और तन्हाई उसका साथ निभा रहे थे। मां बहुत पहले गुजर चुकी थी और बाप का दिल का दौरा पड़ते ही संसार से जाना उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी सजा बन गया। अब ना घर था, ना सहारा — बस पेट की आग और जिंदगी की मजबूरी।

किरण दिन भर कूड़े के ढेर से प्लास्टिक और कबाड़ तलाश करता था ताकि शाम तक कुछ रुपये मिल जाएं और दो वक्त की रोटी। मगर उस दिन किस्मत ने उसका इम्तिहान कुछ और तरीके से लिया। जब उसने देखा कि एक आदमी सरकारी इमारत से मोटी बिजली की केबल लेकर भाग रहा है, उसने हिम्मत जुटाकर पास के सिक्योरिटी गार्ड को बताया — “भैया, कोई चोरी कर रहा है।”

लेकिन उस सच्चाई की कीमत उसे इतनी भारी पड़ेगी, यह उसने कभी नहीं सोचा था।
गार्ड ने वायरलेस पर कॉल की, और कुछ मिनटों में वहां पहुंचा शहर का सबसे बदनाम पुलिस इंस्पेक्टर — यशवंत चौहान, जो अपने घमंड और जालिम रवैये के लिए मशहूर था।

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“तूने चोरी की है ना?”
इतना सुनते ही यशवंत ने उस मासूम बच्चे पर बिजली की तरह थप्पड़ जड़ दिया।
लोग देखते रहे, मगर कोई बोलने की हिम्मत न कर सका।
किरण रोता रहा, सिसकता रहा, और आखिर बेहोश होकर सड़क पर गिर गया।
यशवंत की नजर में गरीब हमेशा गुनहगार था — और आज उसने एक बेगुनाह को अपनी क्रूरता से मिट्टी में मिला दिया।

कुछ दिन बीते।
यशवंत अपने घर में उसी गर्व के साथ बैठा था, जैसे कोई बड़ा अपराधी पकड़ लिया हो। लेकिन उस रात उसके गले पर एक अजीब काला निशान उभर आया। पहले छोटा, फिर बढ़ता गया — जैसे कोई अदृश्य जहर उसकी रगों में दौड़ रहा हो।
उसकी पत्नी श्वेता ने डॉक्टरों को बुलाया, पर कोई वजह समझ न आई।
सभी रिपोर्ट्स नॉर्मल — मगर शरीर स्याह होता जा रहा था, नसें फूल रही थीं, और यशवंत दर्द से तड़प रहा था।

डॉक्टर राजीव महेश्वरी ने हैरान होकर कहा,
“सर, यह कोई मेडिकल बीमारी नहीं लगती। जैसे शरीर खुद के खिलाफ लड़ रहा हो।”

अस्पताल से लेकर शहर के बड़े डॉक्टर तक सब हार गए।
आखिर श्वेता उसे एक आश्रम ले गई — जहां संत परमानंद ने उसकी नब्ज थामी और कहा,
“यह बीमारी जिस्म की नहीं, किसी यतीम की बद्दुआ है। जिसने दर्द में सिसकी भरी थी, वही अब इंसाफ की लपट बनकर लौटी है।”

यशवंत की आंखों में उस बच्चे का चेहरा कौंध गया — किरण।
वही बच्चा जिसने सच बोला और सजा पाई।
वही बच्चा जिसकी रूह अब इंसाफ मांग रही थी।

बाबा ने कहा, “अगर जीना चाहते हो तो उस बच्चे को ढूंढो और उसके कदमों में गिरकर माफी मांगो। उसी की जुबान से निकली माफी ही तुम्हें बचा सकती है।”

वर्दी का घमंड, रैंक का अहंकार, सब धूल में मिल गया।
अब यशवंत व्हीलचेयर पर था — और उसकी बीवी श्वेता उसे लेकर शहर के हर कोने में किरण को ढूंढने निकली।

बस अड्डा, पुल, फुटपाथ, कचरे के ढेर — हर जगह पूछताछ हुई, मगर किरण कहीं नहीं मिला।
आखिर जब दिन ढलने लगा, गाड़ी एक कचरा घर के पास पहुंची — और वहीं धुएं और बदबू के बीच एक बच्चा झुका हुआ नजर आया।
वही दुबला-पतला जिस्म, वही पुरानी फटी कमीज़, वही बोरी।

श्वेता ने कांपती आवाज में कहा —
“यशो… वो बच्चा।”

यशवंत की आंखों में आंसू थे, मगर इस बार डर नहीं, पछतावा था।
कुदरत ने उस बच्चे की सिसकी सुनी थी — और आज उसी सिसकी ने एक जालिम इंस्पेक्टर को घुटनों पर ला दिया था।

यह कहानी सिर्फ इंसाफ की नहीं, इंसानियत की याद है —
क्योंकि जब एक यतीम की आह ऊपर तक पहुंचती है, तो वर्दी भी झुक जाती है और ज़ुल्म भी टूट जाता है।