मंदिर की सीढ़ियों पर बरसों पुराना प्यार

सुबह-सुबह एक करोड़पति नौजवान, आशीष, अपनी कंपनी जाने के लिए तैयार था। गाड़ी बाहर खड़ी थी, ड्राइवर इंतजार कर रहा था। लेकिन आशीष ने अचानक कहा, “पहले मंदिर चलो।”
कार मंदिर के सामने रुकी। हल्की धूप, घंटियों की आवाज़ और अगरबत्ती की खुशबू ने माहौल को भक्ति से भर दिया। आशीष मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने लगा, हर कदम के साथ अतीत की यादें उसे घेरने लगीं—वो गरीबी, मां की भूख, पिता की मेहनत, और कॉलेज के दिन जब उसे अपनी औकात का एहसास कराया गया था।

जैसे ही वह मंदिर के भीतर पहुंचा, पूजा करके एक महिला नीचे उतर रही थी। साधारण कपड़े, थकी आंखें, उदास चेहरा—उसकी चाल में दर्द और टूटी उम्मीदें साफ झलक रही थीं। अचानक दोनों की नजरें मिलीं। एक पल के लिए वक्त ठहर गया। महिला की आंखें भर आईं, आशीष भी वहीं रुक गया। यह कोई अनजानी मुलाकात नहीं थी, बल्कि बरसों पुराने रिश्ते का टकराव था।

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महिला ने नजरें झुका लीं, लेकिन हाथ कांप रहे थे। आशीष का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। क्या यह वही राधिका है, जिसके साथ उसने कॉलेज में सपने देखे थे? राधिका मंदिर की सीढ़ियां उतरकर बाहर खड़ी हो गई, लेकिन उसकी आंखों में बेचैनी थी। आशीष ने हिम्मत जुटाकर पुकारा, “राधिका!”
राधिका के कदम रुक गए। उसने पलटकर देखा, दोनों की आंखें भीग गईं। बरसों का दर्द, दूरी, सब एक ही नजर में छलक उठा। आशीष ने कांपते स्वर में पूछा, “यह सच है ना, तुम राधिका ही हो?”
राधिका ने सिर हिला दिया, उसकी पलकों से आंसू गिर पड़े।

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दोनों मंदिर के पास बने चबूतरे पर बैठ गए। बरसों की दूरी के बाद पहली बार वे आमने-सामने थे। राधिका ने गहरी सांस ली और बोली, “आशीष, तुम सोच नहीं सकते इन सालों में मैंने क्या-क्या झेला है। जिस दिन तुम्हारे अपमान के बाद पापा ने मेरा रिश्ता कहीं और तय कर दिया, उसी दिन मेरी जिंदगी बदल गई। शादी के बाद पति की बुरी आदतें, गुस्सा, शराब… सब सहा। चार साल तक नर्क झेला। फिर एक दिन उसका एक्सीडेंट हो गया और मैं अकेली रह गई। ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। मायके आई तो पापा भी पड़ोसियों की बातों से टूट गए। विधवा बेटी को घर पर रखना उन्हें बोझ लगने लगा। मैं रोज-रोज मरती रही।”

आशीष की आंखों में भी आंसू थे। उसने राधिका का हाथ थाम लिया, “राधिका, मुझे नहीं पता भगवान ने यह सब क्यों होने दिया। लेकिन आज मैं हूं और हमेशा रहूंगा।”
राधिका की आंखों में उम्मीद की किरण जगी, लेकिन डर भी था। क्या बीते कल की जंजीरें टूट पाएंगी?

अब बारी आशीष की थी। उसने बताया, “उस दिन जब तुम्हारे पापा ने मुझे अपमानित किया, तो मैंने खुद को पीछे कर लिया ताकि तुम्हारी जिंदगी मुश्किल ना हो। लेकिन उस अपमान ने मेरे अंदर आग जलाई। मैंने पढ़ाई के साथ छोटे-छोटे काम किए, भूखा सोया, लेकिन मेहनत नहीं छोड़ी। धीरे-धीरे छोटी सी कंपनी बड़ी बन गई। आज मेरे पास सब है, लेकिन जब भी अकेला होता हूं तो दिल पूछता है—किसके लिए मेहनत कर रहा हूं? हमेशा तुम्हारा चेहरा सामने आ जाता है।”

राधिका ने कांपते स्वर में कहा, “मैं अब वैसी नहीं रही। समाज मुझे विधवा कहता है, ताने मारता है। मैं तुम्हारे लायक कैसे?”
आशीष ने उसका हाथ कसकर थाम लिया, “अगर उस वक्त तुमने मुझे गरीब जानकर ठुकराया नहीं, तो आज मैं तुम्हें अकेली जानकर कैसे ठुकरा दूं? प्यार कभी परिस्थितियों से छोटा नहीं होता।”

राधिका की आंखों में बरसों का दर्द पिघलकर राहत में बदलने लगा। उसने धीरे से सिर झुका दिया। आशीष मुस्कुराया, “चलो तुम्हारे पापा के पास चलते हैं। इस बार मैं तुम्हें अपनाने आया हूं।”

दरवाजे पर आशीष ने कहा, “अंकल, मैं आपकी बेटी को अकेला नहीं छोड़ना चाहता।”
पिता की आंखों में पछतावे के आंसू थे, “बेटा, आज तू मेरी बेटी को अपना ले, यही मेरा वरदान है।”

कुछ ही समय बाद आशीष और राधिका का विवाह मंदिर की घंटियों के बीच हुआ। राधिका ने बरसों का अकेलापन भुलाकर नया जीवन शुरू किया। आशीष ने भी समझ लिया, असली जीत पैसे की नहीं, प्यार की होती है।

दोस्तों, सच्चा प्यार कभी परिस्थितियों का मोहताज नहीं होता। अगर दिल साफ हो, तो समाज की हर दीवार गिराई जा सकती है। क्या आप भी मानते हैं कि इंसान का मूल्य उसके दिल और कर्मों से आंकना चाहिए?