आराध्या की आखिरी उम्मीद: माँ की साँसों के लिए हुआ सबसे बड़ा सौदा

अस्पताल की ठंडी दीवारें, दवाइयों की गंध और मशीनों की बीप की आवाजें… सब कुछ जैसे आराध्या के दिल पर चोट कर रही थीं। उसकी माँ, एक बूढ़ी औरत, ऑक्सीजन मास्क लगाए निश्चल पड़ी थी। आराध्या, मुश्किल से 22 साल की, फर्श पर बैठी थी। उसकी आँखों में डर, चेहरे पर आँसू और दिल में तूफान था। डॉक्टर ने अभी-अभी कहा था—अगर दो दिन में ऑपरेशन नहीं हुआ, तो शायद माँ बच नहीं पाएगी।

आराध्या के पास सिर्फ ₹1300 थे, जबकि ऑपरेशन के लिए 15 लाख चाहिए थे। उसने रिश्तेदारों, दोस्तों, पड़ोसियों—सबको फोन किया, लेकिन हर बार उम्मीद टूटी। बैंक ने भी लोन देने से मना कर दिया। वह मंदिर के बाहर जाकर भगवान से गुहार लगाने लगी—”माँ को बचा लो, मैं बदले में कुछ भी करने को तैयार हूँ।”

अगले दिन डॉक्टर ने साफ कहा—आज एडवांस जमा करो, वरना इलाज रोकना पड़ेगा। आराध्या टूट चुकी थी। तभी अस्पताल के बाहर एक महंगी कार रुकी। उसमें से निकला विक्रम—एक अमीर आदमी। उसने आराध्या की आँखों में दर्द देखा और पूछा, “अगर मैं तुम्हारी माँ के इलाज के लिए 15 लाख दूँ, तो क्या तुम मेरे साथ चलोगी?”

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आराध्या सन्न रह गई। माँ की साँसें और अपनी अस्मिता—दोनों के बीच जंग थी। उसने पहले मना किया, “मैं अपनी इज्जत का सौदा नहीं कर सकती।” विक्रम मुस्कुराया, “तो फिर तुम्हारी माँ नहीं बच पाएगी।” आराध्या वहीं बैठ गई, टूट गई। लेकिन जब माँ के चेहरे पर मौत की छाया देखी, तो उसने खुद से कहा—”माँ के लिए मैं सब करूँगी।”

विक्रम ने पैसे जमा कर दिए। ऑपरेशन सफल रहा। माँ बच गई। लेकिन अब आराध्या को अपना वादा निभाना था। विक्रम उसे अपने बंगले ले गया। वहाँ उसने कहा, “अब तुम यहीं रहोगी।” आराध्या ने कहा, “मैं आपकी गुलाम नहीं हूँ।” विक्रम ने जवाब दिया, “अगर आभारी हो तो वही करो जो मैं चाहता हूँ, वरना तुम्हारी माँ की सारी मदद वापस ले लूंगा।”

आराध्या के भीतर ज्वाला उठी। उसने माँ के लिए सब सहने का फैसला किया, लेकिन आत्मा बेचने से इंकार कर दिया। उसने विक्रम से कहा, “मैं मेहनत करूंगी, हर रुपया लौटाऊंगी, पर अपनी आत्मा नहीं दूंगी।” विक्रम ने कहा, “यह दान था, अब या तो मेरे साथ रहो या माँ को छोड़ दो।”

रात भर आराध्या सोचती रही। सुबह उसने विक्रम से कहा, “मैं आपकी शर्त नहीं मानूंगी। चाहे जो हो जाए, मैं खुद को नहीं बेच सकती।” विक्रम ने अखबार नीचे रखा और पहली बार उसकी आँखों में सम्मान दिखा। उसने कहा, “तुम जा सकती हो। यह सब एक परीक्षा थी। तुम्हारी माँ के इलाज के पैसे अब दान समझो। जाओ और उनकी देखभाल करो।”

आराध्या के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसने विक्रम के पैर छुए और कहा, “आपने मेरे विश्वास को जिंदा किया है।” अस्पताल पहुंची तो माँ ठीक थी। माँ ने पूछा, “पैसे कहाँ से आए?” आराध्या ने झूठ बोल दिया, “एक संस्था ने मदद की।”

दिन गुजरने लगे। आराध्या ने तय किया कि अब वह अपनी जिंदगी दूसरों की मदद में लगाएगी। उसने एक NGO में काम शुरू किया। वहाँ उसकी लगन, ईमानदारी और दर्द सबको दिखने लगे। एक दिन विक्रम फिर आया। उसने कहा, “मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ मिलकर एक ट्रस्ट चलाओ, ताकि कोई और मजबूरी में अपनी आत्मा का सौदा ना करे।”

आराध्या ने कहा, “अब रिश्ता शर्तों पर नहीं, इंसानियत पर होगा।” उन्होंने मिलकर “माँ की साँसें” नाम का ट्रस्ट बनाया। आराध्या अब हर गरीब मरीज की मदद करती। उसकी माँ स्वस्थ थी। लोग उसे देवी कहते, लेकिन वह जानती थी कि वह बस एक इंसान है जिसने दर्द को ताकत बना लिया है।

उस रात जब ट्रस्ट का उद्घाटन हुआ, आराध्या ने मंच से कहा—”मैं नहीं चाहती कोई और बेटी वह दर्द झेले जो मैंने झेला है। यह ट्रस्ट उसी सोच से बना है कि कोई भी इंसान मजबूरी के आगे अपनी आत्मा ना बेचे।”

अब आराध्या की मुस्कान हर दवा की शीशी में, हर मंदिर की प्रार्थना में, हर बेटी के साहस में बस चुकी थी। उसकी कहानी वहाँ खत्म नहीं हुई क्योंकि वह हर उस इंसान की कहानी में जिंदा रही जो मजबूरी में भी सच्चाई का साथ देता रहा। अब वह सिर्फ अपनी माँ की बेटी नहीं थी, बल्कि हर माँ की उम्मीद बन चुकी थी।