“तलाक के 10 साल बाद पत्नी और बेटी सड़क किनारे चाय बेचती हुई मिली, फिर जो हुआ… | सच्ची जासूसी”
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रिश्तों की कीमत: एक टूटे परिवार की सच्ची कहानी
मित्रों, क्या होगा जब दस साल बाद एक पति, जिसने अपनी पत्नी को तलाक दे दिया था, अचानक सड़क पर निकलते वक्त देखता है कि उसकी पत्नी और उसकी बेटी दोनों एक छोटे से ठेले पर सड़क किनारे चाय बेच रही हैं? उस वक्त उसके कदम रुक जाते हैं, उसका दिल कांप उठता है और उसके दिमाग में अतीत की सारी बातें घूमने लगती हैं। वह सोचता है कि उसने कैसे अपने अहंकार और गलतियों की वजह से अपने ही परिवार को तोड़ दिया था। यह कहानी है उस परिवार की, जो कभी खुशहाल था, लेकिन गलतफहमियों और अहंकार के कारण बिखर गया। आइए जानते हैं इस कहानी का पूरा सच।
कहानी की शुरुआत होती है एक छोटे से परिवार से, जहां पति, पत्नी और उनकी नन्ही सी बेटी खुशी-खुशी अपने छोटे से घर में रहते थे। बेटी की किलकारियों से घर में रौनक रहती थी। पति सुबह काम पर जाता और शाम को लौटकर अपनी बेटी को गोद में उठाता। उसकी हंसी सुनकर घर की सारी थकान मिट जाती थी। पत्नी के लिए यही सुख था कि परिवार पूरा था, सब साथ थे और हर दिन एक नई उम्मीद लेकर बीतता था।
जिंदगी चाहे कितनी भी साधारण थी, लेकिन उसमें अपनापन था। एक-दूसरे का साथ था, जो उनके लिए सबसे बड़ी पूंजी थी। दिन ऐसे ही बीतते गए। लेकिन जैसे-जैसे वक्त बढ़ा, जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगीं। पति कभी-कभी काम से थककर घर आता और चिड़चिड़ा हो जाता। पत्नी चाहती थी कि वह उसके साथ बैठकर बातें करे, बेटी के साथ खेले, लेकिन कई बार वह थकान और तनाव की वजह से गुस्सा कर देता।
पत्नी को लगता था कि अब वह पहले जैसा नहीं रहा। वह उसे महत्व नहीं देता। छोटी-छोटी बातें तकरार में बदलने लगीं और धीरे-धीरे झगड़े होने लगे। बेटी जो मासूम थी, वह मां-बाप की इन बहसों को समझ नहीं पाती थी, लेकिन उसकी आंखें सब देखती थीं। उसका मन डर जाता था जब भी घर में ऊंची आवाजें गूंजती थीं।
पत्नी अक्सर कहती, “तुम घर पर ध्यान नहीं देते, दोस्तों के साथ ज्यादा वक्त बिताते हो।” पति कहता, “मैं दिन-रात मेहनत करता हूं ताकि घर चले। मैं सब कुछ तुम्हारे और बेटी के लिए कर रहा हूं।” लेकिन पत्नी को लगता था कि घर के लिए मेहनत करने से ज्यादा जरूरी है साथ बैठना, बातें करना, एक-दूसरे की भावनाओं को समझना। और यही समझ धीरे-धीरे गायब हो रही थी।
पति भी सोचता था कि उसकी मेहनत की कोई कदर नहीं हो रही। पत्नी भी सोचती थी कि उसका महत्व कम हो गया है। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे, लेकिन आपसी समझ की कमी ने उन्हें गलतफहमियों में डाल दिया।
समय बीतता गया। बेटी बड़ी होती गई, लेकिन झगड़े भी उसी रफ्तार से बढ़ते गए। कभी पैसों को लेकर, कभी रिश्तेदारों की वजह से, कभी घर की छोटी-छोटी बातों पर दोनों के बीच तकरार होती रही। और ये तकरार धीरे-धीरे इतनी गहरी हो गई कि रिश्ते में दरार पड़ने लगी। जो प्यार कभी उनकी ताकत था, वह अब कमजोरी में बदलने लगा। रिश्ते की डोर ढीली होने लगी और दोनों के बीच खामोशी बढ़ती गई।
पत्नी कई बार सोचती कि काश पहले की तरह सब कुछ ठीक हो जाए। वह अपने पति की आंखों में पहले वाली चमक ढूंढती, लेकिन वहां अब सिर्फ दूरी नजर आती। पति भी कभी-कभी अकेले बैठकर सोचता कि क्यों हर बात अब झगड़े में बदल जाती है, क्यों अब हंसी-ठिठोली नहीं बची? लेकिन उसका अहंकार उसे रोक देता कि वह पत्नी से माफी मांगे या उसे मनाए। यही चुप्पी धीरे-धीरे जहर की तरह उनके रिश्ते को खोखला कर रही थी।
एक दिन बात इतनी बढ़ गई कि दोनों ने तलाक का फैसला कर लिया। अदालत की चौखट पर खड़े होकर उन्होंने एक-दूसरे की तरफ देखा, लेकिन उस नजर में प्यार की जगह गुस्सा और दर्द था। बेटी मासूम आंखों से सब देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके घर को किसकी नजर लग गई। उसका मन बस इतना समझ पा रहा था कि अब उसका घर दो हिस्सों में बंट गया है।
तलाक के बाद पत्नी बेटी को लेकर अकेली रह गई। पति अपनी राह पर निकल गया, लेकिन पीछे छोड़ गया खालीपन और गहरी चोट। पत्नी का दिल टूटा, लेकिन उसने बेटी को देखकर खुद को संभाला। बेटी का चेहरा उसे बार-बार यही कहता था कि वह हार नहीं मान सकती। उसने अपने दुख को दबाकर बेटी की मुस्कान के लिए जीना शुरू किया।
बेटी भी मासूमियत में यही सोचती कि शायद एक दिन पापा वापस आएंगे। लेकिन वक्त तो आगे बढ़ता है, वह रुकता नहीं, और यही वक्त उन्हें आगे धकेलता चला गया।
तलाक के बाद जिंदगी जैसे रुक सी गई थी। उस औरत के पास ना कोई सहारा था, ना कोई मददगार। पति ने अपनी राहें अलग कर लीं और रिश्तेदार भी धीरे-धीरे किनारा करने लगे। क्योंकि समाज की यही आदत होती है, जब इंसान खुशहाल हो तो सब साथ रहते हैं, लेकिन जब जिंदगी मुश्किलों में गिर जाए तो वही लोग दूर चले जाते हैं।
उस औरत के पास बस उसकी छोटी सी बेटी ही रह गई थी। बेटी की मासूम आंखें बार-बार यही सवाल करती थीं, “मां, अब हमारा क्या होगा?” लेकिन मां जानती थी कि बच्ची के सामने रोना कमजोरी होगी। उसने अपनी आंखों से आंसू पोंछ लिए और ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह अपनी बेटी को भूखा नहीं सोने देगी।
शुरुआत में उसने इधर-उधर काम ढूंढने की कोशिश की, लेकिन हर जगह से नकार मिला। कभी कोई कह देता कि औरत का काम यह नहीं है, कभी कोई उसकी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश करता। वह टूटने लगी, लेकिन बेटी का चेहरा देखते ही फिर संभल जाती।
आखिरकार एक दिन उसने सोचा कि क्यों ना सड़क किनारे एक छोटी सी दुकान लगाई जाए ताकि वह खुद मेहनत करके अपनी बेटी का पेट पाल सके। उसने पुराने बर्तन निकाले, थोड़ा उधार लेकर एक छोटा सा ठेला बनवाया, एक स्टोव और कुछ गिलास खरीदे और चाय बनाना शुरू कर दिया।
सुबह होते ही वह चाय का पानी चढ़ा देती। राह चलते लोग आते और चाय पीकर चले जाते। पहले दिन बहुत मुश्किल थी। उसे समझ नहीं आता था कि लोगों से कैसे बात करें, डर भी लगता था। लेकिन बेटी उसकी मदद के लिए वहीं खड़ी रहती। कभी गिलास पकड़ाती, कभी बर्तन साफ करती।
मां-बेटी का यह संघर्ष शुरू हो गया। धीरे-धीरे लोग उसे पहचानने लगे। कोई कहता, “इस औरत की चाय बहुत अच्छी है,” तो कोई कहता, “इसकी मेहनत देखकर दिल पिघल जाता है।” धीरे-धीरे दुकान चलने लगी, लेकिन पैसे इतने नहीं बनते थे कि जिंदगी आराम से कट सके। दिनभर की मेहनत के बाद भी कभी-कभी उन्हें दो वक्त का खाना भी पूरा नहीं मिल पाता।
लेकिन उस औरत ने कभी हार नहीं मानी। बेटी छोटी थी, लेकिन मां का दुख समझती थी। जब मां थक कर बैठ जाती तो वह उसके पास आकर कहती, “मां, मैं बड़ी होकर आपकी सारी तकलीफें खत्म कर दूंगी।” यह सुनकर मां के दिल में नया हौसला भर जाता।
समाज के लोग अक्सर ताने भी मारते, “देखो वह औरत सड़क किनारे चाय बेच रही है,” कभी कोई कह देता, “इसका पति इसे छोड़ गया तो इसमें जरूर कुछ कमी होगी।” ऐसे तानों को सुनकर उसका दिल टूट जाता, लेकिन वह सब सह जाती क्योंकि उसे पता था कि अगर वह कमजोर पड़ गई तो बेटी का भविष्य अंधेरे में चला जाएगा।
इसलिए उसने तानों को सहना सीख लिया और चुपचाप अपने काम में लग गई।
साल दर साल बीतते गए। बेटी अब थोड़ी बड़ी हो गई थी और मां का हाथ बंटाने लगी। सुबह स्कूल जाती और दोपहर के बाद दुकान पर आ जाती। मां दिन-रात पसीना बहाकर पैसे जोड़ती रही ताकि बेटी की पढ़ाई ना रुके। बेटी ने भी मां की मेहनत देखकर पढ़ाई में पूरी जान लगा दी।
उसका सपना था कि एक दिन वह मां को इस सड़क किनारे की जिंदगी से निकालकर अच्छे घर में ले जाए, मां को चैन की नींद दिलाए।
समय के साथ सालों का सफर तय होता गया। मां और बेटी की जिंदगी में संघर्ष कम नहीं हुए, लेकिन उम्मीद का दीपक कभी बुझा नहीं। मां ने बेटी को अच्छे स्कूल में पढ़ाया और उसके लिए दिन-रात मेहनत की। बेटी ने भी मां की मेहनत देखकर कभी ढिलाई नहीं की और पढ़ाई में हमेशा अच्छा करती रही।
धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी। अब वह 12वीं क्लास में थी और उसके सपने और भी बड़े हो चुके थे। उसका मन कहता था कि वह पढ़-लिखकर कोई अच्छी नौकरी करेगी ताकि मां को फिर कभी चाय की दुकान पर खड़ा ना होना पड़े।
मां दिन-रात बेटी की किताबें खरीदने के लिए मेहनत करती थी। कभी रात को खुद भूखी सो जाती, लेकिन बेटी की किताबें और फीस में कमी नहीं आने देती।
एक दिन स्कूल में बेटी को शहर के बड़े कॉलेज में दाखिले का मौका मिला। उसके अंक इतने अच्छे आए थे कि सब अध्यापक उसकी तारीफ करने लगे। लेकिन साथ ही सामने एक बड़ी चिंता खड़ी हो गई कि इतने बड़े कॉलेज की फीस मां कहां से भरेगी।
मां को यह सुनकर खुशी भी हुई और चिंता भी। वह सारी रात सोचती रही कि आखिरकार बेटी के सपने को पूरा कैसे किया जाए।
अगले दिन वह दुकान पर बैठी थी। तभी एक पुराना ग्राहक आया और उसने कहा, “बहन, अगर तुम्हें सच में पैसे की जरूरत है तो मैं तुम्हें थोड़ा उधार दे सकता हूं।”
मां पहले तो झिझकी क्योंकि उसे पता था कि उधार लेना आसान है, लेकिन चुकाना बहुत मुश्किल। लेकिन जब उसने बेटी की आंखों में उम्मीद देखी तो उसने हिम्मत जुटाई और पैसे लेने का फैसला किया।
बेटी कॉलेज में दाखिला पा गई। मां ने अपने जीवन की सबसे बड़ी जीत महसूस की। उसने सोचा कि अब धीरे-धीरे बेटी की मेहनत रंग लाएगी और जिंदगी बदल जाएगी।
लेकिन कॉलेज का माहौल अलग था। वहां अमीर घरों के बच्चे पढ़ते थे जो बड़े-बड़े कपड़े पहनते और गाड़ियों में आते। बेटी साधारण कपड़े पहनकर जाती और कभी-कभी शर्म से सिर झुका लेती।
मां ने उसे समझाया कि बेटी, कपड़े से नहीं इंसान की मेहनत और हुनर से पहचान होती है। तू बस पढ़ाई में मन लगा, बाकी सब अपने आप होगा।
बेटी ने मां की बात को दिल से माना और और भी ज्यादा मेहनत करने लगी।
धीरे-धीरे साल बीते। बेटी ने पढ़ाई पूरी कर ली और अच्छे अंकों के साथ ग्रेजुएशन कर लिया। अब उसके सामने नौकरी की चुनौती थी। मां ने फिर हौसला दिया।
बेटी ने कई जगह इंटरव्यू दिए, लेकिन हर जगह उसे यही सुनने को मिला कि अनुभव चाहिए। अनुभव कहां से लाए? कोई नौकरी दे तब तो अनुभव बने।
मां की आंखों में मायूसी थी, लेकिन बेटी ने कहा, “मां, आप चिंता मत करो, मैं कोशिश करती रहूंगी।”
कई महीने बीत गए। चाय की दुकान से घर का खर्च चल रहा था, लेकिन बेटी का सपना अभी अधूरा था।
तभी एक दिन उसे शहर की एक बड़ी कंपनी से कॉल आया और इंटरव्यू के लिए बुलाया गया।
बेटी घबराई हुई थी। मां ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और कहा, “तू डर मत। तेरी मेहनत ही तेरी ताकत है। जा और अपने सपने को हकीकत बना।”
बेटी वहां गई और घंटों तक इंटरव्यू चला। जब वह घर लौटी तो बहुत चुप थी। मां ने पूछा, “बेटा, क्या हुआ?”
उसने धीरे से कहा, “मां, मुझे नौकरी मिल गई है।”
मां की आंखों से आंसू बह निकले। उसने बेटी को गले लगा लिया और बोली, “आज मेरी सारी मेहनत सफल हो गई।”
बेटी ने नौकरी शुरू की और पहली तनख्वाह से मां के लिए एक नई साड़ी लेकर आई। मां ने जब वह साड़ी हाथ में ली, तो उसकी आंखें भर आईं। उसने बेटी को गले लगाकर कहा, “बेटा, आज मुझे लगता है जैसे मेरी जिंदगी की सारी तकलीफें खत्म हो गईं।”
बेटी ने कहा, “मां, यह तो बस शुरुआत है। अब देखना मैं आपको इतना खुश रखूंगी कि आप अपने सारे दुख भूल जाओगी।”
समय ने करवट ली। बेटी की नौकरी आगे बढ़ती गई और वह कंपनी में एक बड़ी पद पर पहुंच गई। अब वह मां को आराम देना चाहती थी। उसने कहा, “मां, अब आप दुकान पर मत बैठा कीजिए।”
लेकिन मां ने मुस्कुरा कर कहा, “बेटी, यह दुकान मेरी पहचान है। इसे छोड़ना मेरे लिए आसान नहीं है। लेकिन अब मैं रोज-रोज नहीं जाऊंगी, कभी-कभी ही बैठूंगी।”
अब जिंदगी में खुशियां लौट आई थीं। मां ने अपने संघर्ष से बेटी का भविष्य बनाया और बेटी ने अपनी मेहनत से मां का सहारा बनकर दिखाया।
लेकिन मित्रों, जिंदगी कभी भी सीधी राह नहीं देती। कभी-कभी खुशियों के बीच दुख का बादल भी घिर आता है और वही हुआ।
कुछ साल बाद मां अचानक बीमार पड़ गई। डॉक्टर ने कहा कि बीमारी गंभीर है और इलाज में बहुत खर्च होगा। बेटी टूट गई। उसने सोचा कि जिसने अपनी पूरी जिंदगी उसके लिए झोंक दी, आज अगर वह उसके लिए कुछ न कर सके तो उसकी मेहनत व्यर्थ होगी।
उसने अपने सारे पैसे इलाज में लगा दिए और दिन-रात मां के पास बैठी रही।
मां ने एक दिन कमजोर आवाज में कहा, “बेटी, मैं अब ज्यादा दिनों की मेहमान नहीं हूं। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि तूने मेरा सपना पूरा कर दिया। अब मैं चैन से जाऊंगी।”
बेटी रोती रही और बोली, “मां, ऐसा मत कहो, मैं आपको कभी जाने नहीं दूंगी।”
लेकिन वक्त का पहिया किसी के हाथ में नहीं होता। कुछ महीने संघर्ष करने के बाद मां ने बेटी का हाथ पकड़ कर अंतिम सांस ली और यह कह कर चली गई, “बेटी, तू हमेशा सच्चाई और मेहनत के रास्ते पर चलना और कभी किसी का बुरा मत करना।”
बेटी के दिल पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उसने मां की आखिरी बात को अपनी जिंदगी का मंत्र बना लिया।
कहानी अब उस मोड़ पर आ चुकी थी जहां पति ने सालों बाद अपनी पूर्व पत्नी और बेटी को सड़क किनारे चाय बेचते हुए देखा और उसकी आत्मा हिल गई। उसने महसूस किया कि उसने जीवन की सबसे बड़ी गलती की थी।
आज वही औरत जिसे उसने कभी कमजोर समझा था, वही अपने बलबूते पर खड़ी थी और उसकी बेटी जो कभी उसके आंगन में खेला करती थी, अब अपनी मां का हाथ मिटा रही थी।
लेकिन मित्रों, जिंदगी की सच्चाई यही है कि वक्त किसी के लिए रुकता नहीं है। और जो लोग अपनी गलतियों को समय पर नहीं पहचानते, उन्हें पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलता।
उस रात जब वह घर लौटा तो उसकी नींद उड़ गई। उसे बार-बार वही दृश्य याद आता रहा। पत्नी पसीने से भीगी हुई, थकी-थकी सी, मगर फिर भी मुस्कुराकर ग्राहकों को चाय दे रही थी और बेटी उसके बगल में बर्तन धो रही थी।
उसने सोचा, क्या यही जिंदगी देने का वादा उसने कभी अपनी पत्नी से किया था? क्या यही सपने उसने अपनी बेटी के लिए देखे थे?
जब वह जन्मी थी, वह करवटें बदलता रहा और सुबह होते ही उसने मन ही मन एक फैसला किया।
अगले दिन वह फिर उसी चाय के ठेले पर पहुंचा। इस बार उसका दिल पहले से ज्यादा भारी था। उसने झुक कर अपनी बेटी की तरफ देखा, मगर बेटी ने सिर्फ इतना कहा, “मम्मी, एक ग्राहक चाय लेने आए हैं।”
यह शब्द सुनकर उसका दिल कांप गया। उसकी बेटी उसे अब सिर्फ एक ग्राहक की तरह देख रही थी, न कि अपने पिता की तरह।
उसने खुद को रोका और चुपचाप एक कोने में बैठ गया। उसने चाय ली और धीरे-धीरे पीने लगा। जैसे चाय के हर घूंट के साथ उसका पुराना जीवन लौट कर सामने आ रहा था।
फिर उसने हिम्मत जुटाई और पत्नी से कहा, “मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।”
पत्नी ने नजर उठाई, मगर उसके चेहरे पर कोई पुराना अपनापन नहीं था। उसने ठंडे लहजे में बस इतना कहा, “जो कहना है जल्दी कहो। मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं है, मुझे दुकान संभालनी है।”
वह और भी शर्मिंदा हुआ, लेकिन बोला, “मैंने गलतियां की हैं और अब समझ रहा हूं कि तुम दोनों मेरे बिना कितना कुछ सहकर भी मजबूत खड़ी हो गई हो। मैं चाहता हूं कि अगर हो सके तो तुम दोनों मुझे एक मौका और दो ताकि मैं अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर सकूं।”
पत्नी ने उसकी बात सुनी, मगर उसका चेहरा बिल्कुल शांत था। उसने कहा, “देखो हम दोनों ने जिंदगी जीना सीख लिया है। अब हमें किसी सहारे की जरूरत नहीं है। अगर तुम सच में कुछ करना चाहते हो तो दूसरों की मदद करो। उन औरतों की मदद करो जो मेरे जैसी हालात से गुजर रही हैं ताकि उन्हें वह दर्द न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा है।”
उसके शब्द तीर की तरह पति के दिल को चीर गए, मगर उनमें एक सच्चाई छुपी थी।
उसने तय किया कि अब वह अपना जीवन दूसरों की मदद करने में लगाएगा। धीरे-धीरे उसने पास के स्कूलों में जाकर बच्चों की फीस भरनी शुरू की। गरीब औरतों को छोटे-मोटे काम दिलाने में मदद की और समाज में यह संदेश फैलाने लगा कि औरत को कभी कमजोर मत समझो क्योंकि औरत अकेली पूरी दुनिया को संभाल सकती है।
उसकी यह बातें लोगों को छूने लगीं और लोग उसकी इज्जत करने लगे।
लेकिन असली खुशी उसे तब मिली जब एक दिन उसकी बेटी ने उसे चाय देते हुए पहली बार कहा, “पापा।”
यह शब्द सुनते ही उसकी आंखों से आंसू बह निकले। उसने सोचा कि शायद ईश्वर ने उसकी सच्चे दिल से की गई मेहनत और पछतावे को सुन लिया है।
बेटी ने भी समझ लिया था कि इंसान गलतियां करता है, मगर अगर वह अपनी गलती सुधारने की कोशिश करे तो उसके दिल को माफी मिल सकती है।
धीरे-धीरे उनकी जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया।
पत्नी ने भले ही पति को अपने जीवन का हिस्सा दोबारा नहीं बनाया, लेकिन उसने इतना जरूर किया कि बेटी को पिता से दूर नहीं रखा।
तीनों का रिश्ता अब समाज की परिभाषा में नहीं बल्कि इंसानियत और समझदारी में जुड़ा था।
पति को अब यह सीख मिल चुकी थी कि रिश्तों की कीमत पैसे या अहंकार से कहीं ज्यादा होती है। और अगर समय रहते कोई यह समझ ले तो टूटे घर को टूटने से बचाया जा सकता है।
मित्रों, यही कहानी हमें यह सिखाती है कि जिंदगी में चाहे हालात कैसे भी हों, रिश्तों को कभी हल्के में मत लेना। तलाक और अलगाव कभी भी खुशी का रास्ता नहीं होते।
असली खुशी तो एक-दूसरे का हाथ थामकर मुश्किल वक्त से गुजरने में होती है।
अगर हम वक्त रहते अपने गुस्से और अहंकार को छोड़ दें तो बहुत सारी बिखरने से बच सकती हैं।
मित्रों, आपने देखा कि किस तरह एक परिवार की कहानी हमें यह सिखाती है कि रिश्तों की असली ताकत साथ निभाने में है।
अहंकार और गुस्से के कारण चाहे घर बिखर भी जाए, मगर सच्चे दिल से की गई कोशिश और पश्चाताप बहुत कुछ बदल सकता है।
इसीलिए हमें हमेशा अपने परिवार को संभाल कर रखना चाहिए और एक-दूसरे को समझने की कोशिश करनी चाहिए।
समाप्त।
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