बेटी पहुंची बाप को छुड़ाने.. लेकिन सिग्नेचर देख IPS अफसर का रंग उड़ गया! फिर जो हुआ
रामकिशोर वर्मा और आईपीएस श्रुति वर्मा की संघर्ष गाथा
शहर के एक कोने में, रेलवे स्टेशन के पास गरीबों का एक मोहल्ला था। वहीं 70 वर्षीय रामकिशोर वर्मा अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती कर अपना जीवन चला रहे थे। झुर्रियों से भरा चेहरा, सफेद बाल और कांपते हाथों में एक पुराना डंडा… रामकिशोर अपने कच्चे घर के सामने बैठकर आसमान को ताकते रहते थे, जैसे किसी जवाब की तलाश में हों – “ईमानदारी का फल इतना कड़वा क्यों?”
उनकी जमीन पर वर्षों से उनकी मेहनत थी, लेकिन अब वही जमीन उनकी बेबसी का कारण बन गई थी।
एक स्थानीय प्रभावशाली नेता, सुभाष शर्मा, उस जमीन पर बड़ा मॉल बनवाना चाहता था। उसने रामकिशोर से मीठी बातें कीं – “मॉल बनेगा तो गांववालों को रोजगार मिलेगा।”
लेकिन रामकिशोर के लिए वह जमीन केवल मिट्टी का टुकड़ा नहीं, बल्कि उनके पुरखों की निशानी थी। उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया।
सुभाष शर्मा को यह बात नागवार गुजरी। उसने एसीपी राकेश चौधरी से साठगांठ कर ली।
कुछ ही दिनों में पुलिस की गाड़ी रामकिशोर के घर आई। उन्हें बिना किसी ठोस आरोप के थाने ले जाया गया।
थाने में एसीपी ने उनपर आरोप लगाया – “सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा!”
रामकिशोर कुछ समझ पाते, इससे पहले ही उनके गाल पर थप्पड़ पड़ चुका था।
“बाबूजी, वो जमीन तो मेरी है… रजिस्ट्रियां मेरे पास हैं…”
लेकिन एसीपी को सच्चाई से कोई मतलब नहीं था। उसके लिए सुभाष शर्मा का आदेश ही कानून था।
जेल की सलाखों के पीछे, रामकिशोर अपने जीवन के सबसे अंधेरे दिनों से गुजर रहे थे।
उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बेटी आएगी और उन्हें बचाएगी, लेकिन 14 दिनों तक उसका कोई अता-पता नहीं था।
एसीपी ने जानबूझकर किसी को सूचित नहीं किया था।
जेल के कोने में अंधेरा और बदबू हमेशा साथ रहते थे।
रामकिशोर अपने आंसुओं से जमीन को सींचते रहे।
उन्हें अपनी बेटी की बातें याद आती – “पिता, मैं वर्दी पहनूंगी और अन्याय को मिटा दूंगी।”
14वें दिन दोपहर को…
थाने के बाहर एक गाड़ी रुकी।
एसीपी अपने कमरे में बैठा चाय पी रहा था।
एक महिला अंदर आई – सादे कपड़े, कंधे पर बैग, हाथ में फाइल।
एसीपी ने उसे सामान्य नागरिक समझा – “किसी कैदी से मिलना है क्या?”
महिला ने मुस्कुराकर कहा – “रामकिशोर वर्मा मेरे पिता हैं। उनकी जमानत करवानी है।”
एसीपी ने एक नजर फाइल पर डाली और जैसे उसकी सांसें अटक गईं।
कागज पर नाम लिखा था – श्रुति वर्मा, आईपीएस ऑफिसर।
कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया।
यह वही नाम था, जो कभी ट्रेनिंग में सबसे तेज थी – कभी किसी के सामने नहीं झुकी थी।
एसीपी सोच भी नहीं सकता था कि जिसके पिता को उसने अपमानित किया, वह उसी की बैच की आईपीएस ऑफिसर की बेटी निकलेगी।
बाहर रामकिशोर को जब सिपाही लेकर आया तो उनकी आंखें किसी चमत्कार को देख रही थीं।
सामने श्रुति खड़ी थी – शांत, दृढ़, और बिल्कुल वैसी ही जैसी वह कहती थी।
रामकिशोर की आंखों से आंसू रुक नहीं रहे थे।
उन्होंने कांपते हुए हाथों से बेटी को छूना चाहा।
श्रुति ने उनके माथे को चूमा और सिपाही से कहा – “इनकी जमानत हो चुकी है। अब यह कैदी नहीं हैं।”
एसीपी राकेश चौधरी अंदर से बुरी तरह हिल चुके थे।
उनका सारा अहंकार चूर हो गया था।
उन्हें एहसास हुआ कि जो उन्होंने किया वह सिर्फ एक बुजुर्ग के साथ नहीं बल्कि कानून के साथ विश्वासघात था।
लेकिन अभी तो शुरुआत थी।
आईपीएस श्रुति वर्मा की असली लड़ाई अब शुरू होने जा रही थी – उस सिस्टम से, जो सत्ता के इशारे पर किसी भी ईमानदार को मिटाने पर तुला होता है।
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