बीमार बुज़ुर्ग का संदूक उठाते ही कुली के उड़ गए होश—अंदर छुपा था ऐसा राज जिसे जानकर कांप उठे लोग!

.

.

.

एक

वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन—कहाँ से दिन शुरू होता है और कब रात आ जाती है, इसका अंदाजा शायद वहाँ काम करने वाले कुली सबसे ज्यादा अच्छे से जानते हैं। इसी स्टेशन पर, अनगिनत भागती धड़कनों, छूटती उम्मीदों और चाय–कचौड़ी की खुशबूओं के बीच, शंकर नाम का एक साधारण-सा कुली अपनी जिंदगी के दिन काट रहा था। उसकी पीठ जितनी मजबूत थी, दिल उतना ही मासूम और ईमानदार। चालीस की दहलीज छू चुका शंकर रोज सुबह लाल बिल्ला वाली टोपी सिर पर पहन लेता था और स्टेशन पर प्लेटफार्म से प्लेटफार्म बोझ ढोने निकल जाता था। उसके लिये बोझ कोई भारी चीज नहीं थी, वह बोझ ही तो उसकी पहचान था—पिता के गुजर जाने के बाद यहीं का बिल्ला सर पर चढ़ाया, और वही अपनी गरीबी की हथेली की रेखाएं पढ़ने लगा।

शंकर की गरीबी की कहानी जितनी साधारण थी, उतनी ही दिलचस्प भी। उसकी जिंदगी स्टेशन की पटरियों से शुरू होकर गंगा किनारे एक पतली सी गली के छोटे-से किराए के दो कमरों वाले घर तक सिमटी थी। घर में मुरझाई सी पार्वती बीवी थी, जिसे पिछले एक साल से गठिया की बीमारी ने जकड़ रखा था। उसके पांव अक्सर सूजे रहते, दर्द में कराहती रहती और डॉक्टर ने आराम और अच्छे इलाज की सलाह दी थी—पर शंकर के पास बस सलाह के सिवा कमाने–खाने को ही बहुत कम था। बेटी मीना थी, जिसे शंकर अपनी आंखों की पुतली, अपना सपना और अपनी उम्मीद समझता था। वह पढ़ने में तेज थी, स्कूल की टॉपर थी, मगर अगले महीने स्कूल की फीस भरनी जरूर थी और घर में राशन भी लगभग खत्म था।

शंकर ने कितनी ही बार सोचा था कि दूसरा कोई काम कर ले, लेकिन इस स्टेशन की सीढ़ियों, सिग्नल की सीटी और प्लेटफॉर्म के शोर ने उसे बांधकर रखा था, जैसे कि उसके और स्टेशन के बीच अटूट रिश्ता हो गया हो। कभी-कभी बाकी कुली उसके भोलेपन का मजाक उड़ाते—’भोला शंकर, तू तो मोलभाव भी नहीं जानता। ग्राहक जो दे, उठा लेता है। इससे क्या होगा?’—मगर शंकर बस मुस्कुराकर रह जाता। उसे ईमानदारी का बोझ उठाने में भी वही सुख मिलता था जो कंधे पर रखी ट्रंक में नहीं।

दो

एक साधारण–सी दोपहर प्लेटफार्म नंबर 5 पर दिल्ली से शिवगंगा एक्सप्रेस आकर रुकी। भीड़ में किसी को अधिक, किसी को कुछ कम की जल्दी थी। धक्का-मुक्की, सवारियों की तलाश और कुलियों की आवाजों का शोर आसपास गूंज रहा था। तभी भीड़ छटने के बाद शंकर ने देखा—एक बेहद बुजुर्ग आदमी, सपना लिये नहीं, बोझ लिये ट्रेन के दरवाजे से उतरने की कोशिश कर रहा था। उनकी उम्र 80 पार रही होगी, कमजोर शरीर, पतले हाथ, हड्डियां बाहर की ओर निकली हुई, सिर पर सफेद बाल और आंखों में उदासी की महीन रेखाएं। उनके पास एक बेहद भारी लोहे का संदूक था जिस पर कई जगह से पेंट उतर गया था और मोटी-मोटी जंजीरें लिपटी थीं, जैसे अपने अंदर कोई रहस्य छिपाये हो।

बुजुर्ग उस संदूक को उठाने के कई असफल प्रयास कर चुके थे, लेकिन उनके शरीर ने जवाब दे दिया था। बाकी कुलियों ने देखा जरूर, लेकिन किसी को लगा, ‘इतना बूढ़ा आदमी क्या देगा। दस–बीस रूपये के लिए यह पत्थर जैसा संदूक कौन उठाए?’ शंकर की निगाहों में उस बूढ़े की छवि जैसे उसके सफेद बालों वाले पिता की मुस्कान में बदल गई। वह बिना सोचे-समझे दौड़कर पहुंच गया, “लाइये बाबूजी, मैं मदद कर दूं।”

बुजुर्ग ने थके-थके स्वर में, अविश्वास और कृतज्ञता के बीच सिर हिलाया। शंकर ने अपनी सारी ताकत लगाई—संदूक को सिर पर रखा तो जैसे उसकी रीढ़ तक बोझ उतर गया, फिर उसने मुफलिसी की चिंता की जगह उस लाचार आदमी के चेहरे पर राहत देखने की इच्छा ज्यादा भारी पाई। उसने धीरे-धीरे बूढ़े को ट्रेन से नीचे उतारा, पूछ बैठा, “बाबूजी, कहां चलना है?” “बस बेटा, स्टेशन के बाहर तक छोड़ दो,” थकी–हुई आवाज में बुजुर्ग बोले।

शंकर ने संदूक को सिर पर उठाया, जिसके वजन के आगे उसके घुटने कांप गये, पर इंसानियत की ताकत से मजबूत होकर वह भीड़ को चीरते हुए बाहर पहुंच गया।

तीन

स्टेशन के बाहर, एक पेड़ के नीचे बैठकर, जहाँ बुजुर्ग आदमी हांफते-हांफते पसीने-पसीने हो गए थे, शंकर ने उन्हें अपनी पानी की बोतल थमाई और आराम करवाया। फिर जब वो चलने लगा, बुजुर्ग ने कांपते हाथों से अपनी फटी हुई जेब से 30 रुपयों के मुड़े–तुड़े नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिये—”ले ले बेटा, यही दे सकता हूँ।”

शंकर उनकी हालत देखकर खुद शर्मिंदा हो गया, “बाबूजी, आपने मुझे बेटा कहा, क्या बेटा सेवा के पैसे लेता है? आप सुकून से रहिए, आपकी दुआ ही मेरे लिए सबसे बड़ी कमाई है।”

बुजुर्ग की आंखें भर आईं। वे बोले, “बेटा, ऐसी बात अब इस जमाने में कौन करता है?” शंकर ने उन्हें पास की धर्मशाला में ठहराने का इंतजाम कर दिया। धर्मशाला के मैनेजर से बोला, “अगर बाबूजी को कोई जरूरत हो तो मुझे बुला लीजिएगा।” उसका मन न माना तो उसने मैनेजर को अपना नाम, गली और घर का पता भी देकर आया।

चार

उन दिनों में शंकर की मुश्किलें बढ़ गईं। घर, बीमार पत्नी, पढ़ाई करती मीना, चार दिन का बाकी राशन और बाजू में उधारी। उसने एक साथी से उधार लेकर पार्वती की दवा खरीदी, मीना की फीस के लिए मास्टर से मोहलत मांगी। पर उसमें कोई शिकवा-शिकायत नहीं थी, बस जिस फैसले पर वह अड़ा था, उस पर गर्व और संतोष था कि उसने मेहनत से पा कर भी वह पैसे उस आदमी से नहीं लिए जिसे उसकी जरूरत खुद उससे ज्यादा थी।

पर तीसरे दिन तड़के, जब वह तैयार हो ही रहा था, धर्मशाला से एक लड़का हांफता हुआ आ गया, “शंकर भैया, वो बाबूजी… उनकी हालत बहुत खराब है, बार-बार बस आपको बुला रहे हैं।”

शंकर दिल थामकर भागा। कमरे का दरवाजा खोला तो देखा, बुजुर्ग बिस्तर पर पड़े, आंखें बुझी सी, होंठ सूखे, सांसें डूबती हुई। उनकी आंखें शंकर को देखकर भर आईं— “तू… आ गया बेटा…” शंकर झुककर, उनका हाथ थामकर बैठ गया, आँसू थामे। “बाबूजी हिम्मत रखिए…” बुजुर्ग बोले, “अब मेरी उम्र पूरी हो चुकी। लेकिन मरने से पहले एक जिम्मेदारी पूरी करनी है।” उन्होंने कोने में रखे उस भारी संदूक की ओर इशारा किया— “बेटा, वो संदूक खोलो। चाबी तकिए के नीचे है…”

पांच

शंकर ने कांपते हाथों से चाबी निकाली, धीरे–धीरे संदूक की जंजीरें हटाईं और ताले में चाबी घुमाई। एक खटके की आवाज आई, ढक्कन खोलने पर ऊपर-ऊपर कुछ पुराने कपड़े थे, लेकिन कपड़ों के नीचे गिन्नियों, हीरे-जवाहरात, सोने के हार, नग, मोतियों की मालाएँ और बेशुमार दौलत की ऐसी चमक थी कि शंकर की आंखें चौंधिया गईं। वह अवाक् रह गया—ऐसा नज़ारा तो उसने सपने में भी नहीं देखा था।

“बेटा, हैरान मत हो। मैं दयाराम हूं। राजस्थान के रतनगढ़ के राजघराने का जहरी (कोषाध्यक्ष) था। यह खजाना रियासत का है। आजादी के बाद राजाओं के डर के चलते इसे सुरक्षित रखने का आदेश मिला। राजा साहब ने मुझे सौंपा था कि इसे तब तक छिपाए रखना जब तक सही वारिस ना मिले या वक्त बदल जाए। लेकिन महामारी में राजा-साह