वृद्धाश्रम में ससुर को छोड़ने गई बहू… वहीं अपनी मां मिली तो पैरों तले ज़मीन खिसक गई
जिस वृद्धाश्रम में ससुर को छोड़ने गई बहू, वही अपनी मां मिली तो होश उड़ गए। वह मंजर ऐसा था कि इंसानियत भी कांप उठी। बहू की चीखें और आंसू पूरे आश्रम की दीवारों में गूंज उठे। जिस मां की गोद में उसने बचपन बिताया था, आज उसी मां को इस हाल में देखकर उसका दिल चीर कर रह गया। यह सिर्फ एक घर की कहानी नहीं बल्कि हर उस मां-बाप का दर्द है, जिन्हें अपनी ही संतान बोझ समझकर अकेला छोड़ देती है। लेकिन उस दिन जो हुआ, उसने ना सिर्फ एक बहू को बल्कि पूरे समाज को आईना दिखा दिया।
यह सच्ची कहानी दिल को झकझोर देने वाली है। पूरी कहानी जानने के लिए वीडियो को आखिर तक जरूर देखें। लेकिन उससे पहले वीडियो को लाइक करें, चैनल को सब्सक्राइब करें और कमेंट में अपना और अपने शहर का नाम जरूर लिखें।
कैलाश बाबू का जीवन
दोस्तों, उत्तर प्रदेश के लखनऊ के रहने वाले कैलाश बाबू एक आमिर परिवार से आते थे। उनकी जिंदगी में सब कुछ ठीक चल रहा था जब तक उनकी पत्नी सुधा देवी उनके साथ थीं। सुधा देवी के साथ उन्होंने जीवन के हर कठिन पड़ाव को मुस्कुराते हुए पार किया। लेकिन जब कुछ साल पहले बीमारी के चलते सुधा देवी इस दुनिया को छोड़कर चली गई, तब से कैलाश बाबू का घर किसी सूने आंगन की तरह बन गया था।
फिर भी उन्होंने कभी शिकायत नहीं की क्योंकि उन्हें यकीन था कि उनका बेटा और बहू उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे। उन्होंने बेटे को पढ़ाने-लिखाने में अपनी जवानी लगा दी थी। हर पसीना बहाकर उसे बड़े आदमी बनाने का सपना पूरा किया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, बेटे-बहू की प्राथमिकताएं बदल गईं। बात-बात पर झगड़े, हर छोटी चीज में ताने और अपमान उनके हिस्से आने लगे।
अपमान का सिलसिला
कभी बहू कहती, “पूरा दिन बैठे रहते हैं। कोई काम-धंधा नहीं करते। सिर्फ खर्च बढ़ाते हैं।” तो कभी बेटा गुस्से से बोल पड़ता, “आप संभलकर काम क्यों नहीं करते? जब देखो चोट लगाकर बैठ जाते हैं।” इन शब्दों ने कैलाश बाबू के दिल को हजार बार तोड़ा। लेकिन उन्होंने फिर भी सहा यह सोचकर कि शायद कल का दिन बेहतर होगा। मगर वह कल कभी नहीं आया।
एक दिन सुबह-सुबह घर में बहू और बेटे की जोर-जोर से बहस चल रही थी। कैलाश बाबू चुपचाप अपने कमरे में गए। पुराना बैग निकाला और उसमें दो-तीन जोड़ी कपड़े रखे। उन्होंने अपनी पत्नी की तस्वीर उठाई। आंखों में आंसू भर आए और धीमे स्वर में बोले, “सुधा, तुम तो मुझे पहले ही छोड़ गई थीं। पर देखो, आज तुम्हारे बेटे ने भी मेरा साथ छोड़ दिया।”
फिर उन्होंने खुद को संभाला, आंखें पाछी और अपने पुराने दोस्त राधेश्याम को फोन मिलाया, जो पहले से ही वृद्धाश्रम में रहते थे। गला भर आया और शब्द जैसे अटकने लगे। “राधेश्याम, अब मैं भी वही आना चाहता हूं। अब मुझसे रोज-रोज का अपमान नहीं सहा जाता।” उस दिन कैलाश बाबू ने ठान लिया। अब यह घर उनका नहीं है। वे अपने बैग और सुधा देवी की तस्वीर के साथ घर छोड़कर वृद्धाश्रम की ओर निकल पड़े।
वृद्धाश्रम की यात्रा
गली के मोड़ पर उन्होंने पीछे मुड़कर आखिरी बार अपने घर को देखा। लेकिन ना बेटे ने रोका और ना बहू ने। दोनों अपने कमरे में बैठकर चाय और स्नैक्स का मजा ले रहे थे। कैलाश बाबू धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए वृद्धाश्रम पहुंचे। दरवाजे के बाहर खड़े एक कर्मचारी ने उन्हें देखा और सम्मान के साथ भीतर ले गया।
अंदर का नजारा देखकर कैलाश बाबू कुछ पल के लिए ठहर गए। कोई बुजुर्ग बगीचे में टहल रहा था। कोई अखबार पढ़ते हुए खामोश बैठा था, तो कोई एक दूसरे से हंसी-मजाक कर रहा था। यह सब देखकर उन्हें हैरानी हुई क्योंकि घर में उन्हें हमेशा तिरस्कार और खामोशी ही मिली थी। जबकि यहां लोग अपनों से दूर होकर भी अपनों जैसा सुकून ढूंढ रहे थे।
धीरे-धीरे कैलाश बाबू की दिनचर्या बदलने लगी। सुबह सबके साथ योग और प्राणायाम, दोपहर में चाय पर हंसी-ठिठोली, सामूहिक भोजन। घर में जहां हर निवाले के साथ अपमान का घूंट निगलना पड़ता था, वहीं आश्रम में हर निवाला साझा खुशी का हिस्सा लगता था। वह महसूस करने लगे कि शायद यही अब उनका ठिकाना है।
अकेलापन और यादें
लेकिन रात को जब सब अपने-अपने कमरों में चले जाते, तब अकेलापन फिर उन्हें घेर लेता। वह अपनी पत्नी सुधा देवी की तस्वीर निकालते और धीरे-धीरे बातें करने लगते। “देखो सुधा, यहां सब साथ हैं। सब अपनों की तरह पेश आते हैं। पर तुम्हारी कमी अब भी पूरी नहीं हो पाती।” उनकी आंखें नम हो जातीं और तस्वीर आंसुओं से भीग जाती।
इसी बीच एक दिन आश्रम के बाहर एक कार आकर रुकी। सभी बुजुर्ग उत्सुकता से देखने लगे क्योंकि अक्सर नई गाड़ियां किसी ना किसी त्यागी हुए बुजुर्ग को लेकर आती थीं। कार से पहले एक नौजवान उतरा और फिर एक बुजुर्ग महिला, जिसके सिर पर पल्लू था। सहारे से बाहर निकली। उनकी उम्र लगभग 65 वर्ष के आसपास होगी। लेकिन थकान और दर्द ने जैसे उनके चेहरे पर गहरी लकीरें बना दी थीं।
साथ आई महिला ने उनके हाथ में एक छोटा बैग थमाया और कुछ मिनट बातचीत करने के बाद लौट गई। वो बुजुर्ग महिला कुछ देर तक कार की ओर देखती रही। फिर भारी मन से अपनी आंखें पाछी और आश्रम के भीतर चली आई। कैलाश बाबू वहीं प्रांगण में बैठे थे। जैसे ही उनकी नजर उस महिला पर पड़ी, उन्हें कुछ अजीब सा एहसास हुआ।
पहचान का मंजर
उन्होंने गौर से देखा तो लगा जैसे वह चेहरा कहीं देखा हुआ है। मगर दिमाग साफ नहीं कर पा रहा था। महिला ने भी जानबूझकर अपना चेहरा पल्लू से आधा ढक लिया और सीधे महिला विभाग की ओर बढ़ गई। पास बैठे एक बुजुर्ग ने लंबी सांस भरकर कहा, “आज फिर एक मां की ममता तार-तार हो गई। फिर से किसी बेटे ने अपनी मां को यहां छोड़ दिया।” यह सुनकर कैलाश बाबू का दिल और भारी हो गया।
वह बार-बार उस महिला को याद करने लगे। उन्हें लगता था जैसे वह उन्हें जानते हैं। मगर पहचान पूरी नहीं हो रही थी। कुछ दिन बाद एक सुबह बगीचे में टहलते हुए उन्होंने वही महिला देखी। वह बागवानी कर रही थी और काम करते-करते उनका पल्लू अचानक सरक गया। कैलाश बाबू की नजर उनके चेहरे पर पड़ी और उनका दिल जैसे थम गया। पैरों तले जमीन खिसक गई। वह महिला कोई और नहीं बल्कि जानकी देवी थी, जिनसे उनका पुराना नाता था और जिन्हें वह हमेशा खुशहाल परिवार में देखना चाहते थे।
आज वही जानकी देवी वृद्धाश्रम की मिट्टी में पौधों को सींचते हुए नजर आ रही थी। उनके चेहरे की चमक कहीं खो चुकी थी। आंखों में गहरी उदासी और होठों पर थमी हुई चुप्पी थी। कैलाश बाबू कुछ पल तक वही खड़े रहे। फिर धीरे-धीरे उनके पास जाकर बोले, “जानकी, क्या सचमुच आप ही हैं? मैंने सोचा भी नहीं था कि आपको यहां देखूंगा।” जानकी देवी चौंक गई।
जानकी देवी की कहानी
उन्होंने जल्दी से अपने सिर पर पल्लू खींचा और नजरें झुका ली। आवाज कांप रही थी। “कैलाश जी, हां मैं ही हूं, मगर आप यहां?” कैलाश बाबू ने लंबी सांस भरते हुए कहा, “मैं भी मजबूर होकर यहां आया हूं, बेटा भू के रोज-रोज के तानों से तंग आकर। लेकिन आपके तो घर में सब कुछ था। हमेशा कहती थीं कि बेटा भू आपका बहुत ध्यान रखते हैं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि आपको भी यहां आना पड़ा?”
यह सुनकर जानकी देवी की आंखों से आंसू छलक पड़े। काफी देर तक चुप रही। मानो शब्द उनके गले में अटक गए हों। फिर टूटी हुई आवाज में बोली, “कैलाश जी, इंसान को कभी अपने हालात पर ज्यादा यकीन नहीं करना चाहिए। मैंने भी सोचा था कि मेरे बच्चे मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। लेकिन किस्मत देखिए। मेरे ही बेटे और बहू ने मुझे इस आश्रम तक पहुंचा दिया।”
कैलाश बाबू हैरानी से उन्हें देखते रहे। उनका दिल सवालों से भर गया। “कैसे हो सकता है इतना बड़ा धोखा? आपने तो हमेशा अपने परिवार की खुशियों के किस्से सुनाए थे।” जानकी देवी ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए कहना शुरू किया, “कुछ महीनों पहले तक सब ठीक था। मैं घर के हर काम में बहू का हाथ बंटाती थी। बेटे को समय पर खाना देती थी और बच्चों की देखभाल करती थी। लेकिन धीरे-धीरे बहू को मेरा साथ बोझ लगने लगा। वह कहती कि मैं पुराने ख्यालों की हूं। घर के कामों में दखल देती हूं। बेटे को भी बहू की बातों पर यकीन होने लगा। फिर एक दिन उन्होंने कह दिया कि मुझे तीर्थ यात्रा पर भेज रहे हैं।”
धोखे की सच्चाई
“मैं खुश हुई कि चलो बुढ़ापे में पुण्य मिल जाएगा। लेकिन सच क्या था? वह मुझे यही छोड़ गए और कभी पलट कर नहीं देखा।” कैलाश बाबू के हंठ कांप उठे। उन्होंने मन ही मन कहा, “हे भगवान, संताने इतनी निर्दयी कैसे हो सकती हैं? जिन मां-बाप ने अपनी पूरी जिंदगी बच्चों के लिए कुर्बान कर दी, वही आज उनके लिए बोझ बन गए।”
जानकी देवी की आंखें फिर छलक आईं। “कैलाश जी, मां होना ही शायद सबसे बड़ी सजा है इस जमाने में। अपने बच्चों को 9 महीने कोख में रखा। सालों तक नींद और भूख त्याग कर पाला। और आज उन्हीं बच्चों के लिए मैं पराई हो गई। मुझे लगता है अब मेरा घर यही आश्रम है। कम से कम यहां कोई झूठा प्यार दिखाकर मुझे धोखा तो नहीं देगा।”
कैलाश बाबू की आंखें भी भर आईं। दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और दोनों की खामोशी बहुत कुछ कह गई। वह समझ चुके थे कि उनकी तकलीफ अलग-अलग नहीं बल्कि एक जैसी है। अपने ही अपनों के हाथों धोखा और तिरस्कार। दिन बीतते गए। कैलाश बाबू और जानकी देवी धीरे-धीरे वृद्धाश्रम की दिनचर्या में ढलने लगे।
साझा पीड़ा
दोनों की साझा पीड़ा उन्हें और करीब ले आई थी। कभी चाय के कप पर बातें करते, कभी बगीचे में टहलते हुए पुराने दिनों को याद करते। लेकिन दिल के किसी कोने में दोनों के जख्म ताजा ही रहते थे। इसी बीच एक सुबह आश्रम के संचालक ने आकर कहा, “कैलाश जी, आपको कोई मिलने आया है?” कैलाश बाबू चौक पड़े। उनके मन में हजार सवाल उठे। “कौन हो सकता है? इतने महीनों से किसी ने हाल तक नहीं पूछा। अब अचानक कौन आया?”
जैसे ही वह बाहर आए, सामने का दृश्य देखकर उनकी आंखें भर आईं। उनका छोटा पोता गोलू दौड़ते हुए उनकी ओर आया और चिल्लाया, “दादू, दादू!” कैलाश बाबू वही ठिटक गए। गोलू आकर उनकी टांगों से लिपट गया और मासूमियत से बोला, “दादू, मैं आपको बहुत मिस करता हूं। चलिए ना मेरे साथ घर।”
पोते का प्यार
उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े। इतने दिनों तक भी वे मजबूत बने रहे थे। लेकिन पोते के आलिंगन ने उनके दिल की दीवारें तोड़ दीं। वो झुककर गोलू को सीने से लगा लिए और फूट-फूट कर रो पड़े। तभी पीछे से उनका बेटा और बहू भी आए। बहू ने धीमी आवाज में कहा, “पिताजी, आज गोलू का जन्मदिन है। उसने जिद की है कि आप उसके साथ पार्टी में रहें। हम चाहते हैं कि आप चलकर हमें आशीर्वाद दें।”
कैलाश बाबू ने हैरानी से उन्हें देखा और कड़वाहट से बोले, “वाह, इतने महीनों तक किसी को मेरी सुध नहीं आई। ना हाल पूछा, ना फोन किया, ना एक बार यह जानने की कोशिश की कि मैं जिंदा हूं या मर गया, और आज अचानक मुझे याद आ गई क्यों? क्योंकि तुम्हें अपनी इज्जत बचानी है। रिश्तेदार पूछेंगे कि पिताजी कहां हैं? तो जवाब देने के लिए मुझे बुलाने आए हो।”
उनके बेटे ने सिर झुका लिया। वो बोला, “पिताजी, हमसे गलती हुई है। लेकिन आज गोलू की खुशी के लिए आप एक बार घर चलिए। उसने अपनी जन्मदिन की पार्टी में आपको बुलाया है और अगर आप नहीं आए तो उसका दिल टूट जाएगा।”
दुविधा का क्षण
कैलाश बाबू का दिल दो हिस्सों में बंट गया। एक तरफ उनकी नाराजगी थी और दूसरी तरफ पोते की मासूम जिद। गोलू फिर बोला, “चलो ना दादू। आप आएंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।” कैलाश बाबू ने गोलू का मासूम चेहरा देखा और उनका दिल पिघल गया। उन्होंने ठंडी सांस भरते हुए कहा, “ठीक है, मैं चलूंगा। लेकिन सुन लो, मैं सिर्फ गोलू की खुशी के लिए जा रहा हूं। जैसे ही जन्मदिन की पार्टी खत्म होगी, मैं वापस इसी आश्रम में लौट आऊंगा। यही अब मेरा घर है।”
बहू और बेटा चुपचाप सिर झुकाए खड़े रहे। कैलाश बाबू ने गोलू का हाथ थामा और उसके साथ बाहर निकल गए। शाम को जब घर पहुंचे तो हर तरफ रोशनी, मेहमान और सजावट थी। गोलू की हंसी और रिश्तेदारों के बीच कैलाश बाबू ने सबके सामने खुद को संभाल लिया। मुस्कुराते रहे।
पार्टी का माहौल
लेकिन भीतर उनका दिल कह रहा था, “यहां सब हंसी-खुशी है। पर मेरी जिंदगी के पन्ने आंसुओं से भरे हैं।” गोलू का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाया गया। लेकिन कैलाश बाबू को देखकर रिश्तेदारों ने पूछा, “अरे, आप कहां थे इतने दिन? आपको देखे बिना तो घर सुनसान लगता था।” कैलाश बाबू मुस्कुराए लेकिन उनके दिल में कड़वाहट थी। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस गोलू के सिर पर हाथ रखकर उसका आशीर्वाद देते रहे।
रात का सन्नाटा
पार्टी खत्म होने के बाद रात गहरी हो गई। सब सोने चले गए। लेकिन कैलाश बाबू के मन में उथल-पुथल थी। वह अपने कमरे में बैठे अपनी पत्नी सुधा की तस्वीर को देखते हुए बुदबुदाए, “सुधा, आज तेरा पोता मुझे रोक रहा है। पर तेरे बेटे और बहू की करतूतें मुझे भुलाए नहीं भूल रही।”
सुबह होते ही बेटा और बहू तैयार खड़े थे। बहू ने कहा, “पिताजी, चलिए हम आपको आश्रम वापस छोड़ आते हैं।” उसके चेहरे पर एक अजीब सी संतुष्टि थी। जैसे वह राहत पा रही हो कि अब घर का बोझ फिर से उतर जाएगा। कैलाश बाबू सब समझ गए। उन्होंने बिना कुछ कहे जल्दी से स्नान किया, कपड़े पहने और गाड़ी में बैठ गए।
अंतिम निर्णय
गोलू मासूम आंखों से देख रहा था और बार-बार पूछ रहा था, “दादू, आप फिर से क्यों जा रहे हो?” कैलाश बाबू ने सिर्फ इतना कहा, “बेटा, कभी-कभी सच बहुत कड़वा होता है। लेकिन याद रखना, मैं तुम्हें हमेशा प्यार करता रहूंगा।” गाड़ी जब वृद्धाश्रम पहुंची तो बेटा भू भी उनके साथ अंदर तक आए।
कैलाश बाबू ने गाड़ी से उतरकर एक लंबी नजर अपने बेटे पर डाली और कहा, “याद रखना, रोहन, तुमने मुझे यहां छोड़ा था। लेकिन आज मैं अपनी मर्जी से यहां रह रहा हूं। यह अब मेरा घर है।” इतना कहकर उन्होंने भीतर कदम रखा। लेकिन तभी आश्रम से एक औरत बाहर आई। वही जानकी देवी।
सास की पहचान
जैसे ही रेखा (कैलाश बाबू की बहू) ने उन्हें देखा, उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। वो भागकर मां के पैरों में गिर गई और फूट-फूट कर रोते हुए बोली, “मां, आप यहां? आपने बताया क्यों नहीं? मुझे लगा आप तीर्थ यात्रा पर हैं। भाभी ने यही कहा था। मैं तो अनजान थी।”
जानकी देवी की आंखों से आंसू बह निकले। उन्होंने बेटी को अपने से अलग करते हुए कहा, “रेखा, मैं तेरी मां हूं। लेकिन तेरे ससुर की भी एक सास हूं। जब तू अपने ही ससुर को अपमानित कर वृद्धाश्रम में छोड़ आई थी, उसी दिन मैंने समझ लिया था कि तू भी अपने बच्चों के लिए वही करेगी जो आज मेरे बेटे ने मेरे साथ किया है। अब तेरी मां होने पर भी मुझे शर्म आती है।”
बदलाव का समय
रेखा फूट-फूट कर रोने लगी। उसने अपने ससुर के पैरों में सिर रख दिया और कहा, “पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने बहुत बड़ी गलती की है। मुझे कभी नहीं सोचना चाहिए था कि एक इंसान जिसने आपको जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वह इस हालात में पहुंचेगा। मुझे एहसास हो गया है। मैं बदल जाऊंगी।”
रोहन भी रो पड़ा और हाथ जोड़कर बोला, “पिताजी, मां, हमें माफ कर दीजिए। हमें अपने साथ घर चलिए। हम अपनी गलती सुधारेंगे।” कैलाश बाबू और जानकी देवी ने एक दूसरे की ओर देखा। और फिर धीमी आवाज में कहा, “नहीं बेटा, अब देर हो चुकी है। धोखा इंसान एक बार सह सकता है, लेकिन बार-बार नहीं। यह आश्रम अब हमारा घर है। यही हमें सुकून है। यही अब हमारी जिंदगी बीतेगी।”
रेखा और रोहन रोते रहे लेकिन कैलाश बाबू और जानकी देवी अपने-अपने कमरों में चले गए। उनकी आंखों से आंसू जरूर बह रहे थे लेकिन उनके चेहरे पर एक सुकून भी था कि उन्होंने अपने आत्मसम्मान को बचा लिया।
निष्कर्ष
दोस्तों, यह कहानी सिर्फ कैलाश बाबू और जानकी देवी की नहीं है, बल्कि हर उस मां-बाप की है जो अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर देते हैं और बदले में तिरस्कार और अकेलापन पाते हैं। याद रखिए, मां-बाप कभी बोझ नहीं होते। उनका अपमान करने से पहले सोचना चाहिए कि कल हमें भी उसी उम्र से गुजरना होगा।
लेकिन दोस्तों, क्या सच में माता-पिता को उम्र ढलने पर बोझ समझकर आश्रम की चार दीवारी में छोड़ देना सही है? क्या बच्चों का कर्तव्य सिर्फ अपनी खुशियों तक सीमित होना चाहिए? या अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करना भी उतना ही जरूरी है? कमेंट करके जरूर बताइए। और क्या आप भी मानते हैं कि माता-पिता ही असली भगवान होते हैं?
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