मां बाप को कंपनी से धक्के देकर बाहर फेंक दिया ! जब बेटे को पता चला। उसके बाद जो हुआ ?
कहते हैं, तकदीर को बदलने में वक्त नहीं लगता, लेकिन कभी-कभी वक्त ठहर जाता है। राजीव मेहरा का जीवन इस बात का गवाह था। एक ऐसा नाम, जो कभी इस शहर की आसमान छूती इमारतों पर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता था। 500 करोड़ की सल्तनत का मालिक, जिसकी एक आहट पर मैनेजर्स कांप जाते थे और जिसकी गाड़ी रुकते ही दरवाजे खोलने वालों की होड़ लग जाती थी। आज वही राजीव मेहरा बारिश और कीचड़ में सना, फटे हुए कपड़ों में एक मंदिर की सीढ़ियों पर कांप रहा था। उसे बेघर हुए तीन महीने हो चुके थे।
राजीव का पतन
उसका अपना बेटा विक्रम, जिसे उसने अपने हाथों से व्यापार सिखाया था, उसी ने एक जाली वसीयत और फर्जी घोटालों के कागजात पर दस्तखत करवाकर उसे उसकी ही कंपनी से बाहर फेंक दिया था। “पापा, अब आपकी उम्र आराम करने की है,” विक्रम ने मुस्कुराते हुए कहा था, जबकि उसकी आंखों में सत्ता की हवस साफ झलक रही थी। राजीव की पत्नी, जो हमेशा हीरे और शान-शौकत की भूखी थी, उसने भी बेटे का ही साथ दिया। एक ही झटके में अरबपति राजीव मेहरा सड़क पर आ गया।
पहले कुछ दिन उसे लगा यह कोई बुरा सपना है। वह चीखा-चिल्लाया, अपने पुराने दोस्तों को फोन करने की कोशिश की। लेकिन जिसके पास पैसा नहीं, उसकी आवाज कौन सुनता है? उसका घमंड, उसका रुतबा सब उस कीचड़ में मिल गया था जिसमें वह आज पड़ा था। दो दिन से उसके हलक से पानी की एक बूंद तक नहीं उतरी थी। भूख से पेट में ऐंठन हो रही थी। लोग आते-जाते, उसे घिनौना समझकर दुत्कारते। कोई हठ भिखारी कहता तो कोई उसे लात मारने का इशारा करता। वह आदमी जो कभी लाखों का दान देता था, आज एक रोटी के लिए तरस रहा था।
प्रिया की दया
तभी उसकी नजर उस पर पड़ी। प्रिया, एक 18 साल की लड़की, जो मंदिर के ठीक सामने एक छोटे से स्टूल पर लॉटरी के टिकट बेच रही थी। बारिश से बचने के लिए उसने अपने सर पर एक फटा हुआ प्लास्टिक तान रखा था। उसका धंधा भी मंदा था। वह खुद अपनी किस्मत बेच रही थी, जो शायद उसके पास खुद नहीं थी। राजीव उसे रोज देखता था। वह लड़की खुद भूखी लगती थी, पर मंदिर के बाहर बैठे हर कुत्ते को अपनी आधी रोटी जरूर खिलाती थी।
आज जब बारिश तेज हो गई और राजीव भूख से लगभग बेहोश होने लगा, तो प्रिया की नजर उस पर पड़ी। उसने देखा कि यह बाबा दो दिन से एक ही जगह पर है और बुरी तरह कांप रहा है। वह अपनी जगह से उठी। उसके पास एक छोटा सा टिफिन था, जिसमें शायद उसकी मां ने उसके लिए दो सूखी रोटियां और अचार रखा था। प्रिया राजीव के पास आई। राजीव ने घिन और शक से आंखें उठाई। उसे लगा यह भी भगाने आई है।
प्रिया ने टिफिन खोला। उसमें से एक रोटी निकाली और राजीव के फैले हुए गंदे हाथ पर रख दी। “यह ले लो बाबा,” उसकी आवाज में दया थी। मजबूरी नहीं। राजीव की आंखें फटी रह गईं। जिस बेटे को उसने अरबों दिए, उसने उसे दुत्कारा और यह लड़की, जो खुद दिन के 100 रुपये नहीं कमाती, उसे अपनी रोटी दे रही थी। वह उस रोटी को देखता रहा। दशकों बाद राजीव मेहरा की आंखों से आंसू बह निकले। वह जानता नहीं था कि यह एक रोटी उसकी जिंदगी का सबसे महंगा और कीमती सबक बनने वाली थी।
राजीव का परिवर्तन
राजीव का हाथ कांप रहा था। उस हाथ ने करोड़ों के चेक साइन किए थे, महंगी घड़ियां पहनी थीं। दुनिया के बड़े-बड़े लोगों से हाथ मिलाया था। आज वही हाथ एक सूखी रोटी पकड़ने में कांप रहा था। भूख इतनी ज्यादा थी कि वह रोटी पर टूटना चाहता था, लेकिन उसका बचा खुचा स्वाभिमान उसे रोक रहा था। प्रिया ने उसकी झिझक देखी। वह वहीं उसके पास बारिश से गीली सीढ़ियों पर बैठ गई।
उसने अपने छोटे से बैग से पानी की एक बोतल निकाली और राजीव की तरफ बढ़ा दी। “पानी पी लो बाबा, अटक जाएगी।” राजीव ने हैरानी से प्रिया को देखा। यह लड़की उससे घिन नहीं कर रही थी। वह उसके फटे मैले कपड़ों और बढ़ी हुई दाढ़ी के पार देख रही थी। वह उसे एक इंसान के तौर पर देख रही थी। पिछले तीन महीनों में यह पहली बार हुआ था। राजीव ने कांपते हाथों से रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा। जैसे ही पहला निवाला उसके गले से नीचे उतरा, उसकी आंखें फिर से भर आईं। यह सिर्फ अनाज नहीं था। यह किसी की दया थी। किसी की इंसानियत का सबूत था।
वह जानवर की तरह नहीं, बल्कि धीरे-धीरे खाने लगा। हर निवाले का स्वाद लेते हुए। “तुम्हारा नाम क्या है?” राजीव की आवाज, जो कभी बोर्ड रूम में गूंजती थी, आज फटी और दबी हुई निकली। “प्रिया,” उसने सहजता से जवाब दिया। “और आप, आप तो यहां के नहीं लगते। पहले कभी नहीं देखा।” राजीव क्या कहता? क्या कहता कि मैं राजीव मेहरा हूं, कि यह पूरा शहर कभी मेरा था। वह कड़वाहट से हंसा। “मैं कोई नहीं हूं। बस एक बदनसीब आदमी।”
विक्रम की उपस्थिति
प्रिया ने उसकी बात को टाला नहीं। बस एक गहरी सांस ली। “बदनसीब तो मैं भी हूं बाबा। दिन भर में 100 रुपये की लॉटरी बिक जाए तो बड़ी बात है। पर मेरी मां कहती हैं, ‘किस्मत टिकट में नहीं, कर्म में होती है।’ आज नहीं तो कल अच्छा वक्त आएगा।” उसी पल मंदिर के सामने वाली सड़क पर जहां ट्रैफिक सिग्नल पर रुका था, एक चमचमाती काली Mercedes आकर रुकी। राजीव की नजर उस पर पड़ी। वीआईपी नंबर प्लेट 777, यह उसकी गाड़ी थी। अंदर विक्रम बैठा था, अपने किसी दोस्त के साथ हंस रहा था। उसने एक पल के लिए भी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरफ नहीं देखा। सिग्नल हरा हुआ और गाड़ी रफ्तार से आगे बढ़ गई।
राजीव का कलेजा मुंह को आ गया। उसका बेटा, उसका खून, उससे कुछ ही गज की दूरी पर था। लेकिन उन दोनों के बीच एक पूरी दुनिया का फासला था। एक तरफ वह जो उसे पहचान भी नहीं सका और दूसरी तरफ यह अनजान लड़की जो उसे अपनी रोटी खिला रही थी। कड़वाहट ने उसके दिल को जकड़ लिया। उसने रोटी का आखिरी टुकड़ा मुंह में डाला। यह अब सिर्फ रोटी नहीं थी। यह एक प्रण बन गई थी।
राजीव का संकल्प
प्रिया उठी। बारिश थोड़ी कम हो गई थी। “चलो बाबा, मेरा जाने का वक्त हो गया। मां राह देख रही होगी।” राजीव ने उसे देखा। “यह रोटी तुम्हारा एहसान?” प्रिया मुस्कुराई। “यह एक ऐसी मुस्कान थी जो गरीबी के बावजूद सच्ची थी। एहसान कैसा बाबा? भूख किसी को भी लग सकती है। कल अगर मैं भूखी हुई तो क्या पता आप मुझे खिला दें?”
राजीव के दिमाग में एक बंडर चल रहा था। उसे आज तक लगता था कि पैसा ही ताकत है। पैसा ही सब कुछ है। आज उसे समझ आया कि असली ताकत इंसानियत में है। इस लड़की ने, जिसके पास कुछ नहीं था, उसे वह दे दिया जो उसके अरबपति बेटे ने उससे छीन लिया था। जीने की एक वजह, उसने तय कर लिया कि वह मरेगा नहीं। वह इस हाल में नहीं रहेगा। वह वापस लड़ेगा।
लेकिन इस बार पैसे के लिए नहीं, बल्कि प्रिया जैसी अच्छाई को यह बताने के लिए कि दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है। प्रिया के जाने के बाद राजीव मेहरा घंटों वहीं बैठा रहा। बारिश हल्की हो चुकी थी। लेकिन उसके अंदर एक तूफान उठा हुआ था। वह उस सूखी रोटी के बारे में सोचता रहा। वह रोटी नहीं, जिंदगी थी। वह इंसानियत थी। वह एक सबूत थी कि दुनिया जिसे वह सिर्फ पैसे और मुनाफे के तराजू पर तोलता आया था, असल में दया और करुणा भटकी थी।

नई शुरुआत
उस रात राजीव मंदिर की सीढ़ियों से उठकर पास के एक खाली बस स्टॉप की बेंच पर लेट गया। ठंड पहले जितनी ही थी। पेट अभी भी खाली था। लेकिन आज उसे नींद आई। तीन महीनों में पहली बार उसे जमीन की ठंडक नहीं बल्कि उस रोटी की गर्माहट महसूस हो रही थी। अगली सुबह वह प्रिया के आने से पहले ही मंदिर की सीढ़ियों पर पहुंच गया। वह भिखारी नहीं रहा था। वह अब एक इंतजार करने वाला शख्स बन गया था।
जैसे ही प्रिया ने अपना छोटा सा स्टूल लगाया, राजीव को देखकर वह मुस्कुराई। “आज यहां हो बाबा। तबीयत ठीक है?” राजीव ने सिर्फ सिर हिलाया। आज वह कुछ मांगने नहीं आया था। आज वह कुछ देने आया था। हालांकि उसके पास देने को कुछ नहीं था। वह बस चुपचाप बैठकर प्रिया को काम करते हुए देखने लगा।
प्रिया का संघर्ष
वह पूरा दिन वहीं बैठा रहा। उसने देखा कि प्रिया सिर्फ अपने स्टूल पर बैठी रहती थी। लोग आते जाते पर कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं देता था। वह बस उम्मीद में बैठी रहती कि कोई उससे एक टिकट खरीद ले। शाम तक उसने मुश्किल से ₹50 कमाए थे। उसकी उदास आंखें देखकर राजीव का दिल, जो अब पत्थर से वापस मांस का बन रहा था, पसीज गया।
शाम को जब प्रिया जाने लगी, राजीव ने आखिरकार अपनी खामोशी तोड़ी। उसकी आवाज अभी भी कमजोर थी, लेकिन उसमें एक अधिकार था। “तुम यह गलत तरीके से कर रही हो,” उसने कहा। प्रिया रुकी। उसे लगा शायद बाबा भीख मांग रहे हैं। उसने अपने झोले से एक बिस्किट का पैकेट निकाला। “ये लो बाबा। आज बिक्री अच्छी नहीं हुई। बस यही है।”
राजीव ने बिस्किट लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। “मैं भीख नहीं मांग रहा। मैं तुम्हारे काम के बारे में कह रहा था।” “हां, हूं,” प्रिया हैरान रह गई। यह भिखारी जैसा दिखने वाला आदमी उसे व्यापार सिखाने की बात कर रहा था। राजीव ने अपनी उंगली से सिग्नल की तरफ इशारा किया। “तुम यहां मंदिर के कोने में बैठी हो। यहां कौन देखेगा? तुम्हारी जगह वहां है।”
राजीव की सलाह
प्रिया ने झल्ला कर कहा, “बाबा, वहां ट्रैफिक पुलिस भगा देती है और वैसे भी जिसे लेना होगा, वह वही ले रहा है जिसे तुम बेच रही हो।” राजीव ने उसकी बात काटी। “तुम लॉटरी बेच रही हो। तुम किस्मत नहीं, तुम उम्मीद बेच रही हो। जो आदमी अपनी महंगी गाड़ी में बैठा है, वह भी दुखी हो सकता है। उसे उम्मीद चाहिए। जो बाइक पर जा रहा है, उसे अमीर बनने की उम्मीद चाहिए। तुम कोने में बैठकर उम्मीद कैसे बेच सकती हो?”
प्रिया देखती रह गई। इस आदमी की आंखों में एक अजीब सी चमक थी। भिखारियों वाली लाचारी नहीं, बल्कि किसी माहिर खिलाड़ी वाली समझ। जब सिग्नल लाल हो, राजीव ने कहना जारी रखा। “तब तुम गाड़ियों के बीच जाओ। स्टूल पर मत बैठो। लोगों की आंखों में देखो। उनसे यह मत कहो कि टिकट ले लो। उनसे कहो, ‘क्या पता आज आपकी किस्मत खुल जाए।’ लोगों को सामान नहीं, सपना बेचो।”
यह वह राजीव मेहरा था जिसने जमीन बेचकर लोगों को आसमान के सपने बेचे थे। यह वे अरबपति थे जो जानता था कि हर इंसान की कीमत उसकी जरूरत नहीं, उसकी उम्मीद तय करती है।
प्रिया की नई शुरुआत
प्रिया कुछ देर सोचती रही। उसे यह सब अजीब लग रहा था। लेकिन इस बाबा की बातों में एक वजन था। “कल कोशिश करूंगी,” उसने धीरे से कहा और चली गई। राजीव देखता रहा। वह जानता था कि उसने सिर्फ सलाह नहीं दी है। उसने अपने वापस आने का पहला दाम खेल दिया है।
अगली सुबह प्रिया के मन में एक अजीब सी कशमकश थी। वह बाबा की बातें रात भर सोचती रही थी। “उम्मीद बेचो सामान नहीं।” यह बात उसके दिल में घर कर गई थी। उसने आज मंदिर के कोने में अपना स्टूल नहीं लगाया। उसने अपने सारे लॉटरी टिकट अपने झोले में रखे। पानी की बोतल ली और गहरी सांस भरकर उस तपते सिग्नल की ओर चल पड़ी।
संघर्ष का सामना
पहले 15 मिनट उसके लिए नर्क जैसे थे। गाड़ियों का धुआं, ड्राइवरों की घूरती आंखें और हॉर्न का शोर। वह हर लाल बत्ती पर कांपते हुए आगे बढ़ती। “टिकट ले लो, साहब,” उसकी आवाज धुएं में दब जाती। लोग उसे भगा देते। शीशे चढ़ा लेते। वह लगभग हार मानकर वापस मंदिर की सीढ़ियों पर जाने ही वाली थी। तभी उसे बाबा का चेहरा याद आया। उनकी आंखों में एक अजीब सी समझदारी थी।
अगली लाल बत्ती पर एक बड़ी सी Audi कार रुकी। अंदर एक बिजनेसमैन जैसा दिखने वाला आदमी फोन पर किसी पर चिल्ला रहा था। वह तनाव में लग रहा था। प्रिया हिम्मत करके उसके शीशे के पास गई और हल्के से खटखटाया। आदमी ने गुस्से में शीशा नीचे किया। “क्या है? छुट्टे नहीं हैं। जाओ यहां से।”
प्रिया इस बार डरी नहीं। उसने अपनी सबसे साफ आवाज में कहा, “साहब, छुट्टी नहीं चाहिए। बस यह कहना चाहती हूं, क्या पता आज आपकी किस्मत खुल जाए।” आदमी जो अभी-अभी किसी डील के बिगड़ने पर चिल्ला रहा था, एक पल के लिए रुक गया। उसने प्रिया को देखा। यह लड़की बाकी भिखारियों या सामान बेचने वालों जैसी नहीं थी। उसकी आंखों में भीख नहीं, एक अजीब सी पेशकश थी। “किस्मत खुल जाए,” यह शब्द उसे चुभ गए।
वह मुस्कुराया नहीं, पर उसका गुस्सा कम हो गया। “हम कितने का है?” “₹10 का एक, सब पर आप 100 का बंडल लीजिए। क्या पता?” “ठीक है। ठीक है। यह लो,” उसने 500 का नोट निकाला। “पूरे दे दो और सुनो, छुट्टे तुम ही रख लो।” प्रिया के हाथ कांप गए। ₹500 एक झटके में। सिग्नल हरा हो गया और गाड़ी चली गई। लेकिन प्रिया वहीं खड़ी रह गई। यह काम कर गया था। बाबा सही थे।
आत्मविश्वास की वृद्धि
उस दिन प्रिया रुकी नहीं। उसका डर आत्मविश्वास में बदल गया। वह अब “टिकट ले लो” नहीं कह रही थी। वह हर शीशे पर जाकर कहती, “आज का दिन आपका हो सकता है,” या “उम्मीद पर दुनिया कायम है।” वह सिर्फ लॉटरी नहीं बेच रही थी। वह 2 मिनट की खुशी, 2 मिनट का सपना बेच रही थी।
शाम को जब वह वापस मंदिर के पास आई, तो उसका झोला खाली था। सारे टिकट बिक चुके थे। आज उसकी कमाई ₹800 थी। उसकी 8 दिन की कमाई के बराबर। वह भागती हुई बाबा के पास आई, जो बस स्टॉप की बेंच पर बैठे आसमान को घूर रहे थे। “बाबा, बाबा,” वह हाफ रही थी। “सारे बिक गए। आपने सही कहा था।”
उसने अपनी जेब से ₹100 का एक नोट निकाला और राजीव के हाथ में रखने की कोशिश की। “यह आपका हिस्सा है। आपकी सलाह के बिना यह नहीं होता।” राजीव मेहरा के चेहरे पर महीनों बाद एक हल्की सी मुस्कान आई। उसने पैसे लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। “यह तुम्हारी मेहनत है। प्रिया, मेरी सलाह नहीं।”
राजीव का प्रस्ताव
पर वह एक पल के लिए रुका। “अगर तुम सच में मेरी मदद करना चाहती हो तो कल इन पैसों से मेरे लिए एक चीज ला सकती हो।” “क्या खाना?” “नए कपड़े,” प्रिया उत्साह में थी। राजीव ने सड़क के किनारे रद्दी में पड़े एक कागज की तरफ देखा। “नहीं, मेरे लिए एक बिजनेस टाइम्स का नया अखबार ले आना।”
प्रिया हैरान रह गई। यह बेघर, फटे हाल आदमी जो भीख नहीं ले रहा, वह बिजनेस का अखबार क्यों मांग रहा था। उसे पहली बार एहसास हुआ कि जिस बाबा को वह रोटी खिला रही थी, वह कोई आम भिखारी नहीं था।
अगली सुबह का संघर्ष
अगली सुबह प्रिया जल्दी उठी। वह बाबा के लिए सिर्फ अखबार नहीं, बल्कि अपनी आज की कमाई से खरीदे हुए दो ताजे वड़ा पांव और चाय भी लेकर आई। वह अजीब सा महसूस कर रही थी। एक भिखारी जो बिजनेस का अखबार पढ़ता हो। यह बात उसे हजम नहीं हो रही थी। जब वह बस स्टॉप पहुंची, तो राजीव वहीं बेंच पर बैठे थे। लेकिन आज उनकी भंगिमा अलग थी। वह सो नहीं रहे थे। वह इंतजार कर रहे थे।
उनकी आंखें सड़क पर टिकी थीं, जैसे किसी जरूरी मीटिंग का इंतजार हो। “बाबा, ये लो,” प्रिया ने पहले बड़ा पांव और चाय का लिफाफा सक्खा बढ़ाया। राजीव ने उसकी तरफ देखा लेकिन खाना नहीं लिया। उनकी नजरें सीधे अखबार पर टिकी थीं, जो प्रिया ने अपने झोले में रखा था।
राजीव का विश्लेषण
राजीव ने लगभग आदेश देते हुए कहा, “प्रिया, अखबार।” प्रिया ने झिझकते हुए बिजनेस टाइम्स उन्हें थमा दिया। राजीव ने खाना पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने अखबार को ऐसे झपट्टा मारकर खोला, जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है। प्रिया वहीं खड़ी देखती रही। बाबा की उंगलियां तेजी से पन्नों पर दौड़ रही थीं। वह सिर्फ देख नहीं रहे थे। वह पढ़ रहे थे।
उनकी आंखें, उनकी आंखें एक भिखारी की नहीं थीं। उनमें आग थी। एक विश्लेषक की पैनी नजर थी। वह अखबार के स्टॉक मार्केट वाले पन्ने पर आकर रुक गए। वह कुछ देर तक आंकड़ों को घूरते रहे। फिर उनके मुंह से बुदबुदाहट निकली। “बेवकूफ, सरासर बेवकूफ। फार्मा स्टॉक बेच रहा है।” वह खुद से बात कर रहे थे। “विक्रम, तुमने सब बर्बाद कर दिया। यह डील मैंने 6 महीने की मेहनत से खड़ी की थी और इस गधे ने उसे कौड़ियों के भाव बेच दिया।”
प्रिया का सवाल
प्रिया कांप गई। “विक्रम को जानते हैं?” यह वही नाम था जो उस दिन उस Mercedes के मालिक के तौर पर किसी ने पुकारा था। तभी राजीव की नजर अखबार के मुख्य पन्ने पर छपी एक तस्वीर पर पड़ी। तस्वीर में उनका बेटा विक्रम किसी मंत्री से हाथ मिला रहा था। हेडलाइन थी, “मेहरा ग्रुप के नए सीईओ विक्रम मेहरा ने कंपनी को नई दिशा दी।”
राजीव का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने अखबार को अपनी मुट्ठी में ले लिया। “नई दिशा? बर्बादी। इसे बर्बादी कहते हैं।” प्रिया अब और चुप नहीं रह सकी। उसकी आवाज में डर और जिज्ञासा दोनों थी। “बाबा, आप कौन हैं? आप यह सब कैसे जानते हैं? आप विक्रम मेहरा को कैसे जानते हैं?”
राजीव का परिचय
राजीव ने अखबार की मुड़ी तुड़ी गेंद को जमीन पर फेंक दिया। उन्होंने गहरी लंबी सांस ली, जैसे तीन महीने का जहर एक साथ बाहर थूक रहे हों। वह बेंच से उठे और प्रिया के सामने खड़े हो गए। उनकी लंबाई, उनके फटे कपड़ों के बावजूद एक अधिकार रखती थी। “मैं उसे जानता हूं,” राजीव की आवाज अब फटी हुई नहीं, बल्कि गहरी और ठहरी हुई थी। “क्योंकि उस गद्दे का बाप मैं हूं।”
प्रिया के पैरों तले जमीन खिसक गई। “क्या मेरा नाम राजीव मेहरा है?” उन्होंने कहा और पहली बार प्रिया को उनकी आंखों में भिक्षा नहीं, बल्कि अरबों की सल्तनत का घमंड और दर्द एक साथ दिखा। “और जिस विक्रम मेहरा की तस्वीर तुम अखबार में देख रही हो, वह मेरा बेटा है। वही जिसने मुझसे मेरा सब कुछ छीनकर मुझे इस मंदिर की सीढ़ियों पर मरने के लिए छोड़ दिया।”
प्रिया का एहसास
प्रिया सन्न रह गई। उसे वह काली Mercedes, वह 777 नंबर, वह बिजनेस की सलाह सब कुछ एक पल में समझ आ गया। वह किसी भिखारी की नहीं, बल्कि इस शहर के सबसे बड़े अरबपति की मदद कर रही थी, जो अब बेघर था। प्रिया जड़वत खड़ी थी। उसके हाथ से बड़ा पांव का लिफाफा छूटकर जमीन पर गिर गया।
“राजीव मेहरा,” यह नाम सिर्फ अखबारों में, ऊंची इमारतों पर या शहर के सबसे बड़े चैरिटी इवेंट्स में सुनाई देता था। और वह आदमी, जिसने पिछले दो दिनों से उसके हाथ की दी हुई सूखी रोटी और बिस्किट पर जिंदा था। वह आदमी जिसने उसे धंधा करने का वह तरीका सिखाया जो किसी एमबीए स्कूल में पढ़ाया जाता होगा।
राजीव का संकल्प
“लेकिन आप यहां इस हाल में?” प्रिया की आवाज बमुश्किल निकली। उसे लगा कि या तो यह बाबा पागल हो गया है या फिर वह खुद कोई सपना देख रही है। राजीव ने जमीन पर पड़ा हुआ मुड़ाता अखबार उठाया। उन्होंने विक्रम की तस्वीर के ठीक नीचे मेहरा ग्रुप के लोगों पर अपनी गंदी उंगली रखी। “यह मैंने बनाया था। अपने हाथों से। इस लोगों का हर कोना मेरी सोच थी और मेरा बेटा विक्रम ने मुझसे सिर्फ मेरी कंपनी नहीं छीनी। उसने मुझसे मेरा नाम छीन लिया। उसने मुझे कोई नहीं बना दिया।”
राजीव की आंखों में अब आंसू नहीं थे। उनमें एक ठंडी, खतरनाक आग जल रही थी। तीन महीने का अपमान, भूख और ठंड सब मिलकर अब एक भट्टी सी बन चुके थे। “वह सोचता है कि मैं मर जाऊंगा,” राजीव ने कहा। “वह रोज यही दुआ करता होगा। उसे लगता है कि इन फटे कपड़ों में मुझे कोई नहीं पहचानेगा। वह सही है। कोई मुझे नहीं पहचान रहा सिवाय तुम्हारे।”
नई शुरुआत की ओर
राजीव ने प्रिया की तरफ देखा। उनकी नजरें अब एक लाचार बुजुर्ग की नहीं, बल्कि एक शतरंज के माहिर खिलाड़ी की थीं, जिसे अपना खोया हुआ वजीर वापस मिल गया हो। “प्रिया,” उन्होंने कहा और इस बार उनकी आवाज में वह अधिकार था जिसने यह सल्तनत खड़ी की थी। “तुमने मुझे रोटी दी। तुमने मुझे मेरा वजूद याद दिलाया। अब मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।”
प्रिया का दिल जोर से धड़का। “मदद? मैं क्या कर सकती हूं?” “बाबा, मतलब मेहरा साहब,” प्रिया ने कहा। “बाबा ही ठीक है,” राजीव कड़वाहट से मुस्कुराए। “अभी मैं वहीं हूं। सुनो, मेरे पास फोन नहीं है। मेरे बैंक अकाउंट फ्रीज हो चुके हैं। मेरा घर अब मेरा नहीं रहा। मैं इस बेंच से उठकर उस सिग्नल तक भी जाऊंगा तो विक्रम के सिक्योरिटी गार्ड्स मुझे पागल समझकर भगा देंगे। मैं कैद हूं स्कूली सड़क पर।”
राजीव ने प्रिया के और करीब आए। “लेकिन विक्रम एक गलती कर गया। वही यह भूल गया कि कंपनी भले ही उसके नाम हो। पर कुछ लोग आज भी वफादारी का मतलब समझते हैं।” “आपको क्या करना होगा?” प्रिया ने पूछा। “मेहरा ग्रुप की पुरानी फैक्ट्री, जो शहर के बाहर है, वहां तुम्हें जाना होगा। वहां तुम्हें एक आदमी मिलेगा—घनश्याम मिश्रा। वह मेरा पुराना अकाउंटेंट है। पर मैंने उसे कभी अकाउंटेंट नहीं समझा। वह मेरा दाहिना हाथ था। विक्रम ने उसे फैक्ट्री का इंचार्ज बनाकर फेंक दिया क्योंकि मिश्रा जी उस जाली वसीयत के वक्त मेरे साथ थे।”
राजीव का विश्वास
राजीव ने अपनी फटी जेब में हाथ डाला और एक छोटा सा मुड़ातड़ा कागज का टुकड़ा निकाला। यह शायद प्रिया के लाए अखबार से ही फाड़ा गया था। उन्होंने पास पड़ी एक जली हुई लकड़ी के कोयले से उस पर कुछ लिखा। वह एक नंबर था। “यह मिश्रा जी का पुराना नंबर है। शायद अब काम ना करे। अगर करे तो उसे सिर्फ इतना कहना, ‘राजीव’ एक पल रुके। ‘उसे कहना, पुराना बाज अभी जख्मी है पर उसने उड़ना नहीं छोड़ा है। वह अपने पंख वापस मांग रहा है’ और अगर फोन ना लगे तो तुम्हें फैक्ट्री जाना होगा। किसी भी तरह उससे मिलना होगा। यह कागज उसे देना।”
प्रिया ने वह छोटा सा कागज का टुकड़ा देखा। वह जानती थी कि वह सिर्फ कागज नहीं, एक चिंगारी थी। यह अमीरों का खतरनाक खेल था। इसमें उसकी जान भी जा सकती थी। “मैं करूंगी,” प्रिया ने आखिरकार कहा। उसकी आवाज में डर था, पर उससे ज्यादा उस बाबा के लिए सम्मान था जिसने उसे उम्मीद बेचना सिखाया था।
प्रिया का साहस
“शाबाश,” राजीव ने कहा। “पर एक बात याद रखना प्रिया। आज से तुम सिर्फ लॉटरी नहीं बेच रही हो। आज से तुम मेरी किस्मत बेच रही हो। सावधान रहना। विक्रम की आंखें हर जगह हैं।” प्रिया के लिए अगले 24 घंटे किसी धुंधलके से कम नहीं थे। उसने अपनी सारी जमा पूंजी जो उसने बाबा की सलाह से पिछले दो दिनों में जोड़ी थी, उस पुरानी फैक्ट्री तक पहुंचने में खर्च कर दी।
शहर के बाहर वीराने में खड़ी वह इमारत राजीव मेहरा के साम्राज्य के पतन की गवाही दे रही थी। डरते-डरते वह चौकीदार को चकमा देकर अंदर पहुंची। जैसा राजीव ने बताया था, उसे घनश्याम मिश्रा एक छोटे से धूल भरे केबिन में मिले। वह एक बुझे हुए दिए जैसे लग रहे थे। एक ऐसा आदमी जिसे उसकी वफादारी की सजा दी गई हो। “क्या चाहिए?” मिश्रा ने बिना नजर उठाए रूखेपन से पूछा।
प्रिया की आवाज कांप रही थी। “मैं किसी का पैगाम लाई हूं।” उसने वह कोयले से लिखा कागज का टुकड़ा मेज पर रख दिया। मिश्रा ने उसे उठाया, पढ़ा और फिर फेंक दिया। “यह क्या मजाक है? कोई नंबर?” उन्होंने कहा। प्रिया ने अपनी आंखें बंद की और राजीव के शब्दों को याद किया।
मिश्रा का विश्वास
“उन्होंने कहा, ‘पुराना बाज अभी जख्मी है। पर उसने उड़ना नहीं छोड़ा है।’ ” मिश्रा के हाथ, जो पुराने रजिस्टरों पर चल रहे थे, वहीं जम गए। उन्होंने अपनी ऐनक उतारी और पहली बार प्रिया को घूर कर देखा। उनकी आंखों में अविश्वास, फिर हैरानी और फिर एक दबी हुई वफादारी की चमक जागी। “यह कोड था। यह उनका और राजीव साहब का कोड था जो उन्होंने 20 साल पहले कंपनी के पहले बड़े क्राइसिस के वक्त बनाया।”
“साहब कहां है?” मिश्रा की आवाज में दशकों का सम्मान लौट आया। मंदिर की सीढ़ियों पर प्रिया की आंखों में आंसू आ गए। मिश्रा उसी वक्त उठ खड़े हुए। “विक्रम बेवकूफ है।” वह तेजी से बोले। “उसने सोचा उसने सब जीत लिया। पर वह भूल गया। बाज अपने अंडे कभी एक टोकरी में नहीं रखता।”
राजीव की वापसी
मिश्रा प्रिया को एक पुराने सीलबंद कमरे में ले गए। वहां फाइलों का ढेर था। “साहब ने अपनी सबसे बड़ी सब्सिडियरी कंपनी के गोल्डन शेयर्स मेरे नाम पर एक ट्रस्ट में रखे थे। यह एक फेलफ था। वसीयत जाली हो सकती है। पर यह ट्रस्ट डीड असली है और इसकी शर्त है कि अगर कंपनी का मूल हित खतरे में हो तो ट्रस्ट सारे वोटिंग अधिकार वापस ले सकता है।”
राजीव का अखबार मांगना अब समझ में आया। “विक्रम का फार्मा डील को बेचना यह मूल हित को खतरे में डालना ही था।” कहानी इसके बाद तेजी से बदली। घनश्याम मिश्रा ने प्रिया को सुरक्षित वापस भेजा। वह होस रात राजीव मेहरा से मिली। दो वफादार, जो सड़क पर थे, अब एक हो गए थे।
अगले कुछ हफ्तों में मेहरा ग्रुप के बोर्ड रूम में भूचाल आ गया। घनश्याम मिश्रा ने ट्रस्ट डीड और विक्रम के खिलाफ प्रबंधन के सबूत पेश किए। राजीव मेहरा, साफ कपड़ों में भले ही कमजोर, लेकिन टूटे नहीं। आखिरी मीटिंग में खुद पेश हुए। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस अपने बेटे की आंखों में देखा। विक्रम का तख्ता पलट हो गया। कानूनी जांच शुरू हुई और जाली वसीयत का पर्दाफाश हो गया। विक्रम और उसकी मां को कंपनी से बेदखल कर दिया गया।
नई शुरुआत
छह महीने बाद वही मंदिर की सीढ़ियां पर नजारा अलग था। एक नई चमकदार गाड़ी आकर रुकी। राजीव मेहरा बाहर निकले। वह अब अरबपति नहीं, एक संतुष्ट इंसान लग रहे थे। प्रिया भी वहीं थी। लेकिन वह अब लॉटरी नहीं बेच रही थी। मंदिर के पास ही “प्रिया की रसोई” नाम का एक छोटा सा स्टॉल था, जहां हर रोज सैकड़ों गरीबों को मुफ्त में खाना खिलाया जाता था।
यह राजीव मेहरा की तरफ से उस एक रोटी का ब्याज था। राजीव ने प्रिया के सर पर हाथ रखा। “तुमने मुझे उस दिन रोटी खिलाकर खरीद लिया था बेटी।” प्रिया बस मुस्कुरा दी। तभी राजीव की नजर सीढ़ियों के एक कोने पर पड़ी। वहां एक आदमी फटे कपड़ों में चेहरा छिपाए बैठा भीख मांग रहा था। लोग उसे दुत्कार रहे थे। वह विक्रम मेहरा था।
राजीव ने उसे देखा। एक लंबी सांस ली और अपनी जेब से 100 का नोट निकालकर प्रिया को दिया। “जाओ, उसे दे दो। कहो, भूख किसी को भी लग सकती है।”
निष्कर्ष
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि इंसानियत और दया सबसे बड़ी ताकत है। राजीव मेहरा ने अपनी खोई हुई पहचान को फिर से पाया, और प्रिया ने अपनी मेहनत से अपने जीवन में बदलाव लाया। असली ताकत पैसे में नहीं, बल्कि एक-दूसरे की मदद करने में होती है।
किसी की मदद करना, चाहे वह भिखारी हो या अमीर, हमेशा याद रखा जाता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि कठिनाइयों में भी उम्मीद की एक किरण होती है, जिसे हमें पहचानना और पकड़ना होता है।
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