जब IPS मैडम की माँ बैंक में पैसे निकालने गई, तो सबने उसे भिखारी समझकर लात मारी। फिर जो हुआ…

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कहानी: जब डीएम मैडम की माँ को भिखारी समझकर अपमानित किया गया… फिर जो हुआ

सुबह के दस बजे थे। जिले का सबसे बड़ा सरकारी बैंक अपनी रोज़ की चहल-पहल में डूबा था। अमीर व्यापारियों की भीड़, चमचमाती गाड़ियों के मालिक और सफेदपोश अफसरों का आना-जाना लगा था। इसी भीड़ में एक साधारण सी बुजुर्ग महिला, हल्की-सी झुकी कमर, सादी साड़ी, पैरों में घिसी हुई चप्पलें और चेहरे पर उम्र की थकान लिए, बैंक के गेट से अंदर दाखिल हुई। उसकी चाल में संकोच था, आंखों में डर और हाथ में एक पुराना सा चेक।

महिला बैंक के काउंटर की तरफ बढ़ी, लेकिन बैंक के गार्ड कल्पना ने रास्ता रोक लिया।
“कहाँ जा रही हो अम्मा?”
“बेटी, पैसे निकालने हैं, ये रहा चेक…”
कल्पना ने बिना देखे ही तिरस्कार भरी नजरों से कहा, “यह बैंक तुम्हारे जैसे भिखारियों के लिए नहीं है। बाहर जाओ, वरना खदेड़ दूंगी।”
महिला ने विनती की, “बेटी, चेक तो देख ले, मुझे मेरे ही पैसे निकालने हैं…”
कल्पना ने गुस्से में कहा, “पांच लाख रुपये निकालने आई हो? क्या मजाक है! तुम्हारी औकात है कभी इतने पैसे देखने की?”
भीड़ में खड़े लोग हँस पड़े। किसी ने आगे बढ़कर मदद नहीं की। तभी बैंक मैनेजर तेज़ कदमों से आया और बिना कुछ पूछे, गुस्से में महिला के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया।
“यहाँ भीख मांगने आई हो? निकलो यहाँ से!”


कल्पना ने महिला को धक्के मारकर बाहर निकाल दिया। लोग तमाशा देखते रहे, किसी ने विरोध नहीं किया।

अपमान की आग में जलती हुई वह महिला घर लौटी और अपनी बेटी डीएम नुसरत को फोन कर सब बता दिया। नुसरत ने माँ को दिलासा दिया, “माँ, कल मैं खुद तुम्हारे साथ बैंक चलूँगी। अब किसी की हिम्मत नहीं होगी तुम्हें अपमानित करने की।”

अगले दिन सुबह, नुसरत ने सादी सूती साड़ी पहनी, माँ का हाथ थामा और दोनों बैंक पहुँचीं। बैंक खुलने से पहले ही वे गेट पर थीं। लोग उन्हें देखकर फिर से तिरस्कार भरी नजरों से देखने लगे, “देखो, वही बूढ़ी और उसकी बेटी फिर आ गईं। गरीब लगती हैं, इनका यहाँ क्या काम?”

दोनों धीरे-धीरे काउंटर की तरफ बढ़ीं। कल्पना ने फिर वही तिरस्कार दिखाया, “आप लोग गलत बैंक में आ गई हैं। यहाँ बड़े लोगों के खाते हैं।”
नुसरत ने शांत स्वर में कहा, “मैडम, एक बार चेक देख लीजिए, फिर जो उचित हो कीजिएगा।”
कल्पना ने अनमने ढंग से चेक लिया और बोली, “बैठ जाइए, बुलाऊँगी।”
माँ-बेटी कोने में बैठ गईं। चारों तरफ फुसफुसाहट थी, “किस गाँव से आई हैं? पेंशन लेने आई होंगी।”
नुसरत सब सुन रही थी, लेकिन धैर्यपूर्वक बैठी रही। माँ की आँखों में आंसू थे, लेकिन बेटी के आत्मविश्वास ने उन्हें संभाले रखा।

कुछ देर बाद नुसरत ने कहा, “अगर आप व्यस्त हैं, तो मैनेजर से मिलवा दीजिए।”
कल्पना ने फोन घुमाया, “सर, दो महिलाएँ आपसे मिलना चाहती हैं।”
मैनेजर ने झांककर देखा, “इन लोगों को बैठा रहने दो, मेरे पास फालतू वक्त नहीं है।”
नुसरत ने माँ का हाथ दबाया, “माँ, अब मुझे ही कुछ करना होगा।”

वह सीधे मैनेजर के केबिन में गई, “सर, मेरी माँ को पैसे निकालने हैं, यह चेक है।”
मैनेजर ने बिना देखे कहा, “तुम्हारे जैसे लोगों के खाते में पैसे नहीं होते। जाओ, भीड़ मत करो।”
नुसरत ने संयम से कहा, “अगर एक बार चेक देख लें तो…”
मैनेजर हँस पड़ा, “चेहरा देखकर ही बता सकता हूँ, किसके पास क्या है। जाओ, यहाँ से।”
नुसरत ने चुपचाप लिफाफा मेज पर रखा, “इसमें जो लिखा है, एक बार पढ़ लीजिएगा।”
वह माँ का हाथ पकड़कर बाहर जाने लगी। दरवाजे पर पहुँचकर रुक गई, गहरी नजरों से बोली, “समय सब सिखा देता है, बेटा।”

पूरा बैंक सन्नाटे में था। मैनेजर ने लिफाफा नहीं खोला, बस बड़बड़ाता रहा, “आजकल हर कोई बड़ा आदमी बनने चला है।”

अगले दिन बैंक का माहौल बदला हुआ था। वही बुजुर्ग महिला, लेकिन इस बार उनके साथ एक अधिकारी था – सूट-बूट में, ब्रीफकेस लिए। पूरे बैंक की नजरें उनकी ओर थीं।
महिला सीधे मैनेजर के सामने पहुँची, “मैनेजर साहब, कल मैंने कहा था, आपके व्यवहार का परिणाम भुगतना पड़ेगा।”
मैनेजर घबराकर बोला, “आप कौन हैं मुझे सिखाने वाली?”
महिला मुस्कराई, “ये मेरे कानूनी सलाहकार हैं और मैं नुसरत हूँ – जिले की डीएम, इस बैंक की 8% शेयरहोल्डर और यह मेरी माँ हैं।”

पूरा बैंक स्तब्ध रह गया। मैनेजर का चेहरा सफेद पड़ गया।
नुसरत ने कठोर स्वर में कहा, “आपको तत्काल मैनेजर के पद से हटाया जाता है। आपकी पोस्टिंग अब फील्ड में होगी, जहाँ आपको रोज़ साधारण लोगों से मिलकर रिपोर्ट बनानी होगी।”
उन्होंने आदेश पत्र और कारण बताओ नोटिस टेबल पर रखा।
मैनेजर काँपते स्वर में बोला, “मैडम, माफ कर दीजिए।”
नुसरत की आँखों में न्याय की चमक थी, “माफी किस बात की? सिर्फ मेरा नहीं, हर गरीब ग्राहक का अपमान किया है। बैंक की गाइडलाइन कहती है – हर ग्राहक बराबर है। अगली बार तुम्हारा नाम नहीं, पहचान मिटा दी जाएगी।”

फिर उन्होंने कल्पना को बुलाया।
कल्पना डरते-डरते आई, “मैडम, माफ कर दीजिए। अब कभी किसी को कपड़ों से नहीं आँकूँगी।”
नुसरत ने कहा, “याद रखना, कपड़ों से नहीं, सोच से इंसान बड़ा होता है।”

पूरा बैंक सिर झुकाए खड़ा था।
नुसरत ने जाते-जाते कहा, “जो मानवता को समझता है, वही असली अधिकारी होता है।”
माँ का हाथ पकड़कर वे बाहर निकल गईं।
उस दिन के बाद बैंक का माहौल बदल गया। हर ग्राहक को सम्मान मिलने लगा, चाहे वह किसी भी हालत में क्यों न हो। बैंक के कर्मचारियों की सोच बदल गई – कभी किसी साधारण इंसान को तुच्छ मत समझो, क्या पता वह कल तुम्हारे सामने खास बनकर खड़ा हो।

सीख:
हमारे समाज में आज भी लोग दूसरों को उनके कपड़ों, हालात या परिस्थिति से आंकते हैं। लेकिन असली मानवता है – हर इंसान को बराबर सम्मान देना। अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, जात-पात, पद-प्रतिष्ठा से ऊपर उठकर हर किसी के साथ इंसानियत से पेश आना ही हमारी संस्कृति की असली पहचान है।

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