10 साल तक नौकरी मांगने गया और हर बार हर जगह से ठुकराया गया, आखिर उसने वो कर दिखाया जिसकी कोई कल्पना
10 साल की ‘ना’ और एक नई ‘हाँ’
यह कहानी है सनी की, जिसके लिए ‘ना’ शब्द उसकी ज़िंदगी का सबसे कड़वा सच बन गया था। 10 साल, एक पूरी दहाई—उसने नौकरी की तलाश में शहर-शहर की ख़ाक छानते हुए, दर-दर की ठोकरें खाते हुए गुज़ार दी। हर सुबह वह एक नई उम्मीद के साथ घर से निकलता और हर शाम एक और ‘ना’ सुनकर लौटता।
भाग 1: एक मध्यमवर्गीय सपना
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में पले-बढ़े सनी के पिता रमाकांत जी एक रिटायर्ड क्लर्क थे, जिनकी दुनिया ईमानदारी और एक सुरक्षित भविष्य की चाहत तक सीमित थी। उनकी सबसे बड़ी इच्छा थी कि उनका बेटा दिल्ली या मुंबई जाकर किसी बड़ी कंपनी में ‘बाबू वाली सुरक्षित नौकरी’ करे।
मेहनती और ईमानदार सनी ने कॉमर्स में ग्रेजुएशन पूरी की और पिता के सपने को आँखों में संजोए, अपनी डिग्री की फ़ाइल और कुछ हज़ार रुपये लेकर दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। उसे लगा था कि दिल्ली अवसरों का शहर है, जहाँ उसकी मेहनत को ज़रूर पहचान मिलेगी। उसे नहीं पता था कि यह शहर और आने वाले 10 साल उसकी ज़िंदगी की सबसे कठिन परीक्षा लेने वाले थे।
भाग 2: 10 साल की अंतहीन ‘ना’
दिल्ली में सनी का शुरुआती जोश जल्द ही निराशा में बदल गया। वह रोज़ इंटरव्यू के लिए निकलता, लेकिन हर दरवाज़े पर उसे एक ही जवाब मिलता: “ना”।
बहाना 1: “आप किसी टॉप टियर कॉलेज से नहीं हैं।”
बहाना 2: “आपके पास अनुभव की कमी है।”
बहाना 3: “आपकी अंग्रेजी इतनी अच्छी नहीं है।”
साल गुज़रते गए। उसके साथ दिल्ली आए दोस्त धीरे-धीरे नौकरी पाकर नई बाइकें ख़रीद रहे थे, और सनी दूर से उन्हें देखकर एक झूठी मुस्कान के साथ हाथ हिलाता। उसके सपनों का आकार छोटा होता गया। बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों के ख़्वाब छोटी देसी कंपनियों की हकीक़त में सिमट गए।
लेकिन ‘ना’ शब्द ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। अब रिजेक्शन के कारण और भी अपमानजनक होने लगे थे:
“यार तुममें वह बात नहीं है। तुम्हारे चेहरे पर आत्मविश्वास ही नहीं दिखता।”
उसे सिर्फ़ इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि वह ‘बहुत ज्यादा सीधा-सादा’ लगता था।
अब पिता के फ़ोन पर डांट का दौर शुरू हो गया था। वे पूछते, “आख़िर गड़बड़ कहाँ है? तुम कोशिश भी कर रहे हो या बस हमारे पैसों पर ऐश कर रहे हो?” घर जाना अब एक सज़ा जैसा हो गया था।
भाग 3: निराशा का अंतिम मोड़
महीनों की बेरोज़गारी के बाद, सनी को एक बड़े मॉल के शोरूम में सेल्समैन की नौकरी के लिए इंटरव्यू का कॉल आया—यह उसकी ग्रेजुएशन डिग्री के बहुत नीचे का काम था। जब वह इंटरव्यू के लिए पहुँचा, तो इंटरव्यू लेने वाला शख़्स उसका पुराना क्लासमेट निकला, जो पढ़ाई में उससे कमज़ोर था।
उस दोस्त ने हमदर्दी दिखाते हुए कहा, “यार सनी, बुरा मत मानना, लेकिन यह काम तेरे बस का नहीं है। यहाँ बहुत स्मार्ट और तेज़-तर्रार लड़कों की ज़रूरत होती है। तू तो किसी सरकारी दफ़्तर में क्लर्क बनने के लिए ही ठीक है।“
इस अपमान ने सनी को तोड़ दिया। उसने इंटरव्यू देना बंद कर दिया। 10 साल की ‘ना’ की गूंज में उसका आत्मविश्वास पूरी तरह टूट चुका था। वह माँ-बाप से झूठ बोलने लगा कि उसकी नौकरी लग गई है और दोस्तों से उधार लेकर घर पैसे भेजता था। वह एक ज़िंदा लाश बन चुका था।
10वें साल की एक सर्द सुबह, पिता का फ़ोन आया। उनकी आवाज़ में ठंडी निराशा थी। “बेटा, बहुत हो गया। यह नाटक बंद करो। मुझे सब पता चल गया है। अब वापस आ जाओ। मेरे एक दोस्त की राशन की दुकान पर मुनीम की ज़रूरत है। कम से कम दो वक़्त की रोटी तो इज़्ज़त से कमा लोगे।”
राशन की दुकान पर मुनीम! यह 10 साल की मेहनत का नतीजा था। सनी के अंदर कुछ टूट गया। उसने फ़ोन काटा और बिना किसी मंज़िल के चलता गया।
भाग 4: सरकारी बेंच पर जन्मा विचार
थक हारकर, सनी दक्षिणी दिल्ली के एक हरे-भरे पार्क में पहुँच गया और एक खाली हरे रंग की सरकारी बेंच पर बैठ गया। उसे लगा कि उसकी ज़िंदगी का सफ़र यहीं ख़त्म हो गया है।
दोपहर के वक़्त, पास की कॉर्पोरेट बिल्डिंग्स से सैकड़ों अच्छी तरह कपड़े पहने हुए कर्मचारी लंच के लिए बाहर निकले। सनी ने उन्हें देखा। वे सब बाहर लगे ठेलों पर चिकने, तेल में डूबे हुए नूडल्स या छोले-भटूरे खा रहे थे।
तभी, उसके पास वाली बेंच पर तीन-चार आईटी कर्मचारियों का एक ग्रुप बैठ गया। उनमें से एक ने झुंझलाहट में कहा:
“यार, रोज़-रोज़ यह बाहर का तेल-मसाले वाला खाना खाकर तो पेट ख़राब हो गया है। काश, कोई ऐसी सर्विस होती जो बिल्कुल घर जैसा कम तेल-मसाले वाला पौष्टिक खाना ऑफ़िस में ही पहुँचा देती। मैं तो उसके लिए थोड़े ज़्यादा पैसे भी देने को तैयार हूँ।”
यह साधारण सी बातचीत सनी के सुन्न पड़े दिमाग़ में बिजली की तरह कौंध गई!
घर जैसा खाना! यह एक समस्या थी, एक बहुत बड़ी अनकही ज़रूरत जो इन हज़ारों कर्मचारियों की रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा थी। 10 साल तक वह नौकरी माँग रहा था—एक ऐसी कुर्सी माँग रहा था जिसे किसी और ने बनाया था। आज पहली बार, उसके मन में अपनी ख़ुद की कुर्सी बनाने का विचार आया।
उसे एहसास हुआ कि शायद किस्मत उसे बार-बार इसलिए ठुकरा रही थी, क्योंकि वह किसी के नीचे काम करने के लिए नहीं, बल्कि दूसरों को काम देने के लिए बना था। उस एक पल में, उस सरकारी बेंच पर बैठे एक हारे हुए लड़के के अंदर, एक उद्यमी का जन्म हुआ।
भाग 5: ‘पौष्टिक’ की शुरुआत और पहली ‘हाँ’
सनी ने अपने एक पुराने दोस्त से कुछ हज़ार रुपये उधार लिए। उसने दिल्ली के एक सस्ते इलाक़े संगम विहार में एक छोटा सा कमरा किराए पर लिया—जो उसका घर भी था और उसकी पहली किचन भी। उसने सेकंड-हैंड बर्तन और एक छोटा गैस स्टोव ख़रीदा और अपनी कंपनी का नाम रखा: ‘पौष्टिक’।
उसका बिज़नेस मॉडल सरल था: रोज़ाना सिर्फ़ एक ही तरह का सादा घर जैसा खाना—दाल, चावल, रोटी, सूखी सब्ज़ी, और सलाद। कोई तेल-मसाले का तामझाम नहीं, बस माँ के हाथ जैसा खाना।
उसने ख़ुद अपने हाथों से पर्चे छपवाए, जिन पर लिखा था: “क्या आप ऑफ़िस में घर के खाने को मिस करते हैं? पौष्टिक: बिल्कुल माँ के हाथ जैसा सेहतमंद और स्वच्छ खाना, अब आपके ऑफ़िस डेस्क पर।”
एक हफ़्ते तक वह उन्हीं कॉर्पोरेट हब्स के बाहर पर्चे बाँटता रहा, जहाँ उसे अपमान मिला था। कोई कॉल नहीं आया।
आठवें दिन, एक कॉल आया। एक बीपीओ में काम करने वाली लड़की का। उसने कल के लिए एक टिफिन माँगा।
अगली सुबह, सनी 4 बजे उठा। उसने अपनी ज़िंदगी का पहला कमर्शियल खाना पूरी श्रद्धा और सफ़ाई के साथ बनाया। उसने अपनी पुरानी खटारा मोटरसाइकिल पर टिफ़िन पैक किया और गुड़गाँव के चमचमाते ऑफ़िस की तरफ़ चल पड़ा।
उस दिन उसे अपनी पहली कमाई मिली—सिर्फ़ ₹80 का मुनाफ़ा। लेकिन यह ₹80 उसकी ज़िंदगी की सबसे क़ीमती कमाई थी। यह उसकी पहली ‘हाँ’ थी, जो उसने ख़ुद अपनी मेहनत से कमाई थी।
भाग 6: कामयाबी का शिखर और सम्मान की वापसी
उस ग्राहक से शुरुआत हुई। खाना इतना पसंद आया कि उसने अपनी पूरी टीम को ‘पौष्टिक’ के बारे में बताया। अगले हफ़्ते 10 टिफिन के ऑर्डर थे। सनी अकेला कुक, अकेला डिलीवरी बॉय और अकेला कस्टमर केयर एग्जीक्यूटिव था। वह दिन-रात काम करता रहा। उसकी सफलता का राज़ थी उसकी ईमानदारी और गुणवत्ता—उसका खाना सच में घर जैसा होता था।
छह महीने में, वह रोज़ाना 100 से ज़्यादा टिफ़िन सप्लाई कर रहा था। उसने अपने साथ काम करने के लिए दो लड़के बुला लिए थे और एक छोटी दुकान को अपनी सेंट्रल किचन बना लिया था।
3 साल बाद, ‘पौष्टिक’ दिल्ली-एनसीआर में कॉर्पोरेट कर्मचारियों के लिए सबसे बड़ा और भरोसेमंद नाम बन चुका था। उसके पास आधुनिक किचन, सैकड़ों डिलीवरी बॉयज़ का नेटवर्क और एक एडवांस्ड मोबाइल ऐप थी।
और 5 साल बाद, सनी—वह लड़का जिसे 10 साल तक कोई नौकरी नहीं मिली थी—फ़ोर्ब्स मैगज़ीन की ’30 अंडर 30′ की लिस्ट में भारत के सबसे सफल युवा उद्यमियों में से एक के रूप में शामिल था।
आज, सनी अपनी नई काली ऑडी में बैठकर अपने पुराने घर इलाहाबाद की तरफ़ जा रहा था। जब उसकी गाड़ी उसके शांत मोहल्ले में पहुँची और वह उस शानदार गाड़ी से उतरा, तो उसके पिता रमाकांत जी उसे पहचान ही नहीं पाए।
सनी ने आगे बढ़कर अपने पिता के पैर छुए। रमाकांत जी की आँखों में आँसू थे।
सनी ने अपने माँ-बाप को अपने साथ दिल्ली ले आया। उसने उन्हें दिल्ली के सबसे पॉश इलाक़े में एक ख़ूबसूरत बड़ा घर तोहफ़े में दिया। जब रमाकांत जी ने देखा कि उनका बेटा, जिसे वे राशन की दुकान पर मुनीम बनाना चाहते थे, आज वह सैकड़ों लोगों को नौकरी दे रहा है, तो उनकी छाती गर्व से चौड़ी हो गई।
उन्होंने अपने बेटे को गले लगाया और कहा, “बेटा, हम ग़लत थे। हम तुम्हें पहचान ही नहीं पाए।”
सनी मुस्कुराया और कहा, “नहीं पिताजी, आप ग़लत नहीं थे। शायद उन 10 सालों की ‘ना’ ही ज़रूरी थी, मुझे मेरी असली ‘हाँ’ तक पहुँचाने के लिए।”
यह कहानी सिखाती है कि असफलताएँ और ठोकरें ज़िंदगी का अंत नहीं होतीं। वे तो हमें हमारी असली मंज़िल का पता बताने वाले मील के पत्थर होते हैं। अपनी काबिलियत को पहचानिए, और कभी हिम्मत मत हारिए। क्या पता आपकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी कामयाबी, आपकी सबसे बड़ी हार के ठीक अगले मोड़ पर ही आपका इंतज़ार कर रही हो।
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