शादी के लिए घर बेच रहा था गरीब बाप, विदाई के वक्त बेटी ने उसे ऐसा गिफ्ट दिया कि पूरे गांव ने सलाम
कहानी: बेटी के तोहफे ने बाप का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया
बरेली के पास बसे छोटे से गांव मुरादपुर की यह कहानी, एक गरीब पिता और उसकी इकलौती बेटी के प्यार, बलिदान और विश्वास की मिसाल है। गांव ज्यादा बड़ा नहीं, न ही नामचीन – पर यहां की गलियां, मिट्टी की खुशबू और दिलों में बसी संवेदनाएं हर जगह की तरह अनमोल थीं।
राम प्रसाद और उसका खजाना
राम प्रसाद, 50 वर्ष का एक साधारण किसान – उसका जीवन दो खजानों के लिए था: उसकी इकलौती बेटी लक्ष्मी और उसके सपनों का छोटा सा मिट्टी का घर। लक्ष्मी उसकी आंखों की रोशनी थी, वहीं मिट्टी का घर उसकी मेहनत, पत्नी सावित्री की यादों और लक्ष्मी की बचपन की किलकारियों से भरा उसका सपना।
पत्नी सावित्री वर्षों पहले इस संसार से चली गई, लेकिन लक्ष्मी ही अब राम प्रसाद की दुनिया थी, कभी बेटी, तो कभी मां बनकर।
लक्ष्मी के सपने और संघर्ष
लक्ष्मी पढ़ाई में होशियार थी, 12वीं के बाद पास के कस्बे में एक छोटी सी दुकान में हिसाब-किताब का काम करती थी, अपनी छोटी सी तनख्वाह से बाबूजी के लिए कुछ न कुछ ले आती। राम प्रसाद अक्सर कहता, “बेटी, तू जब अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी, वही मेरी सबसे बड़ी कमाई होगी।”
शादी की चिंता – बाप का बलिदान
एक दिन गांव में खबर फैली कि लक्ष्मी की शादी अमर नामक शिक्षक से तय हो गई है। अमर नेक और पढ़ा-लिखा युवक था। मगर विवाह तय करते वक्त दूल्हे के परिवार ने दहेज की बड़ी मांगें रख दीं, नए कपड़े, गहने, घरेलू सामान… ये सब जुटाना राम प्रसाद के लिए संभव नहीं था। वह दिन-रात मेहनत करने लगा, गांव में मजदूरी तक की, लेकिन कमाई कम पड़ गई। कर्ज मांगने गया तो सेठ ने मना कर दिया, कहा – “अब और कर्ज नहीं दूंगा।” लाचार होकर राम प्रसाद ने दिल कठोर कर अपना घर बेचने का फैसला लिया।
यह डरावना था – उस घर में हर दीवार उसकी मेहनत, हर कोने में उसकी सावित्री की याद और हर आंगन में लक्ष्मी की हंसी बसी थी। मगर उसके सिर पर एक ही जुनून सवार था – लक्ष्मी की शादी में कोई कमी न रह जाए।
लक्ष्मी का संकल्प – अपने घर को बचाने की जद्दोजहद
जब लक्ष्मी को पता चला कि उसके पिता उसकी शादी के लिए घर बेच रहे हैं, तो उसका दिल टूट गया। उसने कहा, “बाबूजी, ऐसी शादी नहीं करनी, जिसके लिए आपको सब कुछ गंवाना पड़े।” मगर राम प्रसाद ने उसकी चिंता दूर की, “बेटी, तू मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत है।”
लक्ष्मी ने इस बलिदान को रोकने का ठान लिया। उसने छोटी सी नौकरी का हर पैसा, अपने दोस्तों से लिया कर्ज, ओवरटाइम – सब मिलाकर एक पुराने डिब्बे में रुपए जमा किए। उसका इरादा था – चाहे जैसे भी हो, बाबूजी का घर बचाना है।
आई आखिरकार वह दिन, जब राम प्रसाद अपना घर बेचने वाला था। गांव के सेठ हर प्रसाद ने सस्ते दाम में घर खरीदने की बात मान ली। लक्ष्मी चुपके से सेठ से मिली, बोली, “सेठजी, बाबूजी का घर मत खरीदिए, यह मेरी दो साल की कमाई है, बाकी आपके यहां काम करके दूँगी, बस बाबूजी से घर मत छीनिए।” सेठ उसकी जिद और मेहनत देखकर पसीज गया, पैसे लिए और घर का मालिकाना हक फिर से राम प्रसाद के नाम कर दिया। हिदायत दी – “कभी बाबूजी को न बताना।”
शादी – विदाई और बेटी का तोहफा
शादी का दिन पहुंचा। शादी धूमधाम से हुई, लक्ष्मी दुल्हन बनी, विदाई की घड़ी आई। पूरे गांव के लोग जुटे। ना जाने कितनों ने दिल में सोचा, “देखो, एक गरीब बाप ने बेटी के लिए सब कुछ गंवा दिया।”
विदाई के समय लक्ष्मी ने पिता के पैर छुए और उन्हें एक छोटा सा लिफाफा दिया। “बाबूजी, इस तोहफे को खोलिए।” जब राम प्रसाद ने खोलकर देखा, तो उसमें घर का मालिकाना कागज था – जो अब फिर से उनके ही नाम था! “यह कैसे…” – राम प्रसाद चौंक गया।
लक्ष्मी बोली, “मैं जानती थी आप सब कुछ बेच देंगे। मैंने दो साल हर पैसा बचाया, सेठ से घर वापस ले लिया, ताकि मेरी विदाई के साथ आपका घर ना जाए। सच धन वही है, जो दूसरों के काम आए।”
बेटी का दूसरा तोहफा – गांव का भविष्य रौशन
यह किस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ। लक्ष्मी शादी के बाद वापस आई और बाबूजी के लिए अपनी कमाई से गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल दिया। बोली, “ये मां की याद में है, ताकि सभी बेटियां पढ़ सकें, किसी को अपने सपनों और घर के बीच कभी दीवार न बनानी पड़े।”
अंत/संदेश
लक्ष्मी के इस त्याग और प्रेम ने पूरे गांव की सोच बदल दी। जहां लोग कभी बाप के बलिदान पर हंसे थे, वे अब गर्व से उस बेटी और उसके पिता को सलाम करते थे। राम प्रसाद का घर अब पूरे गांव का सपना बन गया। गांव के बच्चे लक्ष्मी के स्कूल में पढ़ते, सपने देखते।
आज भी मुरादपुर में जब किसी पिता के सिर पर चिंता की रेखा देखी जाती है, लोग कहते हैं – “हौसला और बेटी का विश्वास हो, तो कोई सपना नामुमकिन नहीं।”
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