गरीब बच्चे ने सड़क पर पड़ा एक लॉटरी टिकट उठाया और कई समय तक उससे खेलता रहा…
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शंकर और गोलू: एक जादुई टिकट की कहानी
मुंबई, सपनों का शहर। जहाँ हर कोई अपनी किस्मत आजमाने आता है। लेकिन इस चमक-दमक के पीछे छुपी हैं अनगिनत कहानियाँ, जिनमें से एक है शंकर और उसके बेटे गोलू की। यह कहानी है गरीबी, संघर्ष, उम्मीद और एक जादुई लॉटरी टिकट की, जिसने इस परिवार की तकदीर ही नहीं, बल्कि इंसानियत पर भरोसे की भी दिशा बदल दी।
शंकर की दुनिया मुंबई के धारावी की एक छोटी सी चोल में सिमटी हुई थी। गणेश नगर के उस चौथे माले पर 10/10 फीट का कमरा था, जहां वह अपनी पत्नी पार्वती और सात साल के बेटे गोलू के साथ रहता था। यह जगह नहीं, बल्कि एक घुटन भरी दुनिया थी। दीवारें सीलन से भरी थीं, हर वक्त एक खट्टी गंध आती रहती, और सूरज की किरणें भी इन तंग गलियों में पहुंचने से कतराती थीं। यहाँ शोर, गंदगी और संघर्ष का माहौल था।
शंकर कभी बिहार के एक हरे-भरे गांव का नौजवान था। लेकिन 15 साल पहले आई बाढ़ ने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी। खेती, घर, सब कुछ बह गया। मजबूरन वह अपनी पत्नी और बेटे को लेकर मुंबई आ गया। सपनों का शहर, जो उसे नई जिंदगी देने आया था, उसने उसकी सारी ताकत और उम्मीदें धीरे-धीरे छीन लीं।
अब शंकर पास की एक फैक्ट्री में दिहाड़ी मजदूर था। दिन भर तपती भट्टियों के सामने भारी लोहे के सरिए उठाता और बदले में तीन-चार सौ रुपए कमाता। यह कमाई इस महंगे शहर में ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर थी। कमरे का किराया, राशन, दवा—सब खत्म हो जाता। पार्वती भी लोगों के घरों में चौका-बर्तन करके परिवार का सहारा बनने की कोशिश करती, लेकिन पिछले एक साल से वह बीमार रहने लगी थी। जोड़ों में दर्द था, जो बारिश के मौसम में और बढ़ जाता।
उन दोनों की इस अंधेरी जिंदगी में एक उजली किरण था उनका बेटा गोलू। सात साल का मासूम बच्चा, जो अपनी उम्र के बाकी बच्चों से थोड़ा अलग था। वह शांत था, अपनी ही सपनों की दुनिया में खोया रहता। उसके पास महंगे खिलौने नहीं थे, लेकिन उसके लिए सड़क पर पड़े पत्थर, खाली माचिस की डिब्बियां और पुरानी बोतलों के ढक्कन ही सबसे अनमोल थे। वह इन बेजान चीजों में जान डाल देता—पत्थर उसके लिए सिपाही, और माचिस की डिब्बियां उसकी गाड़ियां बन जातीं।
शंकर और पार्वती चाहते थे कि गोलू उनकी तरह मजदूर न बने। वे चाहते थे कि वह पढ़े-लिखे और एक बड़ा इंसान बने। पर वे जानते थे कि यह सपना उनकी पहुंच से बाहर था। गोलू का नाम पास के सरकारी स्कूल में दाखिल कराना उनके लिए एक बड़ी जीत थी।
एक दिन फैक्ट्री में छुट्टी थी। शंकर के लिए छुट्टी का मतलब आराम नहीं, बल्कि अगले हफ्ते के खर्चों की चिंता थी। पार्वती की तबीयत भी खराब थी। डॉक्टर ने महंगी दवाइयां लिखी थीं, और घर में आटे का डिब्बा भी लगभग खाली था।
शंकर उदास होकर चोल के बाहर टूटी-फूटी सीढ़ी पर बैठा बीड़ी पी रहा था। तभी गोलू पास की गली में एक पुराने फटे हुए टायर को डंडी से घुमा-घुमाकर खेल रहा था। वह दौड़ता हुआ शंकर के पास आया और बोला, “बाबूजी, देखो मुझे क्या मिला!”
उसके छोटे-छोटे मैले हाथ में एक रंगीन, चमकदार कागज का टुकड़ा था—एक लॉटरी टिकट। शायद किसी अमीर आदमी की जेब से गिरा था या किसी गाड़ी से उड़कर वहां आ गिरा।
गोलू को लॉटरी या नंबरों से कोई मतलब नहीं था। उसे तो बस उस टिकट का गुलाबी रंग और उस पर बनी घोड़े की तस्वीर बहुत अच्छी लग रही थी।
शंकर ने बेरुखी से कहा, “क्या है यह? कचरा है, फेंक दे इसे।”
लेकिन गोलू ने उस टिकट को अपनी छाती से लगा लिया और कहा, “यह कचरा नहीं है बाबूजी, यह राजा का खत है। देखो, इस पर घोड़ा भी बना है। राजा मुझे अपने महल में बुला रहा है।”
शंकर ने बेटे की मासूमियत पर हल्की सी मुस्कुराहट दी, लेकिन फिर अपनी लाचारी की याद में वह मुस्कान उदासी में बदल गई। “हां बेटा, तू राजा ही है। जा खेल,” उसने कहा।
उस दिन से वह लॉटरी टिकट गोलू की दुनिया का सबसे कीमती खजाना बन गया। वह इसे अपनी फटी हुई कमीज की जेब में रखता, कभी किताब के अंदर छिपाता। घंटों उस टिकट से बातें करता, उसे अपनी कहानियों का हिस्सा बनाता। कभी वह टिकट जादुई कालीन बन जाता जो उसे आसमान की सैर कराता, तो कभी नाव जो बारिश के पानी से भरे गड्ढों के समंदर को पार कराता।
पार्वती अक्सर टोकती, “दिन भर इस गंदे कागज से खेलता रहता है? फेंक दे इसे, कहीं बीमारी लग जाएगी।” लेकिन गोलू उसे छुपा लेता।
शंकर यह सब देखता, लेकिन अपनी थकान और चिंताओं में डूबा इतना रहता कि बेटे के इस नए खिलौने पर ध्यान नहीं दे पाता।
दिन धीरे-धीरे गुजर रहे थे।
एक शाम शंकर फैक्ट्री से थका-हारा लौट रहा था, तभी उसे कुछ पुराने गांव के दोस्त मिले। वे भी उसी तरह इस शहर में मजदूरी कर रहे थे। एक दोस्त ने कहा, “चल, आज हमारी तरफ से चाय हो जाए।”
शंकर मना नहीं कर सका। वे पास की एक छोटी सी टपड़ी वाली दुकान पर बैठ गए। चाय के साथ वे अपनी-अपनी गरीबी और मुश्किलों की बातें करने लगे।
तभी उनमें से एक उम्रदराज और अंधविश्वासी आदमी बोला, “अरे रोने से क्या होगा? किस्मत को आजमाओ।”
शंकर ने कहा, “हमारे पास आजमाने को कुछ नहीं है।”
बूढ़े आदमी ने अपनी जेब से ₹10 का लॉटरी टिकट निकाला। “अगर लग गया तो सात पीढ़ियों की गरीबी मिट जाएगी।”
सभी हंसने लगे। शंकर ने भी मजाक में कहा, “यह सब अमीरों के चोंचले हैं। हमारी किस्मत में मेहनत की रोटी ही लिखी है।”
लेकिन बूढ़े काका ने गंभीरता से कहा, “कल रात मैंने भगवान से छह नंबर सुने। ये नंबर किसी की किस्मत बदल देंगे।”
सबने मजाक में वे नंबर देख लिए—42, 8, 15, 99, 7, और 21।
शंकर ने सोचा, “मेरे पास तो दूध लाने के पैसे भी नहीं।”
अगले कुछ दिन शंकर की जिंदगी मुश्किलों से भरी रही। पार्वती की तबीयत खराब हो गई। डॉक्टर ने कहा इंफेक्शन बढ़ गया है, महंगे इंजेक्शन चाहिए। शंकर टूट गया। उसने फैक्ट्री मालिक से पैसे मांगे, पर मना कर दिया गया। दोस्तों से मदद मांगी, पर वे भी गरीब थे।
एक रात जब शंकर घर लौटा, गोलू जमीन पर बैठा कंकड़ों से खेल रहा था। वह कंकड़ों को लॉटरी टिकट पर बने नंबरों पर रख रहा था।
“बाबूजी, मैं गिनती सीख रहा हूं,” गोलू ने मासूमियत से कहा।
शंकर दीवार से सहारा लेकर बैठ गया। गोलू जोर से नंबर पढ़ने लगा—”42, 8, 15, 99, 7, 21।”
शंकर के सिर में जैसे कोई भारी हथौड़ा गिरा। ये वही नंबर थे जो काका ने बताए थे।
कांपते हुए उसने जेब से पुराना टिकट निकाला और मिलान किया। सारे नंबर हूबहू मैच हो गए।
शंकर ने जोर से कहा, “यह तो हमारी किस्मत है!”
अगली सुबह शंकर ने पास के खुमचे वाले से अखबार खरीदा। कांपते हाथों से लॉटरी के नतीजे देखे। सभी नंबर मिले।
“हम जीत गए!” शंकर फूट-फूट कर रो पड़ा। पार्वती भी आंसुओं में डूब गई।
₹5 करोड़ की लॉटरी जीत गई थी यह गरीब परिवार।
उस दिन से उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। शंकर ने पार्वती का इलाज शहर के सबसे बड़े अस्पताल में करवाया। गांव के साहूकार का कर्ज चुका दिया। गणेश नगर की चोल को छोड़कर मुंबई के एक अच्छे इलाके में घर खरीदा। गोलू को इंटरनेशनल स्कूल में दाखिला दिलाया।
शंकर ने फैक्ट्री की नौकरी छोड़कर कपड़ों का छोटा व्यवसाय शुरू किया। अपने दोस्तों को पार्टनर बनाया।
बूढ़े काका को इनाम का बड़ा हिस्सा दिया, पर काका ने बस उतना ही लिया जितने में आराम से जिंदगी कटे।
शंकर ने अपनी दौलत का बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए दान किया। गणेश नगर में एक चैरिटेबल क्लीनिक खोलवाया ताकि कोई और शंकर अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए भटकता न रहे।
एक शाम शंकर अपने नए घर की बालकनी में पार्वती और गोलू के साथ सूर्यास्त देख रहा था। गोलू ने पूछा, “बाबूजी, क्या मैं अब राजा बन गया हूं?”
शंकर मुस्कुराया, “नहीं बेटा, तू राजा नहीं, जादूगर है। जिसने अपनी मासूमियत से हम सब की तकदीर बदल दी।”
यह कहानी हमें सिखाती है कि उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए। किस्मत कब, किस रूप में आपके दरवाजे पर दस्तक दे दे, कोई नहीं जानता।
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