सुधा की कहानी: संघर्ष, प्रेम और उम्मीद

एक सुबह एसडीएम मैडम नंदिता अपने बड़े भाई आदित्य के साथ कपड़े खरीदने बाजार जा रही थी। आदित्य ने कहा, “नंदिता, आज कुछ खास कपड़े खरीदेंगे, कल मुझे एक फंक्शन में जाना है।” दोनों के बीच हल्की-फुल्की बातचीत चल रही थी। गाड़ी भीड़-भाड़ वाले इलाके में पहुंची, जहां कपड़ों की दुकानें, ठेले और काम की तलाश में निकले लोगों की भीड़ थी। ड्राइवर ने गाड़ी एक दुकान के पास रोक दी।

नंदिता की नजर अचानक एक कोने पर पड़ी। वहां फर्श पर एक पुराना कपड़ा बिछा था, जिस पर जूते पॉलिश करने की चीजें रखी थीं। एक दुबली-पतली औरत, सादे लेकिन साफ कपड़े पहने, किसी के जूते चमका रही थी। नंदिता ने गौर से देखा, तो उसकी आंखें ठहर गईं। वो चेहरा… वो शांत लेकिन टूटी हुई आंखें… ये वही थी जिसे कभी वह अपनी भाभी कहती थी – सुधा।

नंदिता के होठों से अनायास निकल पड़ा, “सुधा भाभी…” लेकिन आवाज इतनी धीमी थी कि सिर्फ उसके ही कानों तक पहुंची। समय जैसे थम गया था। आदित्य ने भी महसूस किया कि नंदिता अचानक रुक गई है। उसने भी उस औरत को देखा, और उसका चेहरा पीला पड़ गया। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन शब्द गुम हो गए।

सुधा सिर झुकाकर जूते चमका रही थी। नंदिता के भीतर बेचैनी उठी – क्या यही वो लड़की है जिसे हमने कभी घर की लक्ष्मी कहा था? क्या यही मेरे भाई की जिंदगी थी? यादें अचानक सामने आ गईं – जब सुधा पहली बार उनके घर आई थी। शर्मीली, सीधी-सादी, गांव के स्कूल में पढ़ी, पर बोलचाल में मिठास। मां ने कहा था, “लड़की छोटे घर की हो, पर संस्कार बड़े घर वाले हैं।”

आदित्य तब शहर के कॉलेज में लेक्चरर था, आत्मविश्वास से भरा, लेकिन स्वभाव में थोड़ी-सी झलक अहंकार की थी। सुधा ने उस अहंकार को मुस्कान से पिघला दिया था। शादी के बाद सुधा ने घर में उजाला भर दिया। सबके लिए चाय, नंदिता के लिए टिफिन, आदित्य के लिए पसंद का खाना। नंदिता को लगता था, सुधा भाभी इस घर की आत्मा हैं।

लेकिन धीरे-धीरे आदित्य के भीतर पुरुष गर्व उभरने लगा। उसे लगने लगा, सुधा की सादगी उसकी कमजोरी है। एक दिन छोटी-सी बात पर झगड़ा हुआ। सुधा ने कहा, “आदित्य, थोड़ा समय भी तो साथ बिताइए।” आदित्य ने ठंडे स्वर में कहा, “मैं नौकरी करता हूं, खेल नहीं। तन्हाई लगती है तो कोई काम कर लो।” सुधा चुप रह गई। धीरे-धीरे रिश्ता औपचारिक होता गया, नजरें मिलना कम हुआ, शब्दों का अर्थ बदल गया।

एक शाम सुधा ने कहा, “मां की तबीयत ठीक नहीं, डॉक्टर बुला लूं?” आदित्य ने बिना सिर उठाए कहा, “मां की चिंता मैं कर लूंगा, तुम खाना पर ध्यान दो।” सुधा की आंखें भर आईं, बोली, “मैं भी इसी घर का हिस्सा हूं, रिश्ते भी मेरी जिम्मेदारी हैं।” आदित्य ने गुस्से में कहा, “बस करो सुधा, हर बात में तर्क मत दो। जो कहा जाए, वो करो।” उस रात सुधा का रोना और आदित्य का कमरे से निकल जाना… धीरे-धीरे सुधा ने बोलना छोड़ दिया।

कुछ समय बाद, आदित्य ने सुधा पर आरोप लगाया कि वह उसके करियर में बाधा है, उसकी सीमित सोच आगे बढ़ने नहीं देती। कुछ ही हफ्तों में तलाक के कागज सामने आ गए। सुधा ने चुपचाप साइन कर दिए। जब वह घर से निकली, नंदिता ने दरवाजे तक छोड़ा। सुधा ने बस इतना कहा, “दीदी, रिश्ता दो लोगों का होता है, पर कभी-कभी एक ही निभाता है और वह भी थक जाता है।”

उस दिन के बाद सुधा कहीं गुम हो गई। सबने मान लिया कि वह अध्याय खत्म हो गया। लेकिन आज, सड़क के उस मोड़ पर जूते पॉलिश करते हुए वही सुधा बैठी थी। उसी वक्त एक छोटा बच्चा सुधा से लिपट गया, बोला, “मां, मुझे भूख लगी है।” नंदिता का दिल कांप गया – मां… शिव… उसके मन में सवालों की भीड़ थी – ये बच्चा किसका है? कब हुआ?

आदित्य भी चुप था, उसकी नजरें जमीन पर थीं। दोनों बिना कुछ बोले वापस घर लौट गए। रातभर नंदिता को नींद नहीं आई। अगले दिन दोनों फिर उसी सड़क पर पहुंचे। सुधा वहीं बैठी थी, पास में उसका बेटा मिट्टी से खेल रहा था। नंदिता धीरे-धीरे सुधा के पास गई। सुधा ने ऊपर देखा – दोनों की नजरें मिलीं, चुप्पी में बहुत कुछ कह गया।

नंदिता ने पूछा, “भाभी, तुम यहां कैसे?” सुधा ने बस इतना कहा, “जिंदगी ने जो दिया, उसे जी रही हूं।” उसके हाथों में दरारें थीं, नाखूनों के नीचे काला पॉलिश जमा था। पास में खेलता बच्चा मां की गोद में आ गया, मासूमियत से पूछा, “मां, ये लोग कौन हैं?” सुधा ने कहा, “बेटा, ये पुराने जानने वाले हैं।” बच्चा मुस्कुराया, “आंटी, आप रो क्यों रही हैं?” नंदिता ने चेहरा मोड़ लिया।

आदित्य ने कुछ कहने की कोशिश की, पर सुधा ने हाथ उठा दिया, “अब कुछ मत कहो आदित्य, सब कह चुके हो तुम।” उसके स्वर में ठंडी शांति थी। नंदिता बोली, “भाभी, मैं कल फिर आऊंगी। बात अधूरी है।” सुधा ने सिर झुका लिया।

घर पहुंचकर नंदिता ने मां को सब बता दिया। मां की आंखों में आंसू थे, “बेटी, अब क्या कर सकते हैं? तलाक हो चुका है।” लेकिन नंदिता ने ठान लिया – “नहीं मां, मैं भाभी को घर लेकर आऊंगी।”

अगले दिन नंदिता और आदित्य फिर पहुंचे। नंदिता ने पूछा, “भाभी, ये बच्चा किसका है?” सुधा ने कहा, “यह मेरा बेटा है, और आदित्य का खून है।” नंदिता सन्न रह गई। “भाभी, आपने बताया क्यों नहीं?” सुधा ने कहा, “क्या बताती, जब किसी को मेरे साथ रहना ही नहीं था।”

सुधा ने बताया – “जब आदित्य ने रिश्ता तोड़ा, मैं गर्भवती थी। ना घर था, ना सहारा। मायके गई, वहां भी ताने मिले। टूट गई थी, जिंदगी खत्म करना चाहती थी। लेकिन बच्चे की पहली हलचल ने जीने का मकसद दिया। अकेले जन्म दिया, अस्पताल के बिल चुकाने के लिए कपड़े धोए, बर्तन मांझे। फिर स्टेशन के बाहर जूते पॉलिश करना शुरू किया। लोग हंसते थे, ताने देते थे – अफसर की बीवी सड़क पर जूते चमकाती है। पर मुझे फर्क नहीं पड़ा। मेरे लिए बस एक चेहरा मायने रखता था, मेरा बेटा।”

आदित्य का सिर झुक गया। उसने कांपती आवाज में कहा, “सुधा, मैंने बहुत बड़ी गलती की थी। तुम्हें उस वक्त छोड़ा, जब तुम्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी। तुम्हारे त्याग को कभी समझा ही नहीं। मैं माफी के लायक नहीं हूं, पर क्या मेरे बेटे को एक बार पापा कहने का हक दे सकता हूं?”

सुधा ने बच्चे का हाथ पकड़ा, आदित्य के सामने लाकर कहा, “बेटा, ये तुम्हारे पापा हैं।” बच्चे ने मुस्कुराकर आदित्य की उंगलियां थाम लीं। आदित्य वहीं घुटनों के बल बैठ गया, बच्चे को सीने से लगा लिया। “सुधा, अगर मुमकिन हो तो हमारे घर चलो। अब कोई तुम्हें नीचे नहीं देखेगा। मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा उस घर में पले, जहां उसकी मां की इज्जत सबसे ऊंची हो।”

सुधा की आंखों से आंसू बह निकले। “घर… वो तो बहुत पहले टूट गया था, आदित्य। पर अगर तुम उसे फिर से बनाना चाहते हो, तो याद रखना, दीवारें ईंटों से नहीं, भरोसे से खड़ी होती हैं।” नंदिता ने सुधा को गले लगा लिया, “भाभी, चलो घर। इस बार यह घर सच में आपका होगा।”

सुधा ने मुस्कुराकर अपने बच्चे का हाथ पकड़ा और तीनों धीरे-धीरे सड़क से आगे बढ़ने लगे। जिस सड़क पर कल तक संघर्ष था, आज उम्मीद की किरण थी। जब एक मां अपने बच्चे के लिए दुनिया से लड़ती है, तो भगवान खुद उसके कदमों के नीचे रास्ते बिछा देता है।

**सीख:**
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