भिखारी भीख की कमाई से गरीब बच्चों को खिलाता था खाना, जब एक करोड़पति ने उसका पीछा किया और असलियत
दिल्ली की सर्द रातें हमेशा ही अजीब होती हैं। सड़कों पर चमकते पीले बल्ब, कोहरे में लिपटी गाड़ियाँ और कहीं-कहीं चाय की दुकानों से उठती भाप की लहरें। इन्हीं सड़कों के किनारे एक पुराना मंदिर था, और उसी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा रहता था एक भिखारी। उसके कपड़े फटे-पुराने थे, बाल बिखरे और चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ। लोग उसे बस “बाबा” कहकर पुकारते।
दिन में वह मंदिर आने वाले भक्तों से कुछ सिक्के पा लेता, रात में वहीं सीढ़ियों पर अपना बिस्तर बिछा लेता। शायद ज़िंदगी की ठोकरों ने उसे यहाँ ला पटका था।
उसी शहर में रहता था एक नामी-गिरामी व्यापारी—अर्जुन मल्होत्रा। आलीशान कोठी, महंगी गाड़ियाँ और हमेशा इधर-उधर चमकते नौकर-चाकर। लोग उसे देखकर कहते—“क्या ज़िंदगी है!” लेकिन अर्जुन का दिल अक्सर खाली महसूस करता। धन तो बहुत था, पर संतोष कहीं नहीं।
एक ठंडी रात, जब सर्द हवाएँ हड्डियाँ चीर रही थीं, अर्जुन की गाड़ी का टायर उसी मंदिर के पास खराब हो गया। ड्राइवर मदद लेने गया और अर्जुन कार से उतरकर पास की सीढ़ियों पर बैठ गया। तभी उसकी नज़र उस भिखारी पर पड़ी। वह काँप रहा था, पर अपनी पुरानी चादर को पास बैठे एक औरत-बच्चे पर डाल रहा था।
अर्जुन चौंका।
“खुद ठंड से मर रहा है, और चादर दूसरों को दे रहा है…”
उस रात अर्जुन देर तक उस दृश्य के बारे में सोचता रहा।
अगले दिन से उसने उस भिखारी पर नज़र रखना शुरू किया। सुबह वह मंदिर की सीढ़ियाँ साफ करता, बुज़ुर्गों को सहारा देकर अंदर ले जाता, बच्चों को हँसाने की कोशिश करता। शाम को जो भी पैसे मिलते, उसका कुछ हिस्सा ज़रूरतमंदों में बाँट देता।
अर्जुन की जिज्ञासा बढ़ती गई। एक दिन वह खुद आगे बढ़ा और बोला—
“तुम्हें अपनी ज़िंदगी सँवारने का कभी मन नहीं करता? इतनी मेहनत किसी और काम में करोगे तो कमाई हो जाएगी।”
भिखारी ने हल्की हँसी के साथ कहा—
“साहब, ज़िंदगी सँवारने का मतलब सिर्फ पैसा नहीं होता। मैंने सब देखा है—धन, परिवार, इज़्ज़त। सब कुछ… पर जब तक दूसरों के लिए कुछ नहीं किया, दिल खाली रहा। अब यहाँ बैठकर जो भी मिलता है, उसका हिस्सा बाँट देता हूँ। यही मेरी दौलत है।”
अर्जुन को पहली बार एहसास हुआ कि असली अमीरी किसे कहते हैं।
दिन बीतते गए। अर्जुन उस भिखारी से रोज़ मिलता, बातें करता और हर बार उसके शब्दों में उसे कोई नया सच मिल जाता। धीरे-धीरे अर्जुन ने अपने व्यवसाय की नीतियाँ बदलनी शुरू कर दीं। अब वह सिर्फ मुनाफ़े के लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी सोचने लगा। कर्मचारियों को बोनस, ग़रीब बच्चों के लिए छात्रवृत्ति, और बुज़ुर्गों के लिए मुफ्त भोजन सेवा—यह सब उसी भिखारी से मिली सीख का असर था।
लेकिन अर्जुन के मन में एक सवाल लगातार चुभता रहा—
“यह आदमी आखिर कौन है? इसकी कहानी क्या है?”
एक दिन उसने हिम्मत जुटाई और पूछा—
“बाबा, सच बताओ, तुम पहले क्या करते थे? क्या कोई परिवार नहीं है तुम्हारा?”
भिखारी की आँखें भर आईं। थोड़ी देर खामोशी छाई रही, फिर उसने भारी आवाज़ में कहा—
“हाँ, था मेरा परिवार। पत्नी, दो बच्चे, और एक छोटा सा कारोबार। पर मैं लालच में अंधा हो गया। क़र्ज़ लिया, सट्टे में सब गँवा दिया। परिवार मुझसे दूर चला गया। घर छिन गया। रिश्तेदारों ने मुँह मोड़ लिया। तब समझ आया कि पैसा सब कुछ नहीं होता। मैंने बहुत देर से सीखा… अब यही मेरा प्रायश्चित है। दूसरों की मदद करके शायद मैं अपने गुनाहों का बोझ हल्का कर रहा हूँ।”
अर्जुन निशब्द रह गया। जिस इंसान को वह बस एक साधारण भिखारी समझता था, वह दरअसल जीवन का सबसे बड़ा शिक्षक निकला।
उस दिन के बाद अर्जुन ने उस भिखारी को अकेला नहीं छोड़ा। उसने उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी उठाई, पर भिखारी ने साफ कहा—
“मुझे तुम्हारी मदद चाहिए, पर भीख नहीं। अगर सच में मदद करना चाहते हो, तो मेरे साथ मिलकर दूसरों के लिए काम करो।”
अर्जुन ने हामी भर दी। दोनों ने मिलकर एक छोटी-सी सेवा संस्था शुरू की। मंदिर के बाहर रोज़ाना ग़रीबों को खाना बाँटा जाने लगा। धीरे-धीरे और लोग जुड़ते गए। भिखारी, जिसे समाज ने नकार दिया था, वही अब सैकड़ों लोगों के लिए सहारा बन गया।
अर्जुन अक्सर कहता—
“मेरे पास धन था, पर जीवन का अर्थ तुमने सिखाया। असली अमीर तुम हो, बाबा।”
भिखारी बस मुस्कुराता और कहता—
“नहीं साहब, मैं तो खाली हाथ हूँ। अमीर तो वो है जो दिल में इंसानियत रखता है।”
कभी-कभी मंदिर की घंटियों के बीच उसकी आवाज़ गूँजती—
“याद रखना, इंसान का मापदंड उसके पास कितनी दौलत है, ये नहीं बताता… बल्कि वो कितना बाँट पाता है, ये बताता है।”
और सच में, अर्जुन ने पाया कि भिखारी की ये बात उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच बन गई।
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