आशा, उसकी मां और शेरू: हौसले की जीत
शांता देवी उम्र के उस मोड़ पर थीं, जहां शरीर जवाब देने लगता है। टूटी चारपाई पर लेटी वह हर रोज़ अपनी बेटी आशा की चिंता में डूबी रहतीं। आशा ही घर का इकलौता सहारा थी। मां को तसल्ली देते हुए आशा बोली, “मां, आप फिक्र मत करें। मैं आज जरूर कोई काम ढूंढ लूंगी।” उनका वफादार कुत्ता शेरू भी साथ था, जैसे उसे भी अपनी मालकिन की चिंता हो।
आशा शहर की गलियों में घूमती रही। अमीरों के दरवाजे खटखटाए, “दीदी, कोई काम हो तो बता दीजिए। बर्तन, कपड़ा, झाड़ू कुछ भी कर लूंगी।” मगर हर जगह से सिर्फ तिरस्कार मिला। किसी ने दरवाजा बंद कर लिया, किसी ने बात तक नहीं की। शाम होते-होते आशा के कदम पुलिस चौकी के पास जा रुके। उसने सोचा, “यहां तो आवाम की खिदमत के लिए होते हैं, शायद कोई सफाई या मेस का काम मिल जाए।”
वह चौकी में गई, अदब से बोली, “साहब, मुझे कोई काम चाहिए। मेरी मां बूढ़ी है, बीमार हैं। दवाई के लिए पैसे नहीं हैं। अगर कोई काम हो तो बता दीजिए।” चौकी में बैठे पुलिस वाले उसकी बात सुनकर हंसने लगे। किसी ने मजाक उड़ाया, किसी ने अंदर बुलाने की धमकी दी। आशा के चेहरे पर डर छा गया, “साहब, मजाक ना करें। अगर साफ-सुथरा काम है तो बता दीजिए, मैं मेहनत कर लूंगी।”
शेरू ने जोर-जोर से भौंकना शुरू किया। पुलिस वाले उसे धमकाने लगे, “कुत्ते को बाहर बांध दे, वरना गोली मार देंगे।” तभी चौकी के अंदर से एक भारी आवाज आई, “यह सब क्या हो रहा है?” सब खामोश हो गए। सामने अफसर राकेश्वर सिंह खड़े थे। उन्होंने पुलिस वालों को डांटा, “पुलिस वर्दी पहनकर औरतों को तंग करते हो? शर्म नहीं आती?”
राकेश ने आशा से नरमी से पूछा, “क्या चाहिए तुम्हें?” आशा ने डरते-डरते कहा, “साहब, मैं तो सिर्फ काम मांगने आई थी। मेरी मां बीमार है।” राकेश ने कहा, “काम मिलेगा, फिक्र मत करो। थाने की सफाई कर दो, उजरत भी मिलेगी।” लेकिन कुत्ते को बाहर कर दो। आशा ने शेरू से कहा, “बाहर जा, मैं आती हूं।” शेरू गेट के बाहर बैठ गया।
आशा सफाई करने लगी। तभी अचानक कमरे का दरवाजा बंद हो गया। राकेश अंदर आया, उसकी आंखों में नापाक नियत झलक रही थी। आशा ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, “साहब, आपने कहा था साफ काम देंगे।” मगर राकेश ने तंजिया हंसी के साथ कहा, “इज्जत बचा के भूख नहीं मिटती बेटी।”
आशा बाहर जाने की कोशिश करती रही, मगर दरवाजा बंद था। बाहर पुलिस वाले हंस रहे थे। शेरू जोर-जोर से भौंक रहा था, दरवाजा खोलने की कोशिश कर रहा था। मगर कोई सुनने वाला नहीं था। आशा की चीखें दीवारों में गुम हो गईं। कुछ देर बाद दरवाजा खुला, आशा जमीन पर पड़ी थी, उसका दुपट्टा एक तरफ, बाल बिखरे, चेहरा आंसुओं से तर। राकेश ने हुक्म दिया, “इसे बाहर फेंक दो, जबान खोली तो अंजाम बुरा होगा।” दो सिपाही आशा को जैसे कचरा बाहर फेंकते हैं, वैसे ही गली में डाल गए।
शेरू दौड़कर उसके पास आया, रोने जैसी आवाज निकाली। आशा बेहोश पड़ी थी। उसकी हिम्मत, उसकी इज्जत सब कुछ रौंद दिया गया था।
रात गहरी हो चुकी थी। झोपड़ी में लालटेन की धीमी रोशनी थी। शांता देवी दरवाजे की तरफ देखती रहीं। आखिरकार आशा लौटी। उसके कदम लड़खड़ा रहे थे, चेहरा आंसुओं से भरा। शांता देवी चीख मारकर रोने लगीं, “बेटी, यह क्या हाल बना लिया तेरा?” आशा मां की गोद में गिर गई। दोनों रोती रहीं। सारी रात मां-बेटी टूटती रहीं। शांता देवी बार-बार कहती, “अगर मुहाफिज ही जुल्म करें तो फिर हम जाएं कहां?”
सुबह हुई। शांता देवी ने कहा, “चल बेटी, इंसाफ मांगने चलते हैं।” आशा कांप गई, “मां, वहां मत जाना, सब एक जैसे हैं।” मगर शांता देवी बोली, “अगर हम बोलेंगे नहीं तो यह जुल्म कभी खत्म नहीं होगा।”
शांता देवी अकेली थाने पहुंचीं। रिपोर्ट लिखाने की कोशिश की। पुलिस वालों ने तंजिया हंसी के साथ कहा, “राकेश साहब इज्जतदार अफसर हैं, तुम जैसी औरतें क्या इल्जाम लगाओगी?” शांता देवी रोती हुई बाहर निकल रही थीं, तभी एक बड़ी गाड़ी थाने के गेट पर रुकी। डीएसपी सोनिया वर्मा बाहर आईं। शांता देवी ने उनसे फरियाद की, “बेटी, मेरी बेटी की इज्जत लूट ली गई है।”
पुलिस वाले बीच में आ गए, “मैडम, यह पागल है।” सोनिया ने सख्त लहजे में कहा, “खामोश रहो, मैं खुद सुनूंगी।” उन्होंने शांता देवी से सब सुना, मगर सबूत मांगा। शांता देवी ने कहा, “मेरे पास सिर्फ मेरी बेटी की टूटी हालत है।” सोनिया ने लंबी सांस ली, “बिना सबूत केस आगे नहीं बढ़ा सकते।”
शांता देवी का दिल टूट गया। वह वापस लौट गई। सोनिया के दिमाग में हलचल थी। तभी शेरू दरवाजे पर भौंकता दिखा, जैसे कुछ कहना चाहता हो। सोनिया उसके पीछे चल पड़ी। शेरू उन्हें शांता देवी की झोपड़ी तक ले गया। वहां आशा कोने में बैठी थी, सर झुकाए, मां रोती जा रही थी। सोनिया ने सब सुना, उसकी आंखें नम हो गईं।
सोनिया ने प्लान बनाया। गरीब औरत बनकर दोबारा थाने गई। राकेश ने उसे अंदर बुलाया, कमरे में सफाई का बहाना बनाया। दरवाजा बंद हुआ। राकेश ने वही जुल्म दोहराने की कोशिश की। मगर इस बार शेरू बाहर मोबाइल कैमरा ऑन करके बैठा था। सोनिया ने राकेश के जुल्म को रिकॉर्ड कर लिया। मौका देखकर बाहर निकल गई। शेरू ने मोबाइल सोनिया को दिया। वीडियो सबूत था।
अगले दिन शहर के मीडिया हॉल में डीआईजी अरुण कुमार, सोनिया वर्मा और सब अफसर मौजूद थे। आयशा और उसकी मां को बुलाया गया। वीडियो दिखाया गया। राकेश वर्मा का जुर्म सबके सामने आ गया। मीडिया, जनता, सब हिल गए। आयशा ने माइक थामा, “मैं आयशा हूं, गरीब हूं, लेकिन आज डरी नहीं हूं। राकेश वर्मा सिर्फ मेरे साथ नहीं, हर औरत के साथ यही करता रहा।”
राकेश गुस्से में चिल्लाया, “यह सब झूठ है।” तभी शेरू स्टेज पर आया, राकेश पर झपटा, उसके बाजू में दांत गड़ा दिए। राकेश चीखने लगा, “हां, मानता हूं, मैंने जुल्म किया। मुझे माफ कर दो, मैं सजा भुगतने को तैयार हूं।” मीडिया ने सब रिकॉर्ड किया। पूरा मुल्क हिल गया।
अदालत में मुकदमा चला। सबूत पेश हुए। जज साहब ने फैसला सुनाया, “इंस्पेक्टर राकेश वर्मा को उम्रकैद की सजा दी जाती है। उसके साथी पुलिस वाले भी दोषी हैं।” कलारपुर थाना बदल गया। अब वहां लिखा था, “यहां इंसाफ सबके लिए है।”
हुकूमत ने आयशा और उसकी मां को सम्मानित किया। आयशा को नौकरी मिली, घर की मरम्मत हुई। शेरू हीरो बन गया। सोनिया ने कहा, “अगर कोई तुम्हारी इज्जत पर हाथ डाले, तो खामोश मत रहो। आवाज उठाओ, इंसाफ लो।”
यह कहानी बताती है—जुल्म के खिलाफ खड़े होना ही असल हौसला है। सच की ताकत हमेशा झूठ को हरा देती है। आयशा, उसकी मां, सोनिया और शेरू ने सबको सिखाया कि डरना नहीं, लड़ना है।
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