अंधी बनकर थाने पहुँची IPS मैडम के साथ , दरोगा ने बदतमीजी की ; फिर मैडम ने जो किया …..

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आनंदपुर ज़िले में राज्य सरकार का कल्याण कार्यालय, जो कल ही तक पिछड़े ग्रामीण इलाकों में सुकून और राहत पहुँचाने का काम करता था, अब वहीं से लोगों की उम्मीदें कुचलकर उनको और निचले स्तर पर धकेल रहा था। कई महीनों से वृद्ध महिलाएँ, बेरोज़गार युवाओं और दिव्यांगों को सरकार की भत्तों और पेंशन का पैसा नहीं मिल रहा था। जितनी शिकायतें डिजिटल पटल पर दर्ज की गईं, उतनी फाइलें वहीं दबकर रह गईं, दरवाज़ों पर ताले लाद दिए गए या फिर न एक सुनवाई हुई, न कोई दस्तखत।

अनिता रावत, जो हाल ही में इस जिले की कलेक्टर बनी थीं, ने आते ही सबसे पहले इन रिपोर्ट्स को पढ़ा। पढ़ते-पढ़ते उनके होंठों पर ठण्डी मुस्कान उभर आई, लेकिन दिल धड़क उठा। ईमानदार, तेज और मेहनती, उन्होंने आईएएस की परीक्षा टॉप करके ही पास की थी। उन्हें पता था कि वर्तमान सिस्टम की जड़ें कब तक सड़ चुकी हैं, पर अब हिम्मत लेकर काटनी होंगी। सीधे आदेश से काम नहीं आने वाला था, क्योंकि कल्याण कार्यालय की जो सिफ़ारिशें मिलती, वे ऊपर पहुँचकर कहीं खो जातीं। कई अधिकारियों ने बताया कि “आप अज़ान्क्षा में गलती कर बैठी हो मैडम, ये सिस्टम नहीं चलने देगा।” पर अनिता ने ठान लिया कि बदलाव तो करना ही है।

एक रात जब गाँवों से आए हुए कुछ बुज़ुर्गों की उम्मीद भरी आँखों के आंसू उनके सपनों में गूँज रहे थे, तभी उन्होंने मन में एक साहसी योजना बनाई। वह खुद एक भेष-बदला “पीड़ित पात्र” बनेगी, ताकि सामान असामान्य व्यवहार और रिश्वत के खेल को बिना बयां हुए ही कैमरे में कैद किया जा सके। उन्होंने रात भर अपनी दो सहकर्मियों—आयुक्त सीमा वर्मा और उपनिदेशक रोहन तिवारी—को हर लहज़ा समझाया। सीमा ने दस्ताने, सिलाई मशीन से पुराने कपड़ों के धब्बेदार मुड़े-टूटे “गाँव वाले सूट” ढूंढ निकाले, रोहन ने एक छोटे कैमरे के साथ माइक्रोफोन-रिकॉर्डर की व्यवस्था की, जो कोट की जेब में छिप जाएगा। तीनों ने अपनी आवाज़ और हाव-भाव की प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी। सबसे ज़्यादा मेहनत अनिता ने की; उनके चेहरे पर काले झुर्रियों और थकी हुई रेखाओं की नक़्ल की गयी, काले घेरों में धुंधली चश्मा फिट किया गया और हाथ में एक लाठी जैसी दिखने वाली छड़ी ली गई, जो असल में न पकड़ने में काम आए शाम का सहारा थी।

अगले दिन भोर होते ही अनिता “दुर्गा देवी” बनकर कल्याण कार्यालय पहुंची। झाड़-झंखाड़ से अटी सड़क पर एक पुरानी जीप खड़ी थी, उसके बगल से दूसरी जीपों की कतार embedded थी। दफ्तर में दाखिल होते ही धूल और धुएँ का घणा माहौल था, दीवारों पर पान की पीक लगी, टाइपराइटर की धातु की चटचट आवाज़ कहीं अपराध का अहसास दिला रही थी। सबसे पहले वह “सब-लेवल क्लर्क” गोविन्द झा के पास पहुंची, जिसने अपने अँधेरे गुप्त कोने में बैठ कर चाय का घूंट लेते हुए सहज मुस्कान बिखेरी। अनिता ने कमजोर आवाज़ में कहा, “मेरा पेंशन फॉर्म खा लिया गया है क्या?” गोविन्द ने पत्तल जोड़कर देखा, “कौन बाथरूम वाला कह रही है? अपना नाम बताओ, फारम का नंबर लाओ।” अनिता बोली, “दुर्गा देवी बोल रही हूं, नंबर कुछ याद नहीं… बस कल से इंतज़ार कर रही हूं।” गोविन्द निःशब्द होकर कलम टटोलने लगा, फिर बोला, “अच्छा सुनो, दे दो हजार रुपए, फाइल जल्दी चलता दूंगा।” अनिता ने सहमी हुई आवाज़ में कहा, “पैसे नहीं हैं मेरे पास…” गोविन्द ने ठहाका लगाया और खिड़की पार गप कर रहे अपने साथी से कहा, “देख रहा है? कोई सुविधा देना है तो जेब में हाथ डालो।” अनिता ने अपने वॉइस रिकॉर्डर के पास एक बार आंख मिचोली से देखा, और इशारा करके सीमावर्मा को गुप्त कैमरा चालू रखने को संकेत दिया। तभी एक महिला पेंशनधारक आई, जिसे क्लर्क ने तीन दिन से टाल रखा था; उसने पैसे भरने की बजाय क्लर्क को खरी-खोटी सुनाई और बुरी तरह बेइज्जत होने लगी। गोविन्द ने अभद्र भाषा शुरू कर दी। पूरे दफ़्तर में चीख-पुकार मच गई, पर वहां का इंचार्ज—उपसचिव राजीव मिश्रा—ने ध्यान नहीं दिया।

इसके बाद अनिता जाने क्या करेगी, तमाम क्लर्क डर गए कि शक़ किसी बड़ी व्यक्ति पर तो नहीं। तब अनिता ने चश्मा हटाकर अपना आईडी कार्ड दिखा दिया, जिसका फोटो उनकी असली शक्ल से बिलकुल अलग था, पर नाम कॉर्पोरेट लैटरहेड और लोहड़ी पर तांबे का “IAS” छपा देखकर क्लर्क असमंजस में पगला गया। उसने झाड़ियों के पीछे छिपकर शिकायतकर्ता महिलाओं पर नज़र दौड़ाई, सांप की तरह उसके हाथ कांपने लगे। सीमावर्मा और रोहन को इशारा करते हुए अनिता ने रिकॉर्डर से क्लर्क की मांग और धमकी वाली आवाज पब्लिक कर दी। दफ़्तर के बाकी कार्यकर्ता घबरा गए, क्योंकि वहां का माहौल ताबूत की तरह मर गया। तभी दफ़्तर के पास तैनात ग्राम प्रधान की गाड़ी आई, जिसमें जिले के एसपी संजय गुप्ता बैठे थे। उन्होंने फ़ौरन कार्रवाई का आदेश दिया और क्लर्क गोविन्द झा को आरोपी के रूप में हिरासत में ले लिया। उपसचिव राजीव मिश्रा को तत्काल निलंबित कर दिया गया। महिलाएँ राहत की सांस ले रही थीं, उनके चेहरे पर उम्मीद की नींद वापस आई थी।

कुछ ही घंटों में स्थिति हाईकोर्ट के रजिस्टर में पहुँच गयी, जहाँ सुनवाई के बाद पूरे कल्याण कार्यालय में विशेष जांच दल भेजा गया। जांच दल ने पाया कि पिछले छह महीनों में इस कार्यालय से ज़मीन जैविक खेती के लिए आवंटित करने से लेकर वृद्ध पेंशन तक का सारा डेटा गडबड़ था, रिश्वत खातों में करोड़ों रु. ट्रांसफ़र हुए थे। उपसचिव राजीव ने स्वीकार किया कि उसने १०० से अधिक लोगों की शिकायतों को स्थायी रूप से ठुकराया और क्लर्क गोविन्द ने राष्ट्रीय सम्मेलन में अपने खर्चों के लिए दिन में दर्ज शिकायतों की राशि हड़पी थी। एसपी संजय गुप्ता ने दोनों पर भ्रष्टाचार, सरकारी कागज़ों में छेड़छाड़ और पद के दुरुपयोग का मुकदमा दर्ज कराया।

अनिता ने कल्याण कार्यालय की नई नीति लागू की: हर शिकायत का वीडियो रजिस्ट्रेशन अनिवार्य, क्लर्क की निकटता में सीसीटीवी कैमरे, सप्ताह में एक दिन “पेंशनधारकों से संवाद” और शिकायतों का ऑनलाइन ट्रैकर। साथ ही पेंशन के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों की डिजिटल अपलोडिंग करवाई, ताकि फाइलें लापता न हों। ये सारे निर्देश तुरंत जिला और राज्य स्तर पर प्रसारित हुए। जनमानस को तत्काल फायदा दिखने लगा; अगले महीने की पेंशन समय पर आई, लोगों ने अनिता को गांव-गांव फूल और मिठाइयाँ भेजीं।

जब तक इस प्रणाली को पुख्ता रूप से लागू होने में छह महीने लगे, तब तक अन्य जिलों से भी शिकायतें कम हो गईं। कई IAS और IPS अधिकारियों ने अनिता की इस “अंडरकवर” जाँच की बहादुरी की सराहना की। अख़बारों में बने विशेष पेजों पर उन्होंने लिखा, “जब सिस्टम काम नहीं करता, तो सिस्टम का मुखिया बन उसका हिस्सा बनकर काम करें।” अनिता ने इस सफलता के बाद प्रेस कांफ्रेंस में कहा, “मैंने खुद अनुभव किया कि छोटे आदमी की आवाज दबाई जाती है, इसलिए सिस्टम के अँधेरे हिस्सों को रोशन करना ज़रूरी है। अगर जिम्मेदार अधिकारी खुद दर्द महसूस करें, तो बदलाव जल्दी होता है। हमें ‘देखो मत, सुनो मत, बोलो मत’ की स्थिति से निकलना होगा।”

गाँवों में महिलाओं ने स्वयं सहायता समूह बनाकर वृद्धा महिलाओं की शिकायतें दर्ज करने में सहायता का काम शुरू किया। युवा डॉक्टरों ने मेडिकल कैंप लगाए, क्योंकि कल्याण कार्यालय की लापरवाही से कई इलाज रुक गए थे। एनजीओ ने “पेंशन पायलट प्रोजेक्ट” चलाया, जहाँ पेंशनधारक स्वयं लिखकर सेंटर भेजते और विभाग वाॅयस कॉल पर उनको स्टेटस बताते। इस प्रयोग को राज्य सरकार ने मंजूरी दी। अख़बारों ने इन्हें “मानवता पहल” करार दिया।

अनिता ने अपने आत्मनिरीक्षण में लिखा कि असल में परिवर्तन तभी आता है जब आप सिस्टम के फॉल्ट लाईन में घुसकर काम करते हैं। केवल फाइलों पर हस्ताक्षर करना काम नहीं आता; आपको हालात का सामना सात गुणा कठिन स्तर पर करना पड़ता है। जिस सिस्टम को शायद ही कोई चुनौती दे, उस पर खुद स्पष्ट दृष्टि रखते हुए हम बदलाव ला सकते हैं।

एक वर्ष बाद, जब वह जिला क्रीड़ा मेला उद्घाटन के लिए पहुँची, वहाँ के मैदान में वृद्धा महिला दुर्गा देवी जो कल्याण कार्यालय में गई थी, वह पास आई और उनके हाथों में सात साल की पेंशन की एक गड्डी पकड़ा दी। उसके आंसू छलक पड़े। पूरे मेले में तालियों की गड़गड़ाहट हुई। स्थिति इतनी बदल चुकी थी कि कल्याण कार्यालय कर्मियों ने भी उत्सव मनाया—क्योंकि अब वहाँ रोक-टोक की बजाए समय पर सेवा का माहौल था।

अगली सुबह अनिता ने अपने ब्लॉग पर लिखा, “सत्ता का असली स्वाद तब मिलता है जब आप उसी स्तर पर उतरकर इंसानियत को तवज्जो देते हैं।” उन्होंने योजनाएँ आगे बढ़ाईं और राज्य भर में “डिस्ट्रीक्ट कल्याण ट्रांसपेरेंसी प्रोजेक्ट” की शुरुआत की। इस प्रोजेक्ट में सभी कल्याण कार्यालयों में जाँच कमेटियाँ, शिकायत लाइव ट्रैकर और ओपन डोर पॉलिसी लागू हुई।

इस साहसिक प्रयास ने ज़िले को अनूठी पहचान दिलाई। अब लोग कहते हैं, “दुःखी का दर्द तभी समझ पाओगे, जब दुःखियों की शक्ल बनकर उनके करीब जाओगे।” अनिता रावत की कहानी आज भी आनन्दपुर के गलियारों में मिसाल बनी हुई है। कोई भूल कर भी नहीं कहेगा कि कल्याण कार्यालय सिर्फ कागज़ी टालमटोल का अड्डा है।

इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि जब जिम्मेदारी की पगडंडी पर खड़े अधिकारी खुद लोगों की आँखों में झाँककर उनकी तकलीफ़ समझें, तभी सेवा साकार रूप लेती है। बदलाव के लिए अपने कद को छोड़कर जब आप दूसरों के स्तर पर उतरते हैं, तब इंसाफ़ की दरारें भरती हैं, और सिस्टम नई उम्मीदों के साथ चलने लगता है।