अमीर लड़के ने बुज़ुर्ग का मज़ाक उड़ाया, लेकिन सच्चाई जानकर पैरों तले ज़मीन खिसक गई

सुबह के ग्यारह बज चुके थे। शहर के सबसे आलीशान और प्रतिष्ठित होटल ‘इम्पीरियल ब्रू हाउस’ के बीचों-बीच एक बड़ी टेबल पर आर्यन बैठा था। उम्र पच्चीस-छब्बीस के बीच, सफेद महंगी शर्ट पहने, जिसकी कीमत किसी आम आदमी की महीने भर की कमाई से कई गुना ज्यादा थी। कलाई पर चमचमाती घड़ी, जो सिर्फ वक्त नहीं बल्कि उसकी हैसियत की कहानी भी बयां कर रही थी। आर्यन यहाँ सिर्फ कॉफी पीने नहीं आया था, बल्कि अपनी कामयाबी का डंका बजाने, अपने अहंकार का प्रदर्शन करने आया था।

उसके चारों ओर बैठे दोस्त, या कहें चापलूस, हर बात पर ऐसे सिर हिला रहे थे जैसे उनकी गर्दन में स्प्रिंग लगी हो।
“देखो दोस्तों,” आर्यन ने कॉफी का कप जोर से टेबल पर रखते हुए कहा, “हम कोई साधारण प्रोडक्ट नहीं बेच रहे, हम एक क्रांति ला रहे हैं। मार्केट हिल जाएगा। इन्वेस्टर तो पीछे पड़े हैं, कह रहे हैं जितना पैसा चाहिए, ले लो, बस कंपनी को आगे बढ़ाओ।”

उसकी आवाज इतनी बुलंद थी कि आसपास बैठे लोग भी अनसुना नहीं कर पाए। जैसे कोई राजा अपने दरबारियों को आदेश दे रहा हो। दोस्तों में से एक बोला, “वाह आर्यन भाई, आप तो कमाल कर दिए।” दूसरा बोला, “अब आपकी कंपनी का नाम हर जुबान पर होगा।” आर्यन की मुस्कान में कोई विनम्रता नहीं, बल्कि घमंड की चमक थी।

इसी बीच कैफे का दरवाजा धीरे से खुला और एक बुजुर्ग सज्जन अंदर आए। साधारण कपड़ों में, लेकिन उनकी शख्सियत में एक अलग ही गरिमा थी। उनका नाम था जगदीश प्रसाद। वे धीरे-धीरे काउंटर की ओर बढ़े। काउंटर के पीछे युवा बरिस्ता मशीनों पर व्यस्त थे। उन्होंने विनम्रता से कहा, “बेटा, एक फिल्टर कॉफी मिलेगी?”

लड़के ने बिना सिर उठाए कहा, “अंकल, लाइन लगी है, थोड़ा इंतजार करें।”
जगदीश प्रसाद चुपचाप किनारे खड़े हो गए। उनकी आंखों में कोई शिकायत नहीं थी, बस एक गहरी समझ और धैर्य था। वे देख रहे थे कि लोग कॉफी से ज्यादा अपने फोन और लैपटॉप से प्यार करते हैं, और बातें करने से ज्यादा दिखावे में लगे हैं।

दस-पंद्रह मिनट बीत गए, कोई उनकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था। लोग आते-जाते रहे, लेकिन वे वहीं खड़े रहे। तभी आर्यन ने उनकी तरफ देखा और ऊंची आवाज़ में बोला, “ओ काका, मेन्यू समझ नहीं आ रहा क्या? हिंदी में प्रिंट करवा दूं? यहाँ चाय-समोसा नहीं बिकता।”

कैफे में ठहाकों की गूंज फैल गई। लेकिन जगदीश प्रसाद की आंखों में न तो गुस्सा था, न कोई नाराजगी।

काउंटर के पीछे खड़ी किरण यह सब देख रही थी। 22 साल की यह लड़की पिछले आधे घंटे से आर्यन और उसके दोस्तों के महंगे ऑर्डर पूरे कर रही थी। जगदीश प्रसाद को देखकर उसके मन में अपने दादाजी की याद ताजा हो गई और उसकी आंखें नम हो गईं। उसने गहरी सांस ली और उनके पास जाकर बोली,
“सर, माफ़ कीजिएगा, आपको इंतजार करना पड़ा। बताइए, मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूँ?”

जगदीश प्रसाद ने मुस्कुराते हुए कहा, “एक फिल्टर कॉफी देना।”
किरण ने कहा, “फिल्टर कॉफी तो नहीं है, पर मैं आपके लिए ब्लैक कॉफी बना देती हूँ।”

आर्यन फिर चिल्लाया, “फिल्टर कॉफी! क्या यह कोई मद्रासी होटल है? किरण, मेरा शेक जल्दी ला। इन चैरिटी केसों पर टाइम मत बर्बाद कर।”
किरण का चेहरा गुस्से से लाल हो गया, उसने नजरें झुकाईं, खुद को संभाला और जगदीश जी के लिए कॉफी लाकर टेबल पर रख दी।
“सर, आपकी कॉफी।”
जगदीश प्रसाद ने कॉफी ली और मुस्कुराकर पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है बेटा?”
“किरण।”
“बहुत अच्छा नाम है। कब से काम कर रही हो यहाँ?”
“छह महीने से, सर। घर की मजबूरी है, इसलिए यह सब करना पड़ रहा है।”
जगदीश प्रसाद ने सिर हिलाया, “इतनी कम उम्र में इतनी जिम्मेदारी लेना बड़ी हिम्मत की बात है।”

इसी बीच आर्यन का ड्रामा और बढ़ गया। वह फोन पर जोर-जोर से बोल रहा था, “हां मिस्टर वर्मा और सिंघानिया आते ही होंगे। उन्हें पता है यूनिकॉर्न कैसा दिखता है। मीटिंग के बाद फंडिंग फाइनल।”
पास बैठे कुछ लोग प्रभावित हो रहे थे।

ठीक 12 बजे दरवाजा खुला। दो बुजुर्ग पुरुष अंदर आए, उम्र पचास के ऊपर, व्यक्तित्व ऐसा कि सबकी नजरें अपने आप उनकी ओर उठ गईं। बेहतरीन सूट पहने, सधा हुआ अंदाज। कैफे का मैनेजर खुद उनके पास भागा।
आर्यन का चेहरा खिल उठा। उसने शर्ट ठीक की, बाल संवारे और मुस्कुराते हुए आगे बढ़ा।
“अब देखना,” उसने दोस्तों से कहा।

लेकिन दोनों बुजुर्गों की नजरें आर्यन पर नहीं थीं। वे सीधे जगदीश प्रसाद की ओर देखने लगे। पहले उनकी आंखों में हैरानी थी, फिर गहरा सम्मान। वे बिना वक्त गंवाए उस साधारण टेबल की ओर बढ़े। हर नजर उस दृश्य पर टिकी थी।

मिस्टर वर्मा और मिस्टर सिंघानिया, देश के बड़े निवेशक, साधारण खादी कुर्ता-पायजामा पहने एक बुजुर्ग के सामने खड़े थे।
मिस्टर वर्मा ने नम्रता से कहा, “सर, अगर आप इजाजत दें तो हम बैठ जाएं।”
जगदीश प्रसाद ने कॉफी का कप नीचे रखते हुए मुस्कुराते हुए कहा, “अरे वर्मा, तुम्हें इजाजत लेने की क्या जरूरत? बैठो, सिंघानिया तुम भी आओ।”
दोनों निवेशक उस साधारण टेबल पर बैठे, जैसे शिष्य अपने गुरु के सामने।

आर्यन यह सब देख रहा था। उसकी नसों में गुस्सा और जलन दौड़ गई। उसके लिए यह असंभव था कि जिन दिग्गजों से वह मिलने आया था, वे उसे नजरअंदाज करके किसी और की टेबल पर बैठ जाएं। उसने चेहरा संभाला, मुस्कुराया और आत्मविश्वास का नाटक करते हुए उनकी ओर बढ़ा।
“मिस्टर वर्मा, मिस्टर सिंघानिया,” उसने हाथ बढ़ाते हुए कहा, “मैं आर्यन, कनेक्ट ओएनएल का फाउंडर। मुझे लगता है हमारी मीटिंग का समय हो गया है।”

वर्मा ने उसकी ओर देखा, पर जैसे कोई रास्ते में पड़े पत्थर को देख रहा हो।
“हम अपनी दिन की सबसे जरूरी मीटिंग में पहले से ही बैठे हैं।”
उन्होंने नजर फेर ली और फिर जगदीश प्रसाद की ओर देखने लगे।

आर्यन का चेहरा तमतमा गया। वह बुरी तरह आहत हुआ, लेकिन हार मानने को तैयार नहीं था। उसने फिर कहा, “सर, शायद आप इन काका जी को जानते होंगे, लेकिन आप यहाँ मुझसे मिलने आए हैं। मेरा स्टार्टअप 50 करोड़ की वैल्यूएशन पर खड़ा है।”

उसके शब्द पूरे भी नहीं हुए थे कि जगदीश प्रसाद ने धीरे से कहा, “वैल्यूएशन 50 करोड़? वाह…” उनकी आवाज़ शांत थी, पर उसमें गहरा अर्थ था।
“बेटा, जिस पेड़ की जड़ें जमीन में नहीं होतीं, वह एक छोटे से तूफान में ही उखड़ जाता है। तुम्हारी वैल्यूएशन कागजों पर हो सकती है, लेकिन तुम्हारी नियत में मुझे दीमक दिख रही है।”

उनके शब्द हथौड़े की तरह गिरे। कैफे में सन्नाटा छा गया। आर्यन तिलमिला उठा।
“आप होते कौन हैं मुझे लेक्चर देने वाले? 100-200 की कॉफी के लिए यहाँ बैठे हैं और मुझे बिजनेस सिखा रहे हैं? आप जानते भी हैं मैं कौन हूँ?”

मिस्टर सिंघानिया ने ठहाका लगाया, लेकिन वह व्यंग्यपूर्ण था।
“यह नौजवान पूछ रहा है कि आप कौन हैं जेपी सर? बेटा, तुम 50 करोड़ की वैल्यूएशन की बात कर रहे हो। यह व्यक्ति हर साल उससे कहीं ज्यादा दान करता है। हम जैसे इन्वेस्टर्स भी अपनी तिजोरी खोलने से पहले इनके दरवाजे पर सलाह लेने आते हैं।”

पूरा कैफे स्तब्ध रह गया। आर्यन का रंग उड़ गया। माथे पर पसीना छलक गया। दोस्त, जो पहले उसकी तारीफ कर रहे थे, अब कुर्सियों में ढंसने लगे।

जगदीश प्रसाद ने गहरी सांस ली।
“तुमने पूछा मैं कौन हूँ? मैं वह खरीदार हूँ जो सामान की क्वालिटी से पहले बेचने वाले की आंखों में सच्चाई देखता हूँ। मैं वह इन्वेस्टर हूँ जो बैलेंस शीट से पहले फाउंडर की कैरेक्टर शीट पढ़ता हूँ। आज मैंने यहाँ आकर निराशा पाई है।”

उनकी आंखें आर्यन पर टिकी थीं।
“तुम जैसे लड़के स्टार्टअप को मेहनत और इनोवेशन का नहीं, अहंकार और दिखावे का प्रतीक बना रहे हो। तुम्हें लगता है महंगी घड़ी, भारी शब्द और दूसरों को नीचा दिखाना ही सफलता है? नहीं बेटा। इंसान अपनी मेहनत, नियत और इंसानियत से बड़ा होता है।”

उन्होंने रुककर कहा,
“तुमने उस लड़की का अपमान किया जो यहाँ ईमानदारी से काम कर रही है। जो अपने कर्मचारियों का सम्मान नहीं करता, वह ग्राहकों का क्या करेगा? तुम्हारा इन्वेस्टमेंट प्रपोजल मैं यहीं खारिज करता हूँ।”

पूरे कैफे में सन्नाटा छा गया। आर्यन जड़ हो गया।

जगदीश प्रसाद ने कहा, “किरण बेटी, ज़रा इधर आओ।”
किरण कांपती हुई उनकी टेबल पर आई।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “डरो मत बेटी। तुम्हारी मेहनत और सच्चाई मैंने देखी है। अगर आज मैंने तुम्हारी मदद नहीं की तो इंसानियत का कोई मोल नहीं। तुमने बताया था कि अपना छोटा होटल खोलना चाहती हो?”
“जी, पर मेरे पास इतना पैसा नहीं कि खोल सकूं।”
जगदीश प्रसाद ने डायरी से एक पन्ना फाड़ा, “यह मेरा नंबर और ऑफिस का पता है। कल सुबह आकर मिलो। पैसों की चिंता मत करना।”

किरण के हाथ कांप रहे थे। उसने डरते-डरते वह पन्ना लिया। फिर जगदीश प्रसाद ने टेबल पर ₹500 का नोट रखा। कॉफी की कीमत ₹100 थी, पर उन्होंने पांच गुना छोड़ दिया। यह उनका अंदाज था—किसी पर एहसान न छोड़ना।

फिर किरण के सिर पर हाथ रखकर बोले, “हिम्मत रखना बेटी, कल सुबह का सूरज तुम्हारी जिंदगी बदल देगा।”
उनकी नजरें आर्यन पर पड़ीं। उसके चेहरे से अहंकार गायब था, आंखों में खालीपन था।
जगदीश प्रसाद की आंखों में गुस्सा नहीं, बल्कि गहरा अफसोस था।

चलते-चलते उन्होंने कहा,
“सफलता का शिखर चढ़ना आसान है, वहां टिके रहना मुश्किल। याद रखना बेटा, शिखर पर इंसानियत टिकती है, अहंकार नहीं।”

वे मिस्टर वर्मा और मिस्टर सिंघानिया के साथ बाहर निकल गए। कैफे में जादू टूट गया।
आर्यन के दोस्त धीरे-धीरे खिसकने लगे। कोई फोन पर बात करने का बहाना बना, कोई नजरें चुरा कर निकल गया।
मैनेजर, जो पहले उसे सबसे बड़ा वीआईपी समझता था, अब उसकी टेबल की ओर देखना भी नहीं चाहता था।
आर्यन अकेला रह गया—अपनी टूटी सल्तनत का हारा हुआ बादशाह।

उस रात शहर में आग की तरह खबर फैल गई—
‘किंग मेकर जेपी ने आर्यन को सबके सामने खारिज कर दिया।’
सुबह होते ही आर्यन के निवेशक ने हाथ खींच लिया।
को-फाउंडर ने इस्तीफा दे दिया।
फोन लगातार बजता रहा, पर अब कोई फंडिंग देने नहीं, बल्कि पैसा वापस मांगने के लिए कॉल कर रहा था।
50 करोड़ की वैल्यूएशन 24 घंटे में धूल हो गई।

इसी सुबह किरण दिए गए पते पर पहुंची।
ना कोई बड़ी बिल्डिंग, ना कांच की दीवारें।
एक शांत बंगला, जिसके बाहर पीतल की पट्टी पर लिखा था—‘शांति’।
थोड़ी देर बाद जगदीश प्रसाद आए।
उन्होंने उसे अंदर बुलाया, कहा, “बेटी, तुम्हारा इंतजार था।”

दो घंटे तक बातचीत हुई।
फिर सेक्रेटरी को बुलाकर निर्देश दिए।
आधे घंटे में शहर के बड़े फाइनेंस और मार्केटिंग एक्सपर्ट उस कमरे में थे।
किरण, जो कल तक कप उठा रही थी, आज बिजनेस प्लान बना रही थी।

छह महीने बाद शहर की एक शांत सड़क पर एक छोटा प्यारा होटल खुला—नाम ‘मां की रसोई’।
यह होटल जल्दी ही मशहूर हो गया।
स्वाद के लिए तो था ही, पर सबसे ज्यादा अपनेपन के लिए।
किरण ने ऐसे लोगों को काम पर रखा जिन्हें वाकई जरूरत थी।
उसका एक नियम था—रात को बचा सामान अनाथालय में जाता।

एक शाम जब किरण ग्राहकों से हंसते हुए बात कर रही थी, दरवाजे पर एक कार रुकी।
जगदीश प्रसाद भीतर आए।
छड़ी का सहारा था, पर चेहरे पर वही मुस्कान।
किरण ने आगे बढ़कर उनके पैर छुए।
“बेटी,” उन्होंने कहा, “अब तुम खुद दूसरों को मौके दोगी। यही असली सफलता है।”

किरण की आंखें नम हो गईं।
उसने महसूस किया कि कभी-कभी जिंदगी में सबसे बड़ा निवेश पैसा नहीं, बल्कि किसी का विश्वास होता है।

समाप्त।