अस्पताल वालों ने एक बुज़ुर्ग को ग़रीब समझकर बाहर निकाल दिया, फिर जो हुआ.
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कमरा नंबर नौ का रहस्य: एक बूढ़े मरीज की अनकही कहानी
रात के 11 बज रहे थे। शहर के सबसे महंगे और आधुनिक अस्पताल, ग्लोबल हेल्थ सिटी, की गलियारियों में सन्नाटा पसरा हुआ था। हर तरफ खामोशी का राज था। केवल वेंटिलेटर की धीमी आवाज़ और नर्सिंग काउंटर पर फोन की घंटी कभी-कभार माहौल को तोड़ती। ऐसा लगता था जैसे अस्पताल की हर दीवार कुछ कहने के लिए शब्द खोज रही हो।
इसी खामोशी के बीच, सेंट्रल गेट पर एक परछाई ने कदम रखा। वह कोई आम शख्स नहीं था। एक बूढ़ा आदमी, जिसके लंबे बाल बिखरे हुए थे, दाढ़ी झाड़ी हुई थी, और जिस्म पर एक मैला कंबल ओढ़ा हुआ था। उसके हाथ कांप रहे थे और पैरों में पुरानी चप्पलें थीं। गेट पर बैठे गार्ड ने पहले तो उसे नजरअंदाज किया, लेकिन जब वह धीरे-धीरे अंदर आने लगा, गार्ड झुंझला उठा।
“ओ चाचा, कहां घुसने चले हो? यह कोई सरकारी अस्पताल नहीं है। वापस जाओ, सुबह आना।”
बूढ़े ने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन उसकी आवाज़ साथ नहीं दे रही थी। केवल एक धीमी सी आवाज निकली, “तबीयत खराब है बेटा, सांस नहीं ले पा रहा।”
गार्ड ने नाक चढ़ाते हुए मुंह फेर लिया, जैसे यह रोज का मामला हो। लेकिन बूढ़ा अब अंदर आ चुका था। वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए गलियारे के किनारे से गुजरा और एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।
कोई उसकी तरफ देखने वाला नहीं था। नर्सें, रिसेप्शन पर बैठी लड़कियां, सफाई करने वाले सभी ने उसे नजरअंदाज कर दिया। जैसे वह वहां मौजूद ही न हो। मगर वह बूढ़ा सिर्फ बैठा नहीं था, वह देख रहा था। हर अमल, हर रवैया, हर चेहरा—सब कुछ अपने अंदर समेट रहा था।
उसकी आंखों में एक ऐसी होशियारी थी जो आम मरीजों में नहीं होती। वह बहुत देर तक वहीं बैठा रहा, लेकिन किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया।
करीब आधे घंटे बाद, इमरजेंसी में एक एक्सीडेंट का केस आया। अस्पताल का स्टाफ तुरंत मुस्तैद हो गया। नर्सें, डॉक्टर सभी अलर्ट हो गए। मरीज का वीआईपी प्रोफाइल देखकर खास कमरा खोल दिया गया।
लेकिन बूढ़ा चाचा अब भी उसी कुर्सी पर बैठा था, सब कुछ खामोशी से देख रहा था। थोड़ी देर बाद वह नर्सिंग काउंटर पर गया और एक नर्स से बोला, “बेटी, सांस घुट रही है।”
नर्स ने उसकी फटी-पुरानी हालत देखकर लापरवाही से कहा, “यहां एक हफ्ता पहले अपॉइंटमेंट लेकर आना पड़ता है। बिना अपॉइंटमेंट के दाखिला नहीं होता। तुम कल सरकारी अस्पताल चले जाना।”
बूढ़े ने धीमी आवाज़ में कहा, “मगर बेटी, फिलहाल के लिए मुझे दवा चाहिए, थोड़ा पानी भी।”
नर्स ने गुस्से से जवाब दिया, “अब यहां बैठे मेरा दिमाग मत खाओ। यह अस्पताल है, धर्मशाला नहीं। चले जाओ।”
और वह पलटकर चली गई।
बूढ़ा वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया, लेकिन उसके चेहरे पर एक अजीब सुकून था। जैसे वह कुछ जान चुका हो, और यकीन हो गया हो कि जो सुना था, वह सच निकला।
उसने अस्पताल की दीवारों पर लगे सुनहरे फ्रेम में टंगी अस्पताल के मालिक की तस्वीरों को घूरना शुरू किया। तभी एक नौजवान डॉक्टर की नजर बूढ़े पर पड़ी। वह अपनी शिफ्ट खत्म करके कैंटीन जा रहा था। बूढ़े को देखते ही वह रुका, पास आकर बोला, “बाबा, तबीयत खराब लग रही है, अंदर चलिए, मैं देखता हूं।”
बूढ़े ने सिर हिलाकर बीमार होने का इकरार किया, लेकिन कुछ नहीं कहा। डॉक्टर ने उसका बाजू थामा और उसे कमरा नंबर नौ की तरफ ले गया।
अस्पताल के अमले को इस शख्स की पहचान नहीं थी, लेकिन अस्पताल की गलियारियों में हवा कुछ सरगोशियां कर रही थी। जैसे दीवारों को पहले ही पता था कि यह कोई आम मरीज नहीं है। यह एक सच को बेनकाब करने की शुरुआत थी।
लेकिन वह सच क्या था? और यह बूढ़ा कौन था? यह अभी सामने आना बाकी था।
कमरा नंबर नौ का रहस्य
नौजवान डॉक्टर हारिस, जो अपनी ईमानदारी और नरम दिल होने की वजह से स्टाफ में खास मुकाम नहीं रखता था, बूढ़े को सहारा देकर कमरा नंबर नौ तक लाया।
यह कमरा आमतौर पर इस्तेमाल नहीं होता था क्योंकि वहां की लाइट्स अक्सर झपकती थीं और कुछ स्टाफ का मानना था कि वहां अजीब सी फिजा है। मगर डॉक्टर हारिस ने इस सब पर कभी ध्यान नहीं दिया।
उसने बूढ़े को बिस्तर पर लिटाया, पानी दिया और ब्लड प्रेशर चेक किया।
“ब्लड प्रेशर काफी लो है, बाबा। आपने कुछ खाया है आज?” हारिस ने नरमी से पूछा।
बूढ़े ने नकार में सिर हिलाया, “दो दिन हो गए बेटा।”
डॉक्टर हारिस रुक गया, फिर बिना कुछ कहे मोबाइल निकाला और कैंटीन में कॉल लगाई, “दो सादे खाने की प्लेट दही के साथ कमरा नंबर नौ में भेज दो।”
बूढ़े की आंखों में हैरत झलकी, जैसे उसे यकीन नहीं आ रहा हो कि ऐसे भी लोग हैं।
खाने के बाद डॉक्टर हारिस ने उसे ड्रिप लगा दी और जब वह सोने लगा तो कहा, “बाबा, आप यहां महफूज हैं। सो जाइए, सुबह मजीद देख लेंगे।”
अस्पताल में बहस
दूसरी तरफ नर्सिंग काउंटर पर रिसेप्शन पर बैठी नैना, नर्स संगीता और एडमिन इंचार्ज निसार में बहस छिड़ गई थी।
वे हैरान थे कि डॉक्टर हारिस ने उस बूढ़े फकीर को दाखिल क्यों कर लिया।
निसार ने भौंहे चढ़ाकर कहा, “यहां तो फ्री सर्विस का कोई सिस्टम नहीं है और वह बंदा तो किसी फाइल में भी रजिस्टर्ड नहीं है। हारिस बहुत जज्बाती है। सब मरीज एक जैसे लगते हैं उसे।”
नैना तंजिया हंसी।
नर्स संगीता बोली, “मुझे लगता है यह बूढ़ा सुबह भी आया था। मुझे यह कुछ अजीब सा लग रहा है। अभी भी जब यह बेंच पर बैठा था तो हर चीज़ को गौर से देख रहा था, जैसे कुछ ढूंढ रहा हो।”
उसी समय कैमरों की रिकॉर्डिंग निकाली गई और बूढ़े के दाखिल होने से लेकर कमरा नंबर नौ तक की रिकॉर्डिंग देखी गई।
नैना बोली, “कुछ तो गड़बड़ है। भिखारी को लेकर इतना टेंशन न लो। कल सुबह तक सब क्लियर हो जाएगा।”
सुबह का खुलासा
सुबह हुई तो कमरा नंबर नौ में डॉक्टर हारिस दोबारा पहुंचा।
बूढ़ा जाग चुका था, उसका चेहरा पुरसुकून था लेकिन आंखों में चमक थी।
“कैसा लग रहा है?” डॉक्टर हारिस ने पूछा।
“थोड़ा बेहतर हूं। आपका शुक्रिया। आपने फरिश्ता बनकर मेरी जान बचाई,” बूढ़े ने पहली बार खुलकर कहा।
“शुक्रिया बाबा, पर मैं कोई फरिश्ता नहीं। मैं एक आम सा डॉक्टर हूं।”
“बेटा, तुम्हें लगता है जो तुमने किया वो आम लोग करते हैं।”
डॉक्टर हारिस कुछ कहने ही वाला था कि निसार अंदर दाखिल हुआ।
“डॉक्टर साहब, माफ कीजिए, मगर हमें यह मालूम करना है कि यह मरीज कौन है? हॉस्पिटल में कोई रिकॉर्ड नहीं है।”
डॉक्टर हारिस ने रात की स्थिति बताई कि यह बाबा बहुत बीमार था।
मगर निसार सख्ती से बोला, “डॉक्टर साहब, आपको अधिकार नहीं कि बिना शिनाख्त या रजिस्ट्रेशन के किसी को दाखिल करें। यह काम एडमिनिस्ट्रेशन का है, आपका नहीं।”
बूढ़ा जो एक साइड में बैठा था, सब सुन रहा था, बोला, “तो क्या किसी इंसान के जिंदा रहने का हक सिर्फ रजिस्ट्रेशन से जुड़ा है?”
निसार ने उसे देखकर नजर चढ़ाई, “यह अस्पताल है बाबा, खैरातखाना नहीं।”
डॉक्टर हारिस ने बात संभालने की कोशिश की।
इस दौरान बूढ़े ने निसार को गौर से देखा जैसे चेहरा याद रख रहा हो।
निसार गुस्से में मुड़ा, दरवाजा जोर से बंद किया और चला गया।
डॉक्टर हारिस ने अफसोस से सिर हिलाया, “मुझे माफ कीजिए बाबा, मैं कुछ नहीं कर सकता।”
बूढ़े ने जवाब दिया, “तुमने जो किया वही काफी है बेटा। तुम्हें नहीं पता, मगर तुमने मुझे बहुत कुछ दिखा दिया है।”
डॉक्टर हारिस रुक गया।
कुछ लम्हों के लिए बूढ़े की आंखों में ऐसा अक्स देखा जैसे वह कोई आम इंसान नहीं था।
अस्पताल का मालिक
अस्पताल की सुबहों में एक अलग चमक होती है।
मगर आज का दिन ग्लोबल हेल्थ सिटी में कुछ अलग था।
नर्सें चुप थीं।
एडमिन स्टाफ बेचैन थे।
निसार को रात वाले बूढ़े के बारे में बेचैनी खा रही थी।
डॉक्टर हारिस नाश्ते के बाद फिर कमरा नंबर नौ की तरफ गया।
दरवाजा खोला तो बूढ़ा वहीं बैठा था, पुरसुकून, जैसे किसी नतीजे पर पहुंच चुका हो।
“अब आपकी तबीयत कैसी है, बाबा?” हारिस ने नरमी से पूछा।
बूढ़े ने मुस्कुरा कर कहा, “अब मैं बिल्कुल ठीक हूं बेटा। और अब समय आ गया है पर्दा हटाने का।”
“पर्दा?” डॉक्टर हारिस चौक गया।
बूढ़े ने जेब से मोबाइल निकाला और एक नंबर मिलाया।
अगले ही लम्हे कमरे में दो शख्स दाखिल हुए।
सादे कपड़ों में मगर साफ-साफ सिक्योरिटी अधिकारी लग रहे थे।
डॉक्टर हारिस पीछे हट गया।
“यह क्या हो रहा है?”
बूढ़े ने नरमी से कहा, “बेटा, मैं कोई फकीर नहीं हूं। मैं इस पूरे अस्पताल का मालिक हूं। सेठ रविशंकर।”
हारिस की आंखें हैरत से खुल गईं।
“आप सेठ रविशंकर हैं? वही जो ग्रुप ऑफ ग्लोबल हेल्थ सिटी हॉस्पिटल्स के मालिक हैं?”
“जी हां,” सेठ रविशंकर मुस्कुराए।
“मैं यहां फकीर का भेष बदलकर इसलिए आया क्योंकि मुझे शिकायतें मिल रही थीं कि हमारे यहां अमीर और गरीब में फर्क किया जा रहा है।
यहां गरीबों के हक की इज्जत और इंसानियत कहीं खो चुकी है।
उनके लिए इलाज इतना महंगा कर दिया गया है कि वह यहां आने का सोच भी नहीं सकते।
मैं यह सब देखना चाहता था बगैर किसी पहचान के।”
डॉक्टर हारिस के होंठ कांपने लगे।
“सर, आपने मुझे बताया नहीं।
बेटा, तुमने बिना पहचान, बिना सवाल मेरी मदद की।
यही असली इंसानियत है।”
सेठ रविशंकर ने जेब से एक लिफाफा निकाला।
“इस अस्पताल में एक नई शाखा कायम हो रही है, जिसका नाम अब आपके नाम पर होगा।
डॉक्टर हारिस ह्यूमन वेलफेयर यूनिट।
यह शाखा बेसहारा, गरीब या बेशनाख्त मरीजों के इलाज के लिए होगी और तुम इसके इंचार्ज होगे।”
डॉक्टर हारिस की आंखों में आंसू आ गए।
उसने सुना था कि अच्छाई का फल इसी जन्म में मिलता है और आज उसे वह फल मिल गया था।
सजा और बदलाव
दूसरी तरफ निसार, नैना और संगीता को अचानक मीटिंग हॉल में बुलाया गया।
वे हैरान थे क्योंकि खुद सेठ रविशंकर मीटिंग हॉल में मौजूद थे।
साफ़ लिबास, गरिमा से भरपूर, लेकिन चेहरा वही जो कल फकीर समझा गया था।
निसार को पसीना आ गया।
नैना की आंखें झुक गईं।
सेठ रविशंकर ने सख्त लहजे में कहा, “जो लोग दूसरों के लिबास, हालत या जबान से उनकी इज्जत तय करते हैं, उनका इस इदारे में कोई काम नहीं।
आप तीनों को नौकरी से निकाल दिया जा रहा है और आपके कंडक्ट की तहकीकात होगी।”
कमरा खामोश हो गया।
निसार, नैना और संगीता परेशान नजरों से एक-दूसरे को देखने लगे।
वे माफी मांगना चाहते थे, लेकिन सेठ रविशंकर का गुस्सा देखकर उनसे माफी मांगने की हिम्मत नहीं हुई।
वे चुपचाप हॉल से बाहर निकल गए।
नई शुरुआत
एक हफ्ते बाद अस्पताल के बाहर एक बोर्ड लगा था:
डॉक्टर हारिस ह्यूमन वेलफेयर यूनिट
इंसानियत सबसे पहले।
लोग वहां कतार में खड़े थे।
कुछ पैसे के बिना, कुछ सहारा तलाशते हुए।
मगर इस बार उन्हें धक्के नहीं, बल्कि इज्जत मिल रही थी।
अंदर डॉक्टर हारिस मुस्कुरा रहा था।
उसकी आंखों में वही सुकून था जो उस दिन सेठ रविशंकर की आंखों में था।
जब एक बूढ़ा फकीर बनकर इंसानियत का इम्तिहान लेने आया था।
समाप्ति
दोस्तों, यह कहानी हमें बताती है कि इंसानियत कभी भी उम्र, कपड़ों या स्थिति से नहीं मापी जाती।
और सच्चा बदलाव तब आता है जब हम दूसरों की इज्जत और हक की कद्र करना सीखते हैं।
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