इंद्रेश और शिप्रा : वैदिक प्रेम की एक अनोखी कहानी

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इंद्रेश महाराज की शादी: भक्ति, मर्यादा और आधुनिकता के संगम की नई कथा

धर्म और भक्ति के मंच पर शांत स्वर में कथा कहने वाले इंद्रेश महाराज—जो अपनी सादगी, संतुलन और अध्यात्मिक गहराई के लिए जाने जाते हैं—जब विवाह बंधन में बंधे, तो यह घटना न केवल उनके अनुयायियों के बीच, बल्कि पूरे समाज में चर्चा का विषय बन गई।
सोशल मीडिया से लेकर चौराहों तक सवाल उठने लगे—
क्या एक कथावाचक का विवाह करना उचित है? क्या भक्ति और गृहस्थ जीवन एक ही पथ पर साथ चल सकते हैं?
और सबसे बड़ा प्रश्न—क्या यह निर्णय अचानक था, या इसके पीछे कोई गहरी सोच, जिम्मेदारी और समय की मांग छिपी थी?

यह लेख इन्हीं प्रश्नों को समझने का प्रयास है—इंद्रेश महाराज के जीवन, उनके संस्कारों, उनके विवाह, समाज की प्रतिक्रियाओं और सनातन परंपरा में गृहस्थ जीवन के महत्व को एक नए दृष्टिकोण से देखने का प्रयास।


इंद्रेश महाराज—वृंदावन की भक्ति में पले, संस्कारों में ढले

इंद्रेश उपाध्याय महाराज का जन्म वृंदावन की उस पावन मिट्टी में हुआ, जहाँ भक्ति सांसों में और अध्यात्म वातावरण में घुला हुआ है।
उनके पिता, श्री कृष्ण चंद्र शास्त्री ठाकुर, स्वयं विख्यात भागवत कथावाचक रहे।
कथा, शास्त्र और सेवा—यही उनके घर का वातावरण था। बचपन में ही उन्होंने देख लिया था कि कथा का अर्थ केवल मंच पर बैठना नहीं, बल्कि जीवन को शास्त्रों की तरह सजाना है।

उनकी माता, नर्मदा शर्मा, शांत और संयमित स्वभाव की थीं, जिनसे उन्होंने विनम्रता और धैर्य का पाठ सीखा।
संयुक्त परिवार में पले-बढ़े इंद्रेश महाराज को बचपन से यह सिखाया गया कि जीवन “मैं क्या हूँ” से नहीं, बल्कि “मुझे कैसे रहना है” से सार्थक होता है।

बचपन में ही उनका मन कथा, श्लोक और भक्ति में रम गया। 13 वर्ष की उम्र तक उन्होंने पूरी भगवद्गीता कंठस्थ कर ली थी—केवल याद नहीं की थी, बल्कि समझी और जी थी।

स्कूल की पढ़ाई कान्हा माखन स्कूल से हुई, लेकिन असली शिक्षा उन्हें घर के आंगन में, कथा के मंच के पीछे और पिता के सान्निध्य में मिली।


कथा के मंच पर एक नया उदय

साल 2015 में, द्वारका की धरती पर, उन्होंने पहली बार भागवत कथा कही।
श्रोताओं को यकीन करना मुश्किल पड़ा कि यह किसी युवा कथावाचक की पहली कथा थी—स्वर में संतुलन, भाषा में सहजता और शास्त्रों पर असाधारण पकड़।

धीरे-धीरे सोशल मीडिया ने उनके विचारों को देश-विदेश तक पहुँचा दिया।
खास बात यह थी कि युवा पीढ़ी भी उनसे जुड़ने लगी, क्योंकि वे धर्म को भय नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव की तरह समझाते थे।

उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, लेकिन जीवन का हर कदम सादगी से भरा रहा—न कोई दिखावा, न कोई विवाद।

इसी वजह से जब उनके विवाह की खबर आई, तो लोग चकित रह गए।


क्या कथावाचक का विवाह उचित है?—बहस और मौन दोनों

विवाह की खबर के साथ ही चर्चाओं का दौर शुरू हो गया।
कुछ लोगों ने पूछा—
“क्या एक कथावाचक को विवाह करना चाहिए?”
जबकि बहुतों ने कहा—
“गृहस्थ आश्रम तो सनातन की रीढ़ है, यह तो उत्कृष्ट उदाहरण है।”

पूरे सोशल मीडिया में बहस चलती रही, लेकिन इंद्रेश महाराज ने मौन साधे रखा।
उनका मौन ही उत्तर बन गया—
हर प्रश्न का जवाब शब्दों से नहीं दिया जाता।

असल में यह निर्णय न अचानक था और न असामान्य—यह सोच, जिम्मेदारी और संतुलन का परिपक्व परिणाम था।


शिप्रा शर्मा—एक सादगीपूर्ण, संतुलित और भक्ति से जुड़ी जीवन संगिनी

यह जानने की उत्सुकता स्वाभाविक थी कि वह कौन हैं, जो इंद्रेश महाराज की जीवन यात्रा का हिस्सा बनने जा रही हैं।

शिप्रा शर्मा—हरियाणा के यमुनानगर में जन्म, अमृतसर में परवरिश, ब्राह्मण परिवार की बेटी।
उनके पिता हरेंद्र शर्मा पुलिस विभाग में डीएसपी रहे—घर में अनुशासन और संस्कार दोनों का वातावरण।

शिप्रा स्वयं बचपन से अध्यात्म की ओर झुकी हुई थीं।
उनकी भक्ति दिखावे वाली नहीं, बल्कि भीतर की शांति से उपजी हुई थी।
सोशल मीडिया पर उनके कुछ भक्ति-भाव वाले वीडियो लोकप्रिय हैं, पर वे कभी प्रसिद्धि की भूखी नहीं रहीं।


रिश्ते की शुरुआत—सम्मान से, आकर्षण से नहीं

दोनों परिवार पहले से एक-दूसरे को जानते थे।
कथा और धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से कभी-कभी मुलाकात होती थी।

शिप्रा ने पहली बार इंद्रेश महाराज को मंच पर देखा और प्रभावित हुईं—उनकी भाषा, उनकी मर्यादा और सबसे अधिक, उनकी विनम्रता से।
यह रिश्ता आकर्षण से नहीं, धीरे-धीरे बने आदर से जन्मा।

बातचीत परिवारों के बीच धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
दोनों पक्ष इस बात को समझते थे कि इंद्रेश महाराज सार्वजनिक व्यक्तित्व हैं—और उनके जीवन साथी का संयमी, सशक्त और संतुलित होना अत्यंत आवश्यक है।

शिप्रा के स्वभाव ने दोनों परिवारों को आश्वस्त किया कि वे इस भूमिका को सुंदरता से निभा सकेंगी।


विवाह—सादगी में सौंदर्य, मर्यादा में महिमा

जयपुर के ताज आमेर होटल में संपन्न यह शादी बाहरी शोर-शराबे से दूर रही।
होटल को वैदिक और आध्यात्मिक थीम पर सजाया गया—
सादा फूल, सौम्य रोशनी और शांति से भरा वातावरण।

बारात में धार्मिक ध्वज, “राधे-राधे” के जयकारे, चांदी की छड़ी और चेहरे पर सौम्य मुस्कान लिए इंद्रेश महाराज—एक ऐसा दृश्य जिसने हर किसी को प्रभावित किया।

फेरे दिन के उजाले में, वैदिक मंत्रों के साथ, बिना किसी दिखावे के लिए गए।
शिप्रा का सरल, गरिमामय रूप इस विवाह को और भी पावन बना रहा।


अतिथियों की उपस्थिति और समाज की प्रतिक्रिया

संत समाज के कई प्रमुख संत वहाँ उपस्थित थे—
धीरेंद्र शास्त्री, अनिरुद्धाचार्य, देवकीनंदन ठाकुर, पुंडरीक गोस्वामी, राजेंद्र दास महाराज।
कथावाचिका जया किशोरी भी विवाह का हिस्सा बनीं।

संगीत में भी भक्ति का रस घुला—विपराग के सुरों ने वातावरण को दिव्य बना दिया।
सबसे भावुक क्षण तब आया जब स्वयं इंद्रेश महाराज ने भजन गाया।

सोशल मीडिया पर तस्वीरें आते ही प्रतिक्रियाएँ उमड़ पड़ीं—
युवाओं ने इसे प्रेरक बताया,
बुजुर्गों ने मर्यादा भरा विवाह कहा,
और माता-पिता ने इसे आदर्श बताया।

कुछ लोगों ने खर्च को लेकर प्रश्न किए, पर जल्द ही स्पष्ट हो गया—
यह विवाह सुविधा से हुआ था, दिखावे से नहीं।


गृहस्थ जीवन—सनातन का सबसे मजबूत स्तंभ

इस विवाह ने थोड़े से समय में एक बड़ा संदेश दे दिया—
सनातन में ब्रह्मचर्य भी मार्ग है और गृहस्थ जीवन भी।
दोनों का सम्मान है और दोनों का उद्देश्य एक ही—धर्म, कर्तव्य और मर्यादा।

पंडित प्रदीप मिश्रा, मोरारी बापू, अनिरुद्धाचार्य महाराज, देवकीनंदन ठाकुर—अनेकों कथावाचक गृहस्थ जीवन जीते हुए भक्ति का दीप जलाए हुए हैं।

यह विवाह उसी परंपरा का सुंदर उदाहरण है।


समाज में नई सोच का उदय

इंद्रेश महाराज की शादी ने समाज को सोचने पर मजबूर किया—
कभी हम अध्यात्म को गलत नज़र से तो नहीं देखते?

बहुतों ने महसूस किया कि भक्ति का अर्थ संसार से भागना नहीं है,
बल्कि जीवन को संतुलन से जीना है।

यह शादी दो छोरों के बीच—
एक तरफ अत्यधिक दिखावा, दूसरी ओर कठोर त्याग—
एक मध्यम, संतुलित और सुंदर मार्ग प्रस्तुत करती है।


निष्कर्ष—एक विवाह जो संदेश बन गया

इंद्रेश महाराज और शिप्रा शर्मा का विवाह केवल एक आयोजन नहीं था,
यह विचारों को दिशा देने वाला एक संदेश,
समाज को चिंतन करने पर मजबूर करने वाला मॉडल,
और भक्ति तथा गृहस्थ धर्म के संतुलन का उदाहरण बन गया।

यह विवाह हमें याद दिलाता है—
भक्ति शब्दों से नहीं, जीवन के निर्णयों से पहचानी जाती है।

भविष्य में जब भी गृहस्थ आश्रम और भक्ति के सामंजस्य की बात होगी,
तो इंद्रेश महाराज की इस शादी को अवश्य याद किया जाएगा।

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धर्म और भक्ति के .मंच पर शांत स्वर में कथा कहने वाले इंद्रेश महाराज की शादी पिछले दिनों न केवल उनके अनुयायियों के लिए. बल्कि पूरे समाज के लिए चर्चा का विषय बन गई। एक ऐसा कथावाचक, जिसकी पहचान अध्यात्म, सादगी और संतुलन रही, अचानक विवाह के बंधन में बंध गया। सोशल मीडिया से लेकर सार्वजनिक मंच तक, हर जगह यह सवाल उठने लगा—क्या एक कथावाचक का शादी करना उचित है? क्या भक्ति और गृहस्थ जीवन साथ-साथ चल सकते हैं? क्या यह फैसला सच में अचानक था या इसके पीछे कोई गहरा विचार और जिम्मेदारी थी?

इस लेख में हम इंद्रेश महाराज. के जीवन, संस्कार, विवाह के निर्णय, समाज की सोच और सनातन परंपरा के संदर्भ में विवाह की भूमिका को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।

इंद्रेश उपाध्याय महाराज का जन्म उत्तर. प्रदेश की पावन भूमि वृंदावन में एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ। वृंदावन—जहां की मिट्टी में भक्ति रची-बसी है, जहां हर सुबह मंदिर की घंटियों से और हर शाम आरती .की लौ से रोशन होती है। उनके पिता श्री कृष्ण चंद्र शास्त्री ठाकुर स्वयं एक प्रसिद्ध भागवत कथावाचक रहे हैं। उनका जीवन शास्त्रों, सेवा और मंच के बीच बीता। ऐसे परिवेश में पले बच्चे के लिए धर्म कोई बोझ नहीं बल्कि सांस की तरह स्वाभाविक बन जाता है।

इंद्रेश महाराज ने बचपन से अपने पिता को कथा की तैयारी करते, लोगों के सामने विनम्रता से बात करते देखा। उन्होंने .यह सीखा कि ज्ञान ऊंची आवाज से नहीं, बल्कि सच्ची भावना से लोगों तक पहुंचता है। उनकी माता नर्मदा शर्मा .का स्वभाव भी बेहद शांत और संयमित रहा। संयुक्त परिवार में तीन बहनों के साथ पले इंद्रेश महाराज को रिश्तों की अहमियत बचपन से सिखाई गई। वहां यह नहीं सिखाया गया कि मैं कौन हूं, बल्कि यह सिखाया गया कि हमें कैसे रहना चाहिए।

इंद्रेश महाराज का मन. बचपन से ही कथा और श्लोकों में लगता चला गया। बहुत कम उम्र में उन्होंने भगवत गीता के श्लोक याद क.रना शुरू कर दिए थे और करीब 13 साल की उम्र तक पूरी गीता कंठस्थ कर ली थी। यह सिर्फ याद करना नहीं, बल्कि जीना और समझना था। उनकी स्कूली शिक्षा कान्हा माखन पब्लिक स्कूल, वृंदावन से हुई, लेकिन असली शिक्षा उन्हें घर के माहौल से मिली।

जब उनके पिता कथा के लिए बाहर जाते थे, इंद्रेश महाराज भी साथ जाते थे। वे मंच के पीछे बैठकर श्रोताओं के चेहरे, .भाव और संवाद की कला सीखते थे। उन्होंने समझा कि एक कथावाचक सिर्फ शास्त्र नहीं सुनाता, बल्कि लोगों के दिल से संवाद करता है।

साल 2015 में गुजरात के द्वारका में उन्होंने पहली बार भागवत कथा सुनाई। मंच पर उनका आत्मविश्वास, भाषा की सहजता और शास्त्रों पर पकड़ देखकर लोगों को विश्वास नहीं हुआ कि यह उनकी पहली कथा है.। यहीं से उनकी पहचान बनने लगी और कथा के आमंत्रण बढ़ने लगे। सोशल मीडिया ने उनकी आवाज को देश-विदेश तक पहुंचा दिया। Instagram और YouTube पर उनके वीडियो वायरल होने लगे। युवा वर्ग, जो आमतौर पर कथा और प्रवचन से दूरी बनाए रखता था, वह भी उनसे जुड़ने लगा क्योंकि इंद्रेश महाराज धर्म को डर से नहीं, जीवन से जोड़कर समझाते थे। कठिन बातों को भी आसान भाषा में कहते थे, यही उन्हें बाकी कथावाचकों से अलग बनाता है।

इतनी प्रसिद्धि के बाव.जूद उनका निजी जीवन दिखावे से दूर रहा। ना विवाद, ना सनसनी। यही वजह रही कि जब अचानक उनकी शादी की खबर सामने आई, तो लोग चौंक गए।

इंद्रेश महाराज की शादी को लेकर कई तरह की चर्चाएँ शुरू हो गईं। कुछ लोगों ने सवाल उठाया कि क्या एक कथावाचक को शादी करनी चाहिए? कुछ ने समर्थन किया कि गृहस्थ जीवन भी सनातन परंपरा का हि.स्सा है। सोशल मीडिया पर बहस तेज हो गई। लेकिन इंद्रेश महाराज ने किसी को जवाब नहीं दिया। उन्होंने अपनी चुप्पी से यह दिखाया कि हर सवाल का जवाब शब्दों से नहीं दिया जाता।

दरअसल, यह फैसला अ.चानक नहीं था, बल्कि लंबे समय से पनप रही जिम्मेदारी, विचार और संतुलन का परिणाम था। इंद्रेश महाराज हमेशा संतुलन और जिम्मेदारी की बात करते रहे हैं। विवाह उनके जीवन में इसी संतुलन का अगला कदम बना।

लोग जानना चाहते थे कि आखिर वह लड़की कौन है, जिससे इंद्रेश महाराज का रिश्ता जुड़ने वाला है। शिप्रा शर्मा, मूल रूप से हरियाणा के यमुनानगर क्षेत्र से ताल्लुक रखती हैं, बाद में उनका परिवार पंजाब के अमृत.सर में बस गया। ब्राह्मण पृष्ठभूमि, जहां संस्कार, अनुशासन और मर्यादा को अहमियत दी जाती है। उनके पिता हरेंद्र शर्मा पुलिस विभाग में डीएसपी के पद पर रह चुके हैं। ऐसे घरों में बच्चों का पालन-पोषण सख्त लेकिन सुसंस्कृत वातावरण में होता है। शिप्रा का स्वभाव शुरू से ही संतुलित और संयमित रहा।

शिप्रा शर्मा का झुकाव भी बचपन से अध्यात्म की ओर रहा। वह दिखावे वाली धार्मिकता में विश्वास नहीं रखती थीं, बल्कि भीतर से जुड़ाव रखने वाली सोच रखती थीं। सोशल मीडिया पर उनके भक्ति से जुड़े वीडियो वायर.ल हुए हैं, लेकिन उन्होंने कभी खुद को लाइमलाइट में नहीं रखा। उनका डिजिटल जुड़ाव भी भक्ति के माध्यम से लोगों से जुड़ने की कोशिश के रूप में देखा जाता है।

दोनों परिवार एक-दूसरे को पहले से जानते थे। शिप्रा का परिवार धार्मिक आयोजनों से जुड़ा रहा है। जब इंद्रेश महाराज वृं.दावन या आसपास के क्षेत्रों में कथा करते थे, शिप्रा अपने परिवार के साथ वहां जाती थीं। वहीं पहली बार उन्होंने इंद्रेश महाराज को मंच पर देखा और उनके बोलने के तरीके, भाषा और सोच से प्रभावित हुईं। यहां कोई अचानक आकर्षण नहीं था, बल्कि धीरे-धीरे बना सम्मान था।

इस भरोसे के बाद दोनों परिवारों के बीच बातचीत शुरू हुई और बिना किसी जल्दबाजी के सोच-समझकर रिश्ते को आ.गे बढ़ाया गया। दोनों तरफ से यह समझ साफ थी कि इंद्रेश महाराज का जीवन सामान्य नहीं है, वह हमेशा सार्वजनिक निगाहों में रहेगा। ऐसे जीवन में जीवन साथी का संतुलित और मजबूत होना बेहद जरूरी है। शिप्रा के स्वभाव और परवरिश को देखते हुए दोनों परिवारों को यह भरोसा हुआ कि वह इस जिम्मेदारी को निभा पाएंगी।

धीरे-धीरे बात शादी तक पहुंची और तय किया गया कि यह विवाह पूरी मर्यादा और सादगी से किया जाएगा। इंद्रेश म.हाराज ने खुद भी कभी यह नहीं चाहा कि उनकी शादी किसी प्रदर्शन या विवाद का हिस्सा बने।

जयपुर के ताज आमेर होटल में हुई यह शादी बाकी शादियों से बिल्कुल अलग थी। यहां किसी तरह का दिखावा, शोर .या जल्दबाजी नहीं थी। होटल को वैदिक और आध्यात्मिक थीम पर सजाया गया था। फूलों की सादा सजावट, सौम्य रंग, संतुलित रोशनी—यह सब मिलकर एक अलग ही अनुभूति दे रहा था।

बारात में धार्मिक ध्वज, रा.धे-राधे के जयकारे, शेरवानी में सजे इंद्रेश महाराज, हाथ में चांदी की छड़ी, चेहरे पर सादगी की मुस्कान। बारात का स्वागत भी सीमित और संस्कारों के अनुसार किया गया। आरती उतारी गई, फूल बरसाए गए, लेकिन कोई दिखावा नहीं था।

फेरे दिन के उजाले में वैदि.क मंत्रों के साथ हुए। अग्नि के सामने सात वचन लिए गए, हर मंत्र पूरी गंभीरता और भाव के साथ। शिप्रा शर्मा विवाह के समय साधारण लेकिन गरिमामय रूप में नजर आईं।

इस विवाह में संत समाज की उपस्थिति विशेष रही। बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री, अनिरुद्धाचार्य महाराज, देवकीनंदन ठाकुर, पुंडरीक गोस्वामी, राजेंद्र दास महाराज जैसे कई संत पहुंचे। सभी ने कहा कि यह विवाह गृहस्थ आश्रम की गरिमा को फिर से स्थापित करता है। कथावाचिका जया किशोरी भी इस आयो.जन में शामिल हुईं। मेहंदी और संगीत जैसे कार्यक्रमों में भी भक्ति भाव था। मशहूर भजन गायक विपराग ने अपने सुरों से माहौल को भक्ति रस में डुबो दिया। सबसे भावुक पल तब आया जब खुद इंद्रेश महाराज ने भजन गाया।

शादी के बाद जैसे ही तस्वीरें और वीडियो सोशल मीडिया पर आए, प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई। युवा वर्ग ने इसे प्रेरणा.दायक बताया, माता-पिता ने लिखा कि काश ऐसी सोच उनके बच्चों में भी हो, बुजुर्गों ने कहा कि बरसों बाद ऐसी शादी देखी। कुछ लोगों ने खर्च को लेकर सवाल उठाए, लेकिन साफ हो गया कि यह मामला खर्च का नहीं, नियत का था। पैसा व्यवस्था के लिए खर्च हुआ, दिखावे के लिए नहीं।

सनातन परंपरा और गृहस्थ जीवन का महत्व

इंद्रेश महाराज की शादी ने बिना एक शब्द बोले साधु और गृहस्थ जीवन की बहस का जवाब दे दिया। उन्होंने दिखाया कि. त्याग का मतलब जिम्मेदारी से भागना नहीं, बल्कि जिम्मेदारी को पूरी चेतना के साथ निभाना है। शिप्रा शर्मा का सादापन और संयम उदाहरण बनकर आया।

सनातन परंपरा में चार आश्रम बताए गए हैं, जिनमें गृहस्थ आश्रम सबसे अहम है। वही आश्रम समाज को संभालता है, सेवा देता है और संतुलन बनाए रखता है। देवकीनंदन ठाकुर महाराज, पंडित प्रदीप मिश्रा., अनिरुद्धाचार्य महाराज, मोरारी बापू जैसे कई कथावाचक शादीशुदा हैं और परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए भक्ति का प्रचार कर रहे हैं। प्रेमानंद जी महाराज ने ब्रह्मचर्य और सन्यास जीवन चुना, लेकिन सनातन धर्म में दोनों रास्तों को स्वीकार किया गया है।

समाज में बदलाव और संदेश

इंद्रेश महाराज की शादी के बाद सबसे बड़ा बदलाव लोगों की सोच में देखने को मिला। पहली बार बड़ी संख्या में लोगों ने. खुलकर कहना शुरू किया कि शायद हम अध्यात्म को अब तक गलत नजर से देख रहे थे। अब तक बहुत से लोगों के मन में यह था कि भगवान के रास्ते पर चलने के लिए सब कुछ छोड़ना जरूरी है। लेकिन इस शादी ने इस सोच को बिना किसी भाषण या बहस के चुनौती दे दी।

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आई, लेकिन यह बाढ़ गाली-गलौज वाली नहीं, सवाल पूछने वाली थी। लोगों ने लिखा कि अगर एक कथावाचक गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है और उसकी भक्ति कम न.हीं होती, तो शायद हम ही भक्ति को गलत समझ रहे थे। माता-पिता वर्ग ने इसे सकारात्मक नजर से देखा, युवाओं के लिए मिसाल बताया। बुजुर्गों ने कहा कि यह शादी उन्हें पुराने समय की याद दिला गई, जब संत समाज से कटे नहीं रहते थे।

निष्कर्ष

इंद्रेश महाराज और शिप्रा शर्मा की यह शादी सिर्फ एक खबर नहीं, बल्कि एक सोच, एक संदेश और एक उदाहरण है। यह शादी दिखाती है कि अगर मन साफ हो, सोच साफ हो और मूल्य साफ हो, तो रिश्ते अपने .आप सुंदर बन जाते हैं। इस शादी ने समाज के सामने यह उदाहरण रख दिया कि भक्ति दिखावे से नहीं, जीवन के फैसलों से पहचानी जाती है। आज जब समाज दो छोर पर खड़ा नजर आता है—एक तरफ दिखावा, दूसरी तरफ कठोर त्याग—तब यह शादी संतुलित रास्ता दिखाकर चली गई।