ईमान का दीपक
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चंडीगढ़ की चमक-दमक और आधुनिकता के बीच, एक छोटी सी गली में एक साधारण परिवार रहता था। उस परिवार की बेटी, प्रिया, उम्र में मात्र 20 वर्ष की थी, लेकिन उसके दिल में इंसानियत और सेवा का इतना बड़ा समंदर था कि वह अपने छोटे से संसार को भी उजाले से भरना चाहती थी।
प्रिया के पिता, रामकृष्ण, एक साधारण सरकारी कर्मचारी थे। माँ, सुमित्रा, घर संभालती थी। परिवार के पास ज्यादा संसाधन नहीं थे, लेकिन वे हमेशा दूसरों की मदद करने को तत्पर रहते। प्रिया बचपन से ही अपने माता-पिता से यही सीख पाई थी कि सेवा का मतलब केवल बड़े-बड़े दान देना नहीं, बल्कि छोटी-छोटी मददों से भी दुनिया को बेहतर बनाना संभव है।
संघर्ष की शुरुआत
प्रिया ने अपनी पढ़ाई पूरी करके एक होटल में वेटर की नौकरी कर ली। यह नौकरी उसके लिए सिर्फ कमाई का जरिया नहीं, बल्कि लोगों के प्रति सेवा का माध्यम भी थी। होटल की चमक-दमक में काम करते हुए वह अक्सर उन लोगों को देखती जो खाने के कुछ हिस्से छोड़ देते थे। वह जानती थी कि ये छोड़ा हुआ खाना किसी गरीब के लिए भगवान का दिया हुआ वरदान हो सकता है।
प्रिया ने एक दिन फैसला किया कि वह इस छोड़े हुए खाने को बेकार नहीं जाने देगी। वह रात को जब होटल बंद होता, तब वह बचा हुआ खाना लेकर उन गरीब और बेसहारा लोगों तक पहुंचाती जो शहर के निचले हिस्सों में रहते थे। वह जानती थी कि यह काम आसान नहीं, लेकिन उसकी निष्ठा और सेवा भावना उसे आगे बढ़ने का हौसला देती थी।
एक अनजाने दोस्त की नजर
चंडीगढ़ के एक बड़े उद्योगपति, सरदार मनजीत सिंह रंधावा, जो अपनी ईमानदारी और समाज सेवा के लिए जाने जाते थे, वह भी उसी होटल में अक्सर आते थे। उन्होंने एक दिन प्रिया को देखा जो खाना बचे हुए लेकर बाहर निकल रही थी। उनकी जिज्ञासा जागी और उन्होंने उसके पीछे जाकर देखा कि वह खाना गरीबों में बांट रही है।
सरदार जी ने पहली बार सेवा का ऐसा रूप देखा जो बिना किसी दिखावे, बिना किसी नाम के, सच्चे दिल से किया जा रहा था। उन्होंने महसूस किया कि उनकी बड़ी-बड़ी दान-धर्म की रस्में और कार्यक्रम कहीं न कहीं सिर्फ औपचारिकता बन गए हैं, जबकि प्रिया की खामोश सेवा में वह असली इंसानियत थी।
सेवा का नया अध्याय
सरदार मनजीत सिंह ने प्रिया से संपर्क किया और उसे एक बड़ा मौका दिया। उन्होंने अपने चैरिटेबल ट्रस्ट “सरबत दा भला” की जिम्मेदारी प्रिया को सौंपी। यह ट्रस्ट पंजाब में गरीबों के लिए लंगर और मुफ्त रसोई चलाता था। प्रिया को अब करोड़ों रुपये का बजट मिला और हजारों लोगों की टीम का नेतृत्व करने का मौका।
प्रिया ने इस जिम्मेदारी को पूरी लगन से स्वीकार किया। उसने अपने छोटे-से अनुभव और गहरी सेवा भावना के साथ इस ट्रस्ट को नई ऊँचाइयों तक पहुंचाया। उसने सिर्फ खाना ही नहीं, बल्कि गरीबों के दिलों तक पहुंचने की कोशिश की।
परिवार और समाज का साथ
प्रिया के माता-पिता उसके इस नए कार्य से गर्व महसूस करते थे। मोहल्ले के लोग भी उसकी तारीफ करते थे। लेकिन हर सफलता के पीछे चुनौतियाँ भी होती हैं। प्रिया को कई बार समाज के कुछ लोग नकारात्मक टिप्पणियाँ करते, कहते कि वह अमीरों की मदद से ही आगे बढ़ रही है।
परंतु प्रिया ने कभी हार नहीं मानी। उसने अपने काम में ईमानदारी और मेहनत से आगे बढ़ना जारी रखा। उसके लिए सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था।
प्रेरणा का स्रोत
प्रिया की कहानी ने पूरे शहर में एक नई जागरूकता पैदा की। लोग समझने लगे कि सेवा का मतलब दिखावा नहीं, बल्कि दिल से देना होता है। कई युवाओं ने प्रिया से प्रेरणा लेकर अपने-अपने क्षेत्रों में सेवा कार्य शुरू किए।
सरदार मनजीत सिंह ने भी प्रिया के काम को देखकर महसूस किया कि असली सेवा तो ऐसे लोगों से ही होती है जो बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी नाम के, केवल इंसानियत के लिए काम करते हैं।
अंतिम संदेश
यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, जब तक उसमें दिल और निष्ठा होती है। नेकी का दिया चाहे कितना भी छोटा हो, अगर वह सच्चाई से जलता है तो वह अंधेरे को रोशन कर सकता है।
प्रिया की तरह हम सब भी अपने आस-पास के लोगों की मदद कर सकते हैं। सेवा का असली मतलब है बिना किसी अपेक्षा के दूसरों की भलाई करना। और जब हम ऐसा करते हैं, तो जीवन में एक अनोखा सुकून और खुशी मिलती है जिसे कोई दौलत नहीं खरीद सकती।
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