उसने एक दोस्त से पैसे उधार लिए और शहर चला गया। दस साल बाद, वह गांव वापस लौटा…
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दोस्ती का वो अनमोल वादा
यह कहानी है रवि की। एक ऐसे नौजवान की, जिसकी आंखों में आसमान छूने के सपने थे, पर जिसकी जेब में एक रुपया भी नहीं था। यह कहानी है शंकर की, एक ऐसे दोस्त की जिसने अपनी दोस्ती निभाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। और यह कहानी है उस एक वादे की, जिसने रवि को उसके गांव की धूल भरी गलियों से निकालकर मुंबई के आलीशान पेंट हाउस तक पहुंचाया।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में घाघरा नदी के किनारे बसा था रामपुर नाम का एक छोटा सा पिछड़ा हुआ गांव। यह गांव जैसे समय के चक्कर में कहीं पीछे छूट गया था। कच्ची सड़कें, जो बारिश में कीचड़ का दरिया बन जाती थीं। फूस की झोपड़ियां और खेतों में दिन-रात खड़ते हुए किसान, यही रामपुर की पहचान थी। यहां के लोगों के सपने भी उनकी फसलों की तरह मौसम और तकदीर के भरोसे थे।
इसी गांव में रहता था रवि। कोई बीस साल का दुबला-पतला सा लड़का, पर आंखों में एक अजीब सी आग और कुछ कर गुजरने का जुनून लिए हुए। उसके पिता राम भरोसे एक छोटे से किसान थे, जिनके पास बस दो बीघा जमीन थी। उस छोटी सी जमीन पर पूरे परिवार का पेट पालना किसी पहाड़ को खोदकर पानी निकालने जैसा था। रवि की मां, शारदा, दिनभर घर के काम और खेतों में पति का हाथ बढ़ाने में लगी रहती थी।
रवि पढ़ाई में बहुत होशियार था। उसने 12वीं कक्षा गांव के ही स्कूल से प्रथम श्रेणी में पास की थी। वह आगे पढ़ना चाहता था, एक बड़ा आदमी बनना चाहता था। लेकिन उसे पता था कि उसके परिवार के पास उसे शहर भेजने के लिए पैसे नहीं हैं। वह अपने पिता को खेतों में खून-पसीना बहाते देखता, अपनी मां को दूसरों के घरों से फटे पुराने कपड़े मांगकर लाते देखता तो उसका दिल कट कर रह जाता।
रवि का एक ही दोस्त था—उसका लंगोटिया यार, शंकर। शंकर रवि से बिल्कुल अलग था। वह पढ़ाई-लिखाई में कमजोर था और बड़े-बड़े सपने देखने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता था। वह अपने पिता के साथ उनकी छोटी सी परचून की दुकान पर बैठता था। वह अपनी छोटी सी दुनिया में खुश था, पर दोस्ती के मामले में उसका दिल किसी राजा से भी बड़ा था।
रवि और शंकर की दोस्ती पूरे गांव में एक मिसाल थी। वे एक ही थाली में खाते, एक साथ घूमते और एक-दूसरे पर पूरा भरोसा रखते थे।
पिछले कुछ महीनों से रवि के पिता की तबीयत खराब रहने लगी थी। सूखी खांसी और कमजोरी ने उन्हें चारपाई पर ला दिया था। गांव के वैध ने कहा था कि उन्हें शहर के बड़े अस्पताल में दिखाने की जरूरत है। लेकिन शहर जाने और इलाज के पैसे कहां से आते?
रवि अपने पिता को अपनी आंखों के सामने तिल-तिल कर मरते हुए नहीं देख सकता था। उसने फैसला किया कि वह शहर जाएगा—मुंबई। उसने सुना था कि मुंबई सपनों का शहर है, जहां मेहनत करने वालों की किस्मत जरूर चमकती है।
एक शाम उसने डरते-डरते अपने पिता से कहा, “बाबूजी, मैं मुंबई जाना चाहता हूं। वहां कोई काम करूंगा, पैसे कमाऊंगा और आपका इलाज करवाऊंगा।”
राम भरोसे की आंखों में आंसू आ गए। “बेटा, वो बहुत बड़ा शहर है। वहां हमारा कोई नहीं है। तू कहां रहेगा, क्या खाएगा?”
पर रवि ने ठान लिया था। अब सवाल सिर्फ उसके सपनों का नहीं, बल्कि उसके पिता की जिंदगी का था।
सबसे बड़ी समस्या थी पैसा। मुंबई जाने के लिए और वहां कुछ दिन टिकने के लिए उसे कम से कम ₹1000 की जरूरत थी। उसने गांव के सबसे अमीर आदमी, जमींदार ठाकुर हरबन सिंह से मदद मांगने की सोची। ठाकुर एक बेहद घमंडी और क्रूर इंसान था। पूरा गांव उससे डरता था।
रवि हिम्मत करके उसकी हवेली पर पहुंचा। ठाकुर अपने मुनीम के साथ बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था।
“ठाकुर साहब, मुझे कुछ पैसों की जरूरत है। मेरे बाबूजी बीमार हैं। मैं शहर जाकर काम करना चाहता हूं,” रवि ने हाथ जोड़कर कहा।
ठाकुर हंसा। उसकी हंसी में एक गहरा व्यंग था। “अरे राम भरोसे का बेटा है तू। तेरे बाप ने तो जिंदगी में कभी दो बीघा जमीन से ज्यादा कुछ नहीं कमाया और तू चला है मुंबई कमाने। जा, अपने बाप की तरह खेतों में मजदूरी कर। यही तेरी औकात है।”
उस दिन रवि को अपनी गरीबी पर इतनी बेबसी कभी महसूस नहीं हुई थी। वह निराश होकर वहां से लौट आया। उसने और भी कई लोगों से मदद मांगी, पर हर किसी ने मुंह फेर लिया।
उस रात वह शंकर की दुकान पर उदास बैठा था। शंकर ने उसकी हालत देखी और पूछा, “क्या बात है रवि? इतना परेशान क्यों है?”
रवि ने उसे सब कुछ बता दिया।
शंकर कुछ देर चुप रहा। फिर वह उठा और दुकान के अंदर गया। कुछ देर बाद जब वह लौटा, तो उसके हाथ में ₹5,000 थे। यह रुपए उसने अपनी दुकान के गल्ले और अपनी पत्नी के दिए हुए घर खर्च के पैसों से निकाले थे।
“यह रख ले, रवि,” शंकर ने कहा।
“नहीं शंकर, मैं यह नहीं ले सकता। यह तेरी दुकान की पूंजी है,” रवि ने मना किया।
“अगर तूने मना किया तो हमारी दोस्ती की कसम है तुझे। यह सिर्फ ₹5000 नहीं है। यह मेरी दोस्ती का भरोसा है जो मैं तुझ पर लगा रहा हूं। जा और अपनी किस्मत बदल दे,” शंकर की आवाज में एक अधिकार था।
रवि की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने अपने दोस्त को गले लगा लिया। “मैं तेरा यह कर्ज कभी नहीं भूलूंगा। शंकर, वादा रहा, जिस दिन मैं कुछ बन गया, सबसे पहले तेरा यह कर्ज चुकाने आऊंगा।”
पर शंकर को अभी भी लग रहा था कि यह पैसे कम हैं। वह घर गया। उसकी पत्नी गीता रसोई में काम कर रही थी। शंकर ने उससे कहा, “गीता, मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।”
गीता एक सीधी-साधी और पतिव्रता औरत थी।
“कहिए क्या बात है?” उसने पूछा।
शंकर ने उसे रवि की मजबूरी के बारे में बताया। फिर उसने हिचकिचाते हुए कहा, “क्या तुम अपनी मां के दिए हुए सोने के झुमके मुझे दे सकती हो? मैं उन्हें गिरवी रखकर रवि के लिए कुछ और पैसों का इंतजाम कर लूंगा।”
गीता एक पल के लिए सन गई। वह झुमके उसकी मां की आखिरी निशानी थे। उसकी आंखों में आंसू आ गए। पर फिर उसने अपने पति के चेहरे पर अपने दोस्त के लिए चिंता और प्यार देखा। उसने अपने आंसू पोंछे, झुमके उतारे और अपने पति के हाथ में रख दिए।
“ले जाइए। एक दोस्त की जिंदगी से बढ़कर ये सोने के टुकड़े नहीं हैं।”
शंकर उन झुमकों को लेकर गांव के सुनार के पास गया और उन्हें गिरवी रखकर ₹5,000 और ले आया। उस रात उसने कुल ₹10,000 रवि के हाथ में रखे। रवि के पास शब्द नहीं थे। उसने अपने दोस्त के पैर छूने की कोशिश की, पर शंकर ने उसे रोक लिया।
अगली सुबह जब रवि गांव से मुंबई के लिए निकल रहा था, तो सिर्फ शंकर ही उसे छोड़ने आया था। गांव के बाकी लोग हंसकर ठाकुर हरबन सिंह दूर खड़े होकर उस पर हंस रहे थे।
“देख लो, चला है बंबई का बाबू बनने। कुछ ही महीनों में भीख मांगता हुआ वापस आएगा।”
रवि ने उन सबको नजरअंदाज किया। उसने अपने दोस्त को एक आखिरी बार गले लगाया और बस में बैठ गया। उसकी आंखों में आंसू थे, पर दिल में एक आग थी। एक ऐसा वादा था जिसे उसे हर हाल में निभाना था।
मुंबई सपनों का शहर था, पर इन सपनों की कीमत चुकाने के लिए रवि जैसे हजारों लोग हर रोज यहां आते थे और भीड़ में खो जाते थे। जब रवि ने दादर स्टेशन पर कदम रखा, तो उसे लगा जैसे वह किसी दूसरे ग्रह पर आ गया है। ऊंची-ऊंची इमारतें, गाड़ियों का शोर और लाखों लोगों की भीड़—उसके गांव का शांत सरल माहौल यहां कहीं नहीं था। यहां हर कोई भाग रहा था, अपनी दौड़ में था।
रवि के पास जो ₹10,000 थे, वे उसे अपने गांव में बहुत बड़ी रकम लगते थे। पर यहां आकर उसे एहसास हुआ कि यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। पहले ही दिन एक आदमी ने उसे एक अच्छी और सस्ती चोल में कमरा दिलाने के बहाने ₹2,000 ठग लिए और गायब हो गया। रवि को अपनी बेवकूफी पर बहुत गुस्सा आया। अब उसके पास सिर्फ ₹8,000 बचे थे। उसने फैसला किया कि अब वह किसी पर भरोसा नहीं करेगा।
कई दिनों की भटकन के बाद उसे धारावी की एक झुग्गी बस्ती में एक छोटी सी अंधेरी खोली किराए पर मिली। खोली इतनी छोटी थी कि उसमें ठीक से खड़ा भी नहीं हुआ जा सकता था। वहीं उसका घर था, वहीं उसकी रसोई थी।
अब शुरू हुआ असली संघर्ष। रवि ने हर तरह का काम किया। उसने एक कंस्ट्रक्शन साइट पर मजदूरी की, दिनभर ईंट और सीमेंट ढोता रहा। एक होटल में बर्तन मांझे, रात भर जूठी प्लेटों के ढेर से जूझता। उसने सड़कों पर अखबार बेचे, गाड़ियों के शीशे साफ किए। कई-कई दिन उसे सिर्फ पानी पीकर या किसी गुरुद्वारे के लंगर में खाकर गुजारने पड़ते।
वो शारीरिक रूप से टूट रहा था, पर उसका हौसला अभी भी जिंदा था। हर रात जब अपनी उस छोटी सी खोली में लौटता, तो शंकर का चेहरा उसकी आंखों के सामने आ जाता। वह वादा जो उसने अपने दोस्त से किया था, उसे सोने नहीं देता था।
इसी बीच उसे खबर मिली कि उसके पिता राम भरोसे चल बसे। यह खबर उस पर बिजली बनकर गिरी। वह आखिरी बार अपने पिता का चेहरा भी नहीं देख पाया। वह घंटों रोता रहा। उसे लगा कि वह हार गया है। पर फिर उसे याद आया कि उसके पिता का सपना था कि वह एक बड़ा आदमी बने। उसने अपने आंसुओं को अपनी ताकत बनाया। अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था और पाने के लिए पूरी दुनिया थी।
एक दिन जब वह एक सेठ के बंगले पर अखबार देने गया, तो उसने देखा कि सेठ अपने बगीचे के पौधों को लेकर बहुत परेशान है। पौधे सूख रहे थे। रवि, जो एक किसान का बेटा था, को पौधों की अच्छी समझ थी। उसने हिम्मत करके सेठ से कहा, “साहब, अगर आप इजाजत दें तो मैं इन पौधों को ठीक कर सकता हूं।”
सेठ ने उसे अविश्वास से देखा। पर शायद उसकी आंखों में उन्हें कोई सच्चाई नजर आई।
“ठीक है, करके दिखाओ।”
रवि ने अगले कुछ दिनों तक उन पौधों पर बहुत मेहनत की। उसने मिट्टी बदली, सही खाद डाली और कुछ ही हफ्तों में वह सूखा हुआ बगीचा फिर से हराभरा हो गया।
सेठ, जो एक बड़ा बिजनेसमैन था, रवि की लगन और ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुआ। उसने रवि को अपने ऑफिस में एक चपरासी की नौकरी दे दी। यह रवि की जिंदगी का पहला मोड़ था। अब उसे मजदूरी नहीं करनी पड़ती थी। उसे एक निश्चित तनख्वाह मिलने लगी।
ऑफिस में काम करते हुए उसने कंप्यूटर चलाना सीखा, अंग्रेजी बोलना सीखा। वह हर काम को इतनी लगन से करता कि जल्दी ही वह ऑफिस के सारे कर्मचारियों का चहेता बन गया। ऑफिस के बाद वह रात में एक छोटी सी आईटी कंपनी में पार्ट-टाइम काम करने लगा। वहां उसने कोडिंग और सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट की बारीकियां सीखीं।
उसका दिमाग बहुत तेज था। उसने देखा कि छोटे दुकानदारों और व्यापारियों को अपना हिसाब-किताब रखने में बहुत दिक्कत होती थी। उनके लिए बड़े-बड़े सॉफ्टवेयर बहुत महंगे और मुश्किल होते थे। यहीं से उसके दिमाग में एक आइडिया आया—क्यों न एक सरल और सस्ता अकाउंटिंग सॉफ्टवेयर बनाया जाए जो छोटे व्यापारियों के लिए हो?
यह एक सपना था, जिसके लिए बहुत सारे पैसे और मेहनत की जरूरत थी। रवि ने अपनी तनख्वाह से पैसे बचाने शुरू किए। वह दिन में सेठ के ऑफिस में काम करता, रात में कोडिंग सीखता और जो थोड़ा बहुत वक्त बचता उसमें अपने सॉफ्टवेयर पर काम करता। उसने दो-तीन साल तक दिन में सिर्फ चार घंटे की नींद ली। आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई। उसने एक बेसिक सा सॉफ्टवेयर बना लिया।
उसने अपने सेठ को, जो अब उसे अपने बेटे की तरह मानने लगे थे, अपना आइडिया बताया। सेठ को उसका आइडिया बहुत पसंद आया। उन्होंने उसे कुछ पैसे दिए और अपना बिजनेस शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया।
रवि ने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपनी पूरी ताकत अपने सपने को पूरा करने में लगा दी। उसने अपनी उस छोटी सी खोली में ही एक पुराने कंप्यूटर पर अपनी कंपनी की शुरुआत की। कंपनी का नाम रखा ‘मित्रा सॉल्यूशंस’। यह नाम उसने अपने दोस्त शंकर को समर्पित किया था।
शुरुआत बहुत मुश्किल थी। कोई भी एक अनजान लड़के की कंपनी पर भरोसा करने को तैयार नहीं था। वह दिन भर दुकान-दुकान घूमता, अपने सॉफ्टवेयर के बारे में बताता। ज्यादातर लोग उसे भगा देते, पर वह हार नहीं मानता।
फिर एक दिन एक बड़े होलसेलर ने उसका सॉफ्टवेयर इस्तेमाल करने का फैसला किया। उसका सॉफ्टवेयर इतना सरल और असरदार था कि उस होलसेलर का काम बहुत आसान हो गया। उसने दूसरे व्यापारियों को भी उसके बारे में बताया और फिर एक से दो, दो से चार, चार से सौ—देखते ही देखते मित्रा सॉल्यूशंस का नाम मुंबई के बिजनेस सर्किल में फैलने लगा।
अगले पांच सालों में रवि ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसकी कंपनी आसमान की बुलंदियों को छू रही थी। जो कंपनी एक कमरे की खोली से शुरू हुई थी, आज उसका ऑफिस मुंबई के सबसे महंगे बिजनेस पार्क में था। उसके नीचे सैकड़ों कर्मचारी काम करते थे। वह अब एक करोड़पति बन चुका था। वह एक आलीशान पेंटहाउस में रहता था, महंगी गाड़ियों में घूमता था।
पर इस चकाचौंध के बीच भी वह अपने गांव, अपनी मिट्टी और अपने दोस्त शंकर को कभी नहीं भूला। दस साल पूरे हो चुके थे। रवि ने इन दस सालों में बहुत कुछ हासिल कर लिया था, पर उसके दिल में एक टीस हमेशा रहती थी—अपने दोस्त शंकर का कर्ज।
उसने कई बार गांव जाने की सोची, पर काम की व्यस्तता और पुरानी यादों के डर ने उसे हमेशा रोके रखा। पर अब उसने फैसला कर लिया था। अब वक्त आ गया था उस वादे को निभाने का।
एक सुबह रवि अपने प्राइवेट हेलीकॉप्टर से अपने गांव रामपुर के लिए रवाना हुआ। रामपुर में आज सुबह से ही एक अजीब सी हलचल थी। गांव के बाहर एक बड़े से खाली खेत में हेलीकॉप्टर उतरने वाला था। पूरा गांव यह तमाशा देखने के लिए जमा हो गया था। किसी को नहीं पता था कि कौन आ रहा है।
ठाकुर हरबन सिंह अपनी जीभ पर बैठाकर अपनी घमंड भरी आंखों से यह सब देख रहे थे। जब हेलीकॉप्टर उतरा और उसमें से सूट-बूट पहने, काला चश्मा लगाए एक नौजवान बाहर निकला तो कोई उसे पहचान नहीं पाया। पर जैसे ही उसने चश्मा उतारा, गांव के कुछ बूढ़े लोगों ने उसे पहचान लिया।
“अरे, यह तो राम भरोसे का बेटा रवि है!” पूरे गांव में जैसे एक करन दौड़ गया, जो रवि दस साल पहले फटे कपड़ों में रोता हुआ यहां से गया था। आज वह एक राजा की तरह वापस लौटा था।
लोग हैरान थे, अक्क थे। ठाकुर हरबन सिंह का मुंह खुला का खुला रह गया। रवि अपनी महंगी गाड़ी में बैठकर गांव की उन्हीं धूल भरी गलियों से गुजरा, जहां कभी वह नंगे पैर दौड़ा करता था। उसका काफिला सीधे गांव के बीचों-बीच शंकर की परचून की दुकान के सामने जाकर रुका।
पर वहां अब कोई दुकान नहीं थी। वहां एक टूटी-फूटी, लगभग ढह चुकी झोपड़ी थी। रवि गाड़ी से उतरा। उसने पास खड़े एक बूढ़े काका से पूछा, “काका, यहां शंकर की दुकान हुआ करती थी। वह कहां है?”
बूढ़े काका ने गहरी सांस ली। “बेटा, तुम चले गए? उसके बाद शंकर पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसकी दुकान में आग लग गई, सब कुछ जलकर राख हो गया। फिर सूखा पड़ा, तो उसके छोटे से खेत की फसल भी बर्बाद हो गई। उसने ठाकुर हरबन सिंह से कर्ज लिया, पर चुका नहीं पाया। ठाकुर ने उसकी बची-खुची जमीन भी हड़प ली। अब वह बेचारा यहीं इसी झोपड़ी में रहता है, मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालता है।”
यह सुनकर रवि का कलेजा फट गया। जिस दोस्त ने उसकी मदद के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था, आज वह इस हालत में था। रवि उस झोपड़ी की ओर बढ़ा। अंदर से एक औरत के खांसने और बच्चों के रोने की आवाज आ रही थी।
रवि ने कांपती हुई आवाज़ में कहा, “शंकर!”
अंदर से एक कमजोर, थका हुआ आदमी बाहर निकला। उसके कपड़े फटे हुए थे, दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वह अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बूढ़ा लग रहा था। उसने रवि को देखा, पर पहचान नहीं पाया।
“जी, आप कौन?”
रवि खुद को रोक नहीं पाया। वह दौड़कर अपने दोस्त के पैरों पर गिर पड़ा। “शंकर, मैं हूं तेरा दोस्त रवि।”
जब शंकर ने उसे पहचाना, तो उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। रवि कुछ बोल नहीं पाया, बस अपने दोस्त को उठाकर अपने सीने से लगा लिया। दोनों दोस्त दस साल बाद एक-दूसरे से लिपटकर बच्चों की तरह रो रहे थे।
यह दोस्ती के आंसुओं का, वादों के पूरे होने का और सालों के इंतजार के खत्म होने का पल था। उस दिन रवि ने अपने दोस्त से किया हुआ हर वादा निभाया और उससे भी कहीं ज्यादा दिया।
सबसे पहले उसने ठाकुर हरबन सिंह को बुलवाया। ठाकुर डरते-डरते आया। रवि ने उससे शंकर के कर्ज का हिसाब पूछा। ठाकुर ने ब्याज लगाकर एक बड़ी रकम बताई।
रवि ने बिना एक पल सोचे अपने असिस्टेंट को इशारा किया। असिस्टेंट ने एक ब्रीफकेस खोला, जिसमें नोटों की गड्डियां भरी हुई थीं। रवि ने ठाकुर के बताए हुए पैसों से दोगुनी रकम निकालकर उसके मुंह पर फेंक दी।
“यह लो, अपने पैसे। और जो शंकर की जमीन तुमने हड़पी है, उसके कागज अभी इसी वक्त शंकर के नाम करो। वरना मैं तुम्हें कानून के उस चक्कर में फंसाऊंगा कि तुम्हारी सातों पुश्तें याद रखेंगी।”
ठाकुर का घमंड एक पल में चूर-चूर हो गया। उसने चुपचाप जमीन के कागज शंकर के नाम कर दिए।
रवि ने गांव के सबसे अच्छे हिस्से में शंकर के लिए एक बड़ा सा पक्का और सुंदर घर बनवाने का काम शुरू करवा दिया। उसने शंकर की पत्नी गीता का शहर के सबसे बड़े डॉक्टर से इलाज करवाया। शंकर के दोनों बच्चों की पढ़ाई की पूरी जिम्मेदारी ली और उन्हें शहर के सबसे अच्छे बोर्डिंग स्कूल में भेजने का इंतजाम किया।
उसने शंकर के हाथ में अपनी कंपनी ‘मित्रा सॉल्यूशंस’ के 10% हिस्सेदारी के कागज रखे। “आज से तो सिर्फ मेरा दोस्त नहीं, मेरा बिजनेस पार्टनर भी है।”
शंकर रोते हुए बोला, “रवि, तूने यह क्या कर दिया? मैंने तो बस अपना फ़र्ज़ निभाया था।”
रवि ने उसे गले लगाकर कहा, “और आज मैं अपना कर्ज चुका रहा हूं, दोस्त।”
पर रवि यहीं नहीं रुका। उसने फैसला किया कि वह सिर्फ अपने दोस्त की ही नहीं, बल्कि अपने पूरे गांव की तकदीर बदलेगा।
उसने एक बड़ी पंचायत बुलाई और ऐलान किया कि वह अपने पिता स्वर्गीय श्री राम भरोसे के नाम पर गांव में एक बड़ा आधुनिक स्कूल बनवाएगा, जहां बच्चों को मुफ्त में अंग्रेजी और कंप्यूटर की शिक्षा मिलेगी।
उसने अपनी मां शारदा देवी के नाम पर एक छोटा सा अस्पताल खोलने की घोषणा की, जिसमें शहर के डॉक्टर आकर मुफ्त में इलाज करेंगे।
सबसे बड़ी बात, उसने ऐलान किया कि ‘मित्रा सॉल्यूशंस’ अपनी एक बड़ी ब्रांच रामपुर गांव में खोलेगी, एक बड़ा कॉल सेंटर और सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट यूनिट, जिसमें गांव के ही पढ़े-लिखे नौजवानों को नौकरी मिलेगी।
उसने गांव के किसानों के लिए कोल्ड स्टोरेज और फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने का वादा किया ताकि उनकी फसल बर्बाद न हो और उन्हें सही दाम मिल सके।
पूरा गांव, जो कल तक रवि पर हंस रहा था, आज उसकी जय-जयकार कर रहा था। लोगों की आंखों में अपने उस बेटे के लिए गर्व और सम्मान था।
एक साल बाद, रामपुर की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी थी। जहां कच्ची सड़कें थीं, वहां अब पक्की सड़कें थीं। जहां फूस की झोपड़ियां थीं, वहां अब पक्के मकान थे। गांव का हर बच्चा स्कूल जा रहा था। हर किसी के पास रोजगार था।
एक शाम रवि और शंकर उसी नदी के किनारे बैठे थे, जहां बचपन में खेला करते थे। शंकर ने कहा, “रवि, तूने तो इस गांव को स्वर्ग बना दिया।”
रवि मुस्कुराया, “नहीं शंकर, यह स्वर्ग मैंने नहीं, तुम्हारी दोस्ती ने बनाया है। अगर उस रात तूने मुझ पर भरोसा न किया होता, तो आज भी मैं मुंबई की किसी गली में भटक रहा होता। यह दौलत, यह शोहरत सब कुछ तुम्हारी दोस्ती का कर्ज है।”
यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची दोस्ती दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। और एक किया हुआ वादा अगर नेक नियत से निभाया जाए, तो वह न सिर्फ दो लोगों की बल्कि एक पूरे समाज की किस्मत बदल सकता है।
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