एक बूढ़ा मछुआरा, एक रहस्यमयी लड़की और एक अनोखी कहानी।

कोच्ची की एक सुनसान बस्ती के आखिरी कोने पर एक पुराना मिट्टी से बना कच्चा सा मकान था। वहाँ रामदास नाम का एक बूढ़ा मछुआरा रहता था, जिसकी उम्र सत्तर साल के पार हो चुकी थी। चेहरे की झुर्रियाँ, आँखों की थकान और हाथों की कमजोरी उसके जीवन की कठिनाइयों की गवाह थीं। हर सुबह वह अपनी टूटी हुई नाव लेकर नदी की ओर जाता, जाल डालता और जो थोड़ी बहुत मछलियाँ मिलतीं, उन्हें बेचकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम करता।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। शाम ढली तो रामदास थका-हारा वापस लौटा। दरवाजा खोलते ही उसके दिल को एक झटका सा लगा। उसके बिस्तर पर एक नाजुक सी, बिल्कुल अजनबी लड़की लेटी हुई थी। चेहरा चाँद जैसा उजला, आँखों में समंदर जैसी गहराई और उम्र मुश्किल से बीस साल। रामदास की आवाज गुस्से से काँप उठी, “तुम कौन हो? मेरे घर में क्या कर रही हो? यह मेरा बिस्तर है, तुम्हें कोई शर्म नहीं आती?” लड़की डरकर उठ बैठी। उसकी आँखों में एक खामोश सा डर और मासूमियत छिपी थी।

उसने धीमे स्वर में कहा, “अभी कुछ नहीं बता सकती। वक्त आने पर सब बता दूँगी। बस मुझे यहाँ रहने दीजिए।” रामदास को गुस्सा आया, “ना मैं तुम्हें जानता हूँ, ना तुम्हारा कोई रिश्ता है मुझसे। तुम जवान लड़की हो और मैं खुद सत्तर साल का बूढ़ा आदमी हूँ। यह सब नामुमकिन है, फौरन मेरे घर से निकल जाओ।” लड़की की आँखों से आँसू बह निकले। वह घुटनों के बल बैठकर उसके कदमों में गिर पड़ी, “जो कहोगे, वह करूँगी। बस एक छोटा सा कोना रहने को दे दो। मैं घर संभाल लूँगी, खाना बनाऊँगी, सफाई रखूँगी। बस एक मौका चाहिए।”

रामदास का दिल थोड़ा नरम हुआ, मगर फिर भी उसने कहा, “मैं खुद मुश्किल से जी रहा हूँ। तुम्हें क्या खिलाऊँगा? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।” लड़की ने बस उसकी ओर देखा और कहा, “आप बस हाँ कह दो, सब ठीक हो जाएगा।” रामदास ने थकी हुई साँस ली और धीरे से कहा, “ठीक है, रह लो।” मगर उसकी बात अधूरी रह गई क्योंकि लड़की ने उसी पल कहा, “पहले मुझे आपसे निकाह यानी शादी करनी होगी।”

रामदास के कदम जैसे जमीन में जम गए। उसने हैरानी से पूछा, “क्या कहा? शादी? मैं और तुम? क्या तुम्हें होश है?” लड़की ने मुस्कान नहीं दिखाई, सिर्फ मजबूत लहजे में बोली, “हाँ, मुझे आपसे ही शादी करनी है। और आज ही।” रामदास कुछ समझ नहीं पाया। एक हसीन चेहरा, जिसे वह जानता तक नहीं, शादी की बात कर रहा था। कई पल सोचने के बाद, जब उसका दिल और दिमाग थक गए, तो उसने चुपचाप हामी भर दी। फिर उसी कच्चे मकान के एक कोने में एक बूढ़ा मछुआरा और एक जवान रहस्यमयी लड़की शादी के बंधन में बंध गए।

उस रात रामदास देर तक सोने की कोशिश करता रहा। मगर उसके दिल में एक ही सवाल घूमता रहा—यह लड़की कौन है और क्यों आई है उसकी जिंदगी में? वह चुपचाप बैठा नेहा को देख रहा था। ना कोई खुशी थी, ना कोई सपना। बस एक अजीब उलझाव था, जैसे किसी ने दिल पर भारी बोझ रख दिया हो। वह बार-बार सोचता, कहीं यह सब सपना तो नहीं।

अगली सुबह सूरज पूरी तरह निकला भी नहीं था कि रामदास ने अपनी पुरानी नाव तैयार कर ली। वह दरवाजे तक पहुँचा ही था कि पीछे से आवाज आई, “नदी जा रहे हो?” उसने मुड़कर देखा, नेहा वहीं खड़ी थी। आँखों में एक अजीब सा ठहराव। उसने ठंडे लहजे में जवाब दिया, “हाँ, पता नहीं आज कुछ मिलेगा या नहीं।” नेहा ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, “भरोसा रखो, सब बेहतर होगा।”

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रामदास ने कुछ नहीं कहा और नदी की ओर बढ़ गया। उस दिन मछलियाँ पकड़ना जैसे एक बहाना बन गया था। दिमाग में बस नेहा का ख्याल था—उम्र का बोझ, तन्हाई की मार और अब यह लड़की। जब-जब जाल पानी में डालता, सोचता—आखिर यह लड़की कौन है? क्या वाकई वह सच्ची है? कई घंटों की कोशिश के बावजूद उसे कुछ नहीं मिला। सूरज ढलने लगा, नदी की लहरें भी थकी-थकी लगने लगीं।

घर लौटा तो नेहा दरवाजे पर खड़ी मिली। आँखों में हल्की उम्मीद थी। उसने पूछा, “कुछ मछली मिली?” रामदास ने सिर झुकाकर कहा, “नहीं, आज कुछ नहीं मिला।” नेहा ने ना शिकायत की, ना कोई अफसोस जताया। बस मुस्कुराकर बोली, “कोई बात नहीं, फाके भी साथ सह लेंगे। शादी का मतलब ही यही तो है।” उस रात चूल्हा बुझा रहा, पेट खाली था, मगर कमरा खामोशी से भरा था। नेहा अब भी चुपचाप वहाँ बैठी थी, जैसे हर दुख को अपने भीतर समेटे बैठी हो।

अगली सुबह रामदास फिर निकल पड़ा, इस बार और भी बोझ लेकर। उसके मन में अब यह भी सवाल उठ रहा था—क्या यह सब धोखा है? कहीं वह किसी फरेब में तो नहीं है? लेकिन इस बार आख़िरकार एक मछली जाल में फँसी। फिर भी रामदास खुश नहीं हुआ। वह थक-हार कर बस घर लौट आया। नेहा ने मछली ली और कहा, “थोड़ा इंतजार करो, मैं पका देती हूँ।” कुछ देर बाद वह लौटी और बोली, “रसोई में कुछ भी नहीं है—ना नमक, ना तेल, ना कोई मसाला।” रामदास ने हार भरे स्वर में कहा, “कहा था ना, मेरे पास कुछ नहीं। जो मछली मिलती है, उसे कोयले पर भून लेता हूँ।”

नेहा ने फिर ना कोई शिकायत की, ना ही कुछ कहा। फौरन मछली को कोयलों पर रख दिया। जब दोनों ने आधी-आधी मछली खाई तो रामदास ने गहरी साँस ली और वहीं सवाल फिर से पूछा, “नेहा, अब तो बता दो, तुम आखिर हो कौन? और क्यों की मुझसे शादी?” नेहा ने चुपचाप एक गहरी साँस ली। कोच्ची की नमी से भरी फिजा में वह रात कुछ अलग ही थी। नेहा की आवाज अब भी रामदास के कानों में गूंज रही थी। आँखों में नमी आ गई, “थोड़ा और सब्र करो रामदास। बहुत जल्द सब समझ आ जाएगा। तब तुम्हारा हर सवाल, हर दर्द सब मिट जाएगा।”

उस रात रामदास को नींद नहीं आई। वह करवटें बदलता रहा, छत को तकता रहा। सुबह हुई तो वह रोज की तरह नदी की ओर गया। लेकिन जब वापस आया, उसकी जिंदगी जैसे एक पल के लिए थम गई। घर में खामोशी थी, एक गहरा सन्नाटा। नेहा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। वह घबराकर कभी कमरे में, कभी आँगन में, कभी बाहर और फिर अंदर दौड़ा। हर तरफ आवाज दी, “नेहा, नेहा!” लेकिन कोई जवाब नहीं आया।

फिर अचानक उसकी नजर उस पुरानी पीली लकड़ी की संदूक पर पड़ी। वही संदूक जिसे उसने बरसों से नहीं खोला था, जिसमें उसकी माँ की आखिरी निशानी—सोने की बालियाँ—सँभाल कर रखी थी। मगर आज वह संदूक खुला हुआ था और अंदर खाली। रामदास की टाँगों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई। “नहीं, यह नहीं हो सकता।” उसका दिल तेज धड़कने लगा। वह वहीं फर्श पर बैठ गया, आँखों से आँसू बहने लगे। “क्या नेहा चोर थी? क्या उसने मेरी सादगी का फायदा उठाया? मेरी माँ की निशानी लेकर चली गई?”

गहरे सदमे में वह दौड़ता हुआ अपने पुराने दोस्त श्रीनाथ के पास गया। श्रीनाथ ने सारी बात सुनी और सिर हिलाकर कहा, “अब सिर्फ एक ही रास्ता है। चलो महारानी के पास। वो जरूर इंसाफ करेगी।” रामदास की आँखों में एक नई उम्मीद चमकी। कोच्ची की तंग पत्थरीली गलियों से गुजर कर रामदास उस ऊँचे टीले की ओर बढ़ा, जहाँ कोच्ची की महारानी का महल था। फिजा में हल्की ठंडक थी, और उसके हाथों में अब भी वह खाली संदूक थमी हुई थी। महल के दरवाजे पर दो लंबे-लंबे तलवार थामे सिपाही पहरे पर थे।

रामदास उनके सामने जाकर रुका। उसकी आवाज भारी थी, “मुझे महारानी से मिलना है, बहुत जरूरी है।” एक सिपाही ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और हँस पड़ा, “महारानी से तुम जैसे बेतरतीब बूढ़े आदमी? चलो हटो यहाँ से।” लेकिन दूसरे सिपाही ने बात काटी, “रुको। आज महारानी ने दरबार आम लोगों के लिए खोला है। एक दिन की मेहरबानी का फायदा इस बूढ़े को भी मिल सकता है।” कुछ सवाल-जवाब के बाद रामदास को महल के अंदर जाने की इजाजत मिल गई।

महल के अंदर का नजारा उसके लिए किसी सपने से कम नहीं था। ऊँचे-ऊँचे गुंबद, फर्श पर बिछे लाल कालीन, दीवारों पर चमकते शीशे और हजारों दियों की रोशनी। बीचोंबीच एक ऊँचा सिंहासन था, जहाँ बैठी थी कोच्ची की महारानी। चेहरा नकाब में छुपा हुआ था, केवल गहरी शांत आँखें नजर आ रही थीं। दरबार का वजीर ऊँची आवाज में बोला, “रामदास बिन हरिराम, अपनी बात रखिए महारानी के सामने।”

रामदास धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसकी आवाज में काँप थी, मगर शब्द साफ थे, “महारानी साहिबा, मैं एक बूढ़ा मछुआरा हूँ। दो दिन पहले मेरे घर एक लड़की आई, जवान, खूबसूरत, मगर अजनबी। उसने मुझसे निकाह की जिद की। मैंने बहुत समझाया, लेकिन वह ना मानी। निकाह हुआ और दो दिन बाद वह मेरी माँ की आखिरी निशानी—सोने की बालियाँ—लेकर गायब हो गई।”

पूरे दरबार में खामोशी छा गई। कुछ पल बाद महारानी ने पूछा, “अब तुम क्या चाहते हो, बूढ़े मछुआरे?” रामदास ने कहा, “इंसाफ। मुझे अपनी माँ की याद वापस चाहिए। मैं उसे किसी कीमत पर नहीं बदल सकता।” महारानी की आवाज में नरमी थी, “अगर मैं तुम्हें उस जेवर के बदले दुगना सोना दे दूँ तो क्या तुम मान जाओगे?” रामदास ने तुरंत जवाब दिया, “नहीं, मैं सिर्फ वही निशानी चाहता हूँ। वो मेरी माँ की आखिरी पहचान थी।”

कुछ देर सन्नाटा रहा। फिर महारानी बोली, “तुम्हारी बात को गंभीरता से लिया जाएगा। दरबार आज समाप्त होता है। तुम बाहर प्रतीक्षा करो।” रामदास कुछ कहना चाहता था, लेकिन पहरेदारों ने उसे इशारे से बाहर जाने को कहा। महल के एक बाहरी हिस्से में एक छोटा सा कमरा दिया गया। हैरानी की बात थी—कोच्ची की महारानी आम लोगों को महल में रात गुजारने की इजाजत नहीं देती थी, मगर रामदास को मिली।

उस रात वह सो नहीं सका। आँखों में हजार सवाल थे। सुबह हुई, दरबार फिर से सजा। इस बार माहौल अलग था। दरबार में कम लोग थे, महारानी अपने सिंहासन पर बैठी थी, मगर आज उनके चेहरे पर नकाब के साथ एक गहरी खामोशी भी थी। वजीर ने ऐलान किया, “महारानी साहिबा ने निर्णय किया है कि आपसे व्यक्तिगत रूप से भेंट की जाएगी।” रामदास चौंक गया, “मुझसे अकेले में?” वजीर ने कहा, “जी हाँ, मगर सिर्फ कल सुबह। तब तक आप महल में ही रहेंगे।”

रामदास एक आखिरी उम्मीद लेकर महारानी से मुलाकात की तैयारी करने लगा। दूसरी सुबह एक दासी आई और बोली, “महारानी साहिबा इंतजार कर रही हैं। आपको सिंहासन हॉल में बुलाया गया है।” रामदास भीतर पहुँचा तो देखा, महारानी वहीं बैठी थी, उसी अंदाज में, चेहरा नकाब में। महारानी ने कहा, “बैठ जाइए रामदास।” रामदास ने धीमी आवाज में कहा, “महारानी साहिबा, मैं आपके सामने सिर झुकाकर इंसाफ मांगने आया था। आपने मुझे अकेले में बुलाया, एक बूढ़े को इतनी इज्जत दी। मगर यह सब क्यों? और आपको मेरा नाम कैसे मालूम?”

महारानी उठीं, कुछ कदम चलीं और उस संदूक के पास आ खड़ी हुईं। वही संदूक जिसमें रामदास की माँ की सोने की बालियाँ रखी थीं। रामदास हैरान रह गया, “यह संदूक… यह तो मेरी माँ के जेवर वाला है। यह आपके पास कहाँ से आया? आपने इतनी जल्दी चोर को ढूंढ निकाला। मान गया, आप सच्ची महारानी हैं।” फिर उसने बेचैन होकर पूछा, “मगर वो चोरनी कहाँ है, जिससे आपको मेरी माँ की निशानी मिली?”

कमरे में एक गहरी खामोशी छाई थी। रामदास की आवाज धीमी और टूटी हुई निकली, “मेरी आखिरी दरख्वास्त है, मुझे उससे एक बार मिलने दीजिए।” महारानी ने कोई उत्तर नहीं दिया। खामोशी समय को अपनी गिरफ्त में लेने लगी। फिर अचानक वह धीरे-धीरे अपनी जगह से उठीं। संगमरमर के फर्श पर उनके कदमों की हल्की सी आहट गूंजी। रामदास ने सिर उठाया, वह महारानी के बिल्कुल सामने खड़ी थीं।

कुछ पल बीते और फिर महारानी ने अपने नकाब का पलू धीरे से थामा और चेहरा सामने कर दिया। रामदास के होठ जड़ हो गए, उसकी आँखें हैरानी से फैल गईं, दिल की धड़कन जैसे थम गई। नेहा… सामने वही चेहरा था, वही आँखें, वही आवाज, वही अस्तित्व जो दो दिन उसकी जिंदगी का हिस्सा रही थी।

“हाँ, रामदास, मैं ही नेहा हूँ।” रामदास लड़खड़ा कर बैठ गया, एक हाथ से दिल थामते हुए बोला, “यह क्या माजरा है? तू… तू महारानी है और मुझसे निकाह क्यों किया? मेरी माँ की निशानी लेकर क्यों चली गई?”

नेहा की आँखों में नमी तैरने लगी। वह कुछ कदम आगे बढ़ी और फिर शांत स्वर में बोली, “अब वह समय आ गया है, रामदास, जब तुम्हें सच बता दूँ।” कमरे की दीवारों पर टिमटिमाते दियों की रोशनी कांपने लगी, हवा में एक गंभीर खामोशी घुल गई।

“बीस साल पहले, नदी के किनारे एक छोटी सी बच्ची अकेली बैठी थी—भूखी, प्यास से बेहाल और डरी हुई। उस वक्त एक बूढ़ा मछुआरा वहाँ से गुजरा। उसने उस बच्ची को उठाया, उसे बचाया और अजनबियों के हवाले कर दिया। वो बूढ़ा मछुआरा तुम थे, रामदास।” रामदास की आँखें नम हो गईं, दिल की पुरानी परतों से यादों की गर्द उड़ने लगी। “वो बच्ची मैं थी। तुमने मुझे नई जिंदगी दी। मैं अनाथालय में पली-बढ़ी। पढ़ाई पूरी की। फिर किस्मत ने पलटा खाया। एक रईस परिवार ने मुझे अपना लिया और मैं उनकी इकलौती वारिस बन गई। महल, दौलत, तख्त सब मिला। लेकिन एक बोझ हमेशा दिल पर रहा।”

नेहा की आवाज भीग गई, “तुम्हारा वह एहसान, जो मैं कभी नहीं भूल पाई।” रामदास चुपचाप सुनता रहा, जैसे कोई सपना हो जिसे छूना भी मना हो। “मैं चाहती तो तुम्हें सोना दे सकती थी, जमीन दे सकती थी। लेकिन वह सब नाकाफ़ी था। मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती थी, तुम्हारी सेवा करना चाहती थी, तुम्हारा कर्ज चुकाना चाहती थी।”

रामदास हल्के से कांपते स्वर में बोला, “तो तूने मुझसे निकाह सिर्फ एहसान चुकाने के लिए किया?” नेहा के होठ कांप उठे, “नहीं, रामदास, यह एहसान नहीं था। श्रद्धा थी, दिल से जुड़ी हुई। लेकिन मुझे पता था कि अगर मैं सीधे रूप में आती तो तुम कभी स्वीकार ना करते। तुम्हारे आत्मसम्मान को ठेस पहुँचती। इसलिए मैंने वो रास्ता चुना जिसमें तुम इंकार नहीं कर पाते।”

उसकी आँखें अब बहने को थीं, “तुम्हारी माँ की निशानी मैंने सिर्फ इसलिए ली, ताकि तुम यहाँ आओ, ताकि मैं अपने असली रूप में तुम्हारे सामने आ सकूँ।” रामदास का गला रंध गया, आँखों में आँसू भर आए। वह धीरे से बोला, “मैंने तो कभी नहीं सोचा था कि मेरी एक छोटी सी मदद किसी की पूरी जिंदगी बदल देगी।”

नेहा मुस्कुराई, एक पारदर्शी, खामोश मुस्कान के साथ, “वह मदद नहीं थी, रामदास, वो तुम्हारी इंसानियत थी। तुमने मुझे जीवन दिया और जो जीवन देता है, वह केवल उपकार करता नहीं, ईश्वर के समीप होता है।” फिर उसने रामदास का हाथ थामा, हाथ में कंपन थी, लेकिन स्पर्श में आभार था, “अब मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ूँगी। तुम मेरे लिए केवल एक उपकारकर्ता नहीं, मेरा वह अतीत हो जो मुझे रोशन करता है। इस महल का एक हिस्सा तुम्हारा है। हर सुबह तुम्हारी चाय होगी, हर शाम तुम्हारी बातें।”

रामदास ने नजरें झुका लीं, आँखों से बहते आँसू उसके गालों को छू रहे थे। “मैं एक मछुआरा और तू रानी…” नेहा ने नरमी से कहा, “और जो किसी को जिंदगी देता है, वो रानी से कम कब होता है?”

महल के बाहर पेड़ों की शाखाएँ हिल रही थीं, रोशनी की किरणों में एक सुकून बसा हुआ था। रामदास की बरसों पुरानी थकन आज मिट चुकी थी, दिल जैसे हल्का हो गया था। यह कहानी सिर्फ जेवर की वापसी की नहीं थी, यह इंसानियत, मोहब्बत और एहसान की वो डोर थी जो वक्त की कसौटी पर भी नहीं टूटी। जिंदगी में कभी किसी को छोटा मत समझो। एक मामूली सी भलाई किसी की पूरी दुनिया बदल सकती है। सच्चाई, प्रेम और उपकार का बदला कभी व्यर्थ नहीं जाता। वह लौट कर जरूर आता है, अक्सर किसी ऐसे रूप में जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।