एक शख्स ने पूरे बैंकिंग सिस्टम को हिला कर रख दिया – एक सबक آموز (सीख देने वाली) घटना 🥰

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असलम खान की कहानी

गांव की कच्ची गलियों से चलता हुआ जब वह बुजुर्ग शख्स शहर की पक्की सड़कों तक पहुंचा, तो कई निगाहें उस पर उठी। मगर उन निगाहों में ना तो एहतराम था, ना ही अपनापन। बस अजनबियत, गुरूर और तहकीर। उसका नाम असलम खान था। एक किसान जो जिंदगी के आखिरी दौर में दाखिल हो चुका था। लेकिन दिल में एक ऐसा ख्वाब जिंदा था, जिसके लिए उसने पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी थी—खाना ए काबा की जियारत, हज की अदायगी।

असलम खान ने कभी कोई ओहदा नहीं संभाला, ना कोई सरकारी नौकरी की, ना तिजारत की। वह सिर्फ एक सादा सा किसान था, मगर उसकी मेहनत, उसकी खुददारी और उसकी नियत किसी बादशाह से कम ना थी। 30 साल तक उसने एक-एक रुपया बचाया। कभी फसल अच्छी हुई तो कुछ ज्यादा बचत हो गई, और कभी मौसम ने साथ ना दिया तो कर्ज में भी डूब गया। लेकिन एक बात तय थी—हज पर जरूर जाना है। अल्लाह के दरबार में सर झुकाना है। यही ख्वाब हर सुबह उसकी आंखें खोलता और हर रात सोने से पहले दिल में उम्मीद का चिराग रोशन कर देता।

उस रोज वह फजर की नमाज के बाद रवाना हुआ। बेटे ने कहा, “अब्बा, आप चाहे तो मैं हज प्लस पैकेज का बंदोबस्त कर दूं। आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” मगर असलम खान ने हाथ उठाकर मना कर दिया। “बेटा, तुम्हारी इज्जत अपनी जगह, लेकिन यह हज मैं अपने पैसों, अपनी नियत और अपनी कुर्बानी से करना चाहता हूं। ना किसी की सिफारिश चाहिए, ना कोई रियायत।” बेटा मुस्कुरा दिया और दिल ही दिल में बाप पर फक्र भी हुआ।

असलम खान ने अपना पुराना सा बस्ता उठाया, जिसमें तीन जोड़ी कपड़े, एक पुराना कुरान शरीफ, चंद जरूरी कागजात और सारी जिंदगी की जमा पूंजी थी। उस बस्ते पर कई जगह पैबंद लगे थे। जिप भी जरा कमजोर थी। मगर उस बस्ते में उसके लिए सिर्फ सामान नहीं, एक ख्वाब की नरम परछाई थी, जिसे वह बरसों से सीने से लगाए फिर रहा था।

जिस हज ऑफिस का पता उसे दिया गया था, वह शहर के एक नुमाया और आलीशान इलाके में था। बड़े-बड़े बैनर, शीशे के दरवाजे, ऐसी हॉल, सफेद यूनिफार्म में लिपटा अमला—यह सब असलम खान के लिए नया नहीं था, लेकिन गैर मानूस जरूर था। उसे इल्म था कि शहर वाले किसानों को कोई खास तवज्जो नहीं देते। मगर उसे यह अंदाजा ना था कि हज जैसे मुकद्दस अमल में भी लोग किसी के कपड़े, चाल या बस्ते को देखकर उसकी नियत का तौल शुरू कर देंगे।

जब वह ऑफिस के सामने पहुंचा तो कुछ पल के लिए वहीं ठहर गया। अंदर जाने से पहले उसने हाथ उठाए। “या अल्लाह, तू जानता है कि मैं तेरे दर पर आने निकला हूं। अगर कोई रुकावट आए तो मुझे सब्र अता कर और अगर इज्जत मिले तो शुक्र।” फिर उसने दरवाजा धकेला और ठंडी हवा के साथ एक नए इम्तिहान का आगाज हो गया।

जैसे ही वह अंदर दाखिल हुआ, खुशबूदार माहौल, कीमती फर्नीचर और सजी-संवरी मुस्कानें एक साथ उस पर टूट पड़ीं। मगर वह खुद उस तस्वीर का हिस्सा नहीं लगता था। सफेद कुर्ता, मेले सा पायजामा और वह चप्पलें जो कई बार मरम्मत हो चुकी थीं, यही उसका जाहिरी हुलिया था। लेकिन असल पहचान उसकी नियत में थी। मगर अफसोस, जो लोग वहां बैठे थे, वह उस नियत तक पहुंचने की सलाहियत नहीं रखते थे।

इसी लम्हे से कहानी ने वह मोड़ लिया, जहां इंसानियत की असल आजमाइश शुरू होती है। असलम खान ने जैसे ही हज ऑफिस के शीशे वाले दरवाजे को खोला, एक सर्द झोंका उसके झुर्रियों भरे चेहरे से टकराया। अंदर कदम रखते ही खुशबू, रोशनी और चमकदार फर्श ने आंखों को चौंधिया दिया। मगर वहां मौजूद चेहरों की मुस्कुराहटें सिर्फ मुनासिब तबके के लिए थीं। इन मुस्कुराहटों में ना कोई खलूस था, ना कोई तकद्दुस। बस एक पेशेवर चमक जो जरूरत के वक्त जगाई जाती है।

वो जैसे ही अंदर आया, हर निगाह उस पर ठहर गई। मगर यह वह निगाहें नहीं थीं जो उम्र का लिहाज करें। यह वो निगाहें थीं जो कपड़े, जूते और चाल-ढाल पर सीधा हमला करती थीं। रिसेप्शन पर बैठी दो नौजवान लड़कियां एक-दूसरे को देखकर हल्के से मुस्कुराईं। उनके होठों पर जहर था, जैसे कोई मजाक सामने आ गया हो।

एक औरत जो महंगा बुर्खा ओढ़े लंबे पर्स के साथ बैठी थी, उसने अपने बच्चे को पास खींच लिया और धीमे से कहा, “बेटा, इन बाबा जी से दूर रहना। यह तो कोई फकीर लगते हैं।” एक नौजवान अफसर, जो महंगे सूट में कान में ब्लूटूथ लगाए खड़ा था, ने असलम खान को ऊपर से नीचे देखा और मुंह बना लिया। जैसे यह हज ऑफिस नहीं, कोई फाइव स्टार होटल का वेटिंग एरिया हो, जहां इस बूढ़े किसान की मौजूदगी किसी गुनाह से कम ना हो।

असलम खान जो अंदर से सब महसूस कर रहा था, मगर बाहर से खामोश और पुरसुकून था। धीरे-धीरे रिसेप्शन की जानिब बढ़ा। उसके कदमों की चप्पलें धीमी आवाज के साथ फर्श से सरक रही थीं। रिसेप्शन पर बैठी लड़की ने चेहरा सख्त कर लिया, जैसे उसकी खुशबूदार दुनिया में किसी ने बदबू छोड़ दी हो।

असलम ने नरम आवाज में कहा, “बेटी, मैं हज रजिस्ट्रेशन के लिए आया हूं,” और फिर अपना शिनाख्ती कार्ड मेज पर रख दिया। लड़की ने कार्ड को हाथ भी ना लगाया। बस तुर्श लहजे में बोली, “बाबा जी, यह खैरात का दफ्तर नहीं है। हज बहुत महंगा होता है। खासतौर पर हमारा प्लस पैकेज लाखों में है। आप अपना वक्त बर्बाद ना करें। अगर कोई मदद चाहिए तो बलदिया ऑफिस जाइए। वहां सोशल स्कीम्स चलती हैं।”

साथ बैठी दूसरी लड़की ने मुंह छुपाकर हंसी दबाई। “पता नहीं कौन-कौन आ जाता है।” इन्हीं अल्फाज की गूंज अभी तक थमी ना थी कि एक सिक्योरिटी गार्ड तेजी से आगे बढ़ा। छाती तनी हुई, दाढ़ी तराशी हुई। उसने सख्त लहजे में कहा, “बाबा जी, यहां कोई भी हंगामा बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अगर आप रजिस्ट्रेशन नहीं कर सकते, तो बराए मेहरबानी बाहर जाएं। यह जगह मुअज्जिज लोगों के लिए है।”

असलम खान ने उन सब की तरफ देखा। वो हैरान नहीं था। उसे मालूम था कि इस शहर में इज्जत मिलती है तो सिर्फ कपड़ों से, बैंक बैलेंस से और मोबाइल के ब्रांड से। मगर यह जगह तो अलग होनी चाहिए थी। यह तो वह दर था, जहां से रास्ता खुदा के घर को जाता है। उसे उम्मीद थी कि शायद यहां नियत को देखा जाएगा, इबादत को समझा जाएगा और इंसानियत को सराहा जाएगा। मगर यहां भी तराजू वही था—कपड़े, जूते और शक्ल-सूरत।

रिसेप्शन के पीछे दीवार पर एक आयत लिखी थी अरबी में। नीचे उसका तर्जुमा भी था: “अल्लाह नियतों को जानता है।” असलम ने उस आयत को देखा और हल्के से मुस्कुरा दिया। जैसे खुदा उसके दिल को तसल्ली दे रहा हो। फिर उसने धीरे से अपना वह पुराना बस्ता खोला। वही जिसमें ता उम्र की मेहनत छुपी हुई थी।

मगर जैसे ही उसने झिप खोली, कुछ लोग हंसने लगे। पीछे से एक आवाज उभरी, “बच के रहना। कहीं बाबा जी के बैग में मरा हुआ चूहा ना निकल आए,” और फिर ठहाकों की एक तेज लहर पूरे कमरे में फैल गई। असलम खान ने एक लम्हे को अपनी नजरें झुका लीं, लेकिन दिल में बस एक जुमला कहा: “या अल्लाह, अब सब्र तेरा इम्तिहान है।”

रिसेप्शन पर गूंजती हंसी, तंजिया जुमले और बेहिस निगाहों के बीच असलम खान ना तो जवाब दे रहा था, ना ही शिकवा। उसने बस अपने दोनों हाथों से वह कपड़े का बस्ता थाम रखा था, जैसे कोई मासूम बच्चा जुल्म देख रहा हो, मगर चुप है क्योंकि उसे यकीन है कि सच बोलने के लिए वक्त खुद आवाज बन जाता है।

अभी वह रिसेप्शन के सामने खड़ा ही था कि एक नौजवान अफसर, जो चमकते बालों में जेल लगाए, पटक कोट पहने हाथ में कॉफी का कप लिए धीरे-धीरे बढ़ा। उसने बड़ी ही नर्म, मगर बनावटी आवाज में कहा, “बाबा जी, हज की नियत तो नेक है, लेकिन ख्वाबों को हकीकत में बदलने के लिए पैसा भी चाहिए होता है। हमारे यहां प्लस पैकेज लाखों में होता है। आप जैसे लोग अक्सर स्पॉन्सरशिप ढूंढते हैं। माफ कीजिए, हमारे यहां ऐसी कोई स्कीम नहीं है।”

इस जुमले के बाद जैसे कमरे में फिर एक हंसी का बवंडर उठा। जो लोग अब तक चुप थे, वह भी एक-दूसरे को कोहनिया मारते मुस्कुरा रहे थे। एक साहब, जिनकी आंखों पर महंगा चश्मा था, बोले, “बेगम, तुमने सुना? यह बाबा जी बिना पैसों के हज जाना चाहते हैं। अब यह भी देखना बाकी था।” खातून ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, “हद हो गई। अब फकीर भी ख्वाब देखने लगे हैं खाना-ए काबा के।”

असलम खान की उम्र भले ही जोड़ों के दर्द वाली हो चुकी थी, मगर उस वक्त वह सीधा खड़ा था। पूरे वकार और इज्जत के साथ। उसके हाथ में अब भी शिनाख्ती कार्ड रखा था, मगर किसी ने उसे छुआ तक नहीं। तभी एक और स्टाफ मेंबर, जो अब तक चुपचाप बैठा था, आगे आया और सख्त लहजे में बोला, “बाबा जी, अगर रजिस्ट्रेशन करानी है तो पहले फीस जमा कराइए। दुआ, नियत या गरीबी से हज नहीं होता।”

असलम खान ने अपना पुराना बस्ता जमीन पर रखा। चुपचाप झिप खोलने लगा। कमरे में किसी के चेहरे पर ताज्जुब या दिलचस्पी का कोई असर नहीं था। सबको यकीन था कि उसमें सिर्फ पुराने कपड़े या किसी सरकारी स्कीम की अर्जी होगी।

एक रिसेप्शनिस्ट ने हंसते हुए कहा, “कहीं यह प्राइस बॉंड ना निकाल दें या फिर पैसे के बदले चिल्लर।” सिक्योरिटी गार्ड, जो एक कोने में खड़ा था, आगे बढ़ा और तंजिया में बोला, “बाबा जी, अगर बैग में कुछ गड़बड़ निकली तो पुलिस को बुला लेंगे।”

मगर असलम खान ने सब आवाजें नजरअंदाज कर दीं। बस्ता खुलता गया और साथ ही कमरे की हंसी भी थमती गई। अब हर निगाह सिर्फ उसके हाथों की हरकत पर थी। वह धीरे से निकालने लगा। प्लास्टिक में लिपटे साफ सुथरे नोटों के बंडल। एक नहीं, दो नहीं, पूरी गड्डियां। हर गड्डी ₹2000 के ताजा नोटों से भरी हुई। ना कोई गर्द, ना कोई सिलवट। जैसे बैंक से सीधे आए हों।

कमरे में जैसे खामोशी का धमाका हुआ। एक लम्हे के लिए सब कुछ थम गया। जो शख्स अब तक मजाक था, अब सवाल बन गया था। रिसेप्शन पर बैठी लड़की घबराकर पानी का गिलास गिरा बैठी। वही अफसर, जो कॉफी कप लिए तंज कर रहा था, अब नजरें चुराता शर्मिंदगी से जड़ हो चुका था।

असलम खान ने गड्डियां काउंटर पर रखते हुए कहा, “30 साल की मेहनत है। एक-एक दाना बेचकर जमा किया है। किसान हूं, फकीर नहीं। बेटा मेरा अफसर है, मगर हज मैं अपनी कमाई से करने आया हूं।”

कमरे में हर सांस रुक सी गई। जिसे कुछ पल पहले तमाशा, भिखारी और फकीर कहा जा रहा था, अब वह सबका आईना बन गया था। और उस आईने में सबको अपनी बदसूरती दिखाई दे रही थी—अखलाक की बदसूरती, रवयों की गंदगी और दिलों की तंगदिली।

लेकिन सबसे बड़ा सदमा अभी बाकी था। असलम खान ने अपने उसी पुरसुकून नरम लहजे में कहा, “30 साल लगे यह जमा करने में। जमीन ज्योति, धूप में झुलसा, बारिश में भीगा। मगर एक दिन भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। यह सब मैंने अल्लाह के घर के लिए जमा किया है। अपने खून पसीने से।”

उसने कमरे में मौजूद हर शख्स को देखा। एक-एक चेहरा, जो कुछ देर पहले तंज से चमक रहा था, अब शर्म से झुका हुआ था। ना उसके हाथ कांप रहे थे, ना आवाज में कोई लरजिश थी। चेहरे पर ना गुस्सा था, ना शिकवा। बस वकार और सब्र था। वो सब्र जो सिर्फ वह करता है, जिसने जिंदगी भर मिट्टी से रोजी निकाली हो और फिर लोगों की जुबानों के जहर को भी खामोशी से पी लिया हो।

तभी एक और लम्हा आया, जो सबके लिए एक और जख्म बन गया। ऑफिस के अंदरूनी कमरे से एक शख्स निकला। शायद कोई सीनियर अफसर। वो थोड़ा झुककर बोला, “सर, अगर आप पहले ही बता देते कि आपके पास इतनी रकम है तो हम तो वीआईपी सर्विस दे देते।”

असलम ने उसकी तरफ देखा और सिर्फ एक जुमला कहा, “और अगर मेरे पास ना होती तो?” खामोशी छा गई। कहानी की सबसे ऊंची चीख अब एक धीमे सवाल में बदल चुकी थी। फिर असलम खान ने वह जुमला कहा, जो वहां मौजूद हर रूह तक उतर गया।

“यह पैसे दिखाने के लिए नहीं लाया। हज की नियत से लाया हूं। मगर तुम सब ने मेरे बस्ते, कपड़े और चाल को देखकर मुझे भिखारी समझ लिया। क्या तुम्हें मालूम नहीं? अल्लाह के घर का रास्ता दिल से शुरू होता है। बैंक बैलेंस से नहीं।”

कमरे की फिजा घुटी-घुटी सी हो गई थी। एसी की ठंडी हवा भी अब एक अजीब बेचैनी लेकर घूम रही थी। लोग सिर्फ असलम खान को नहीं देख रहे थे। वो अब अपने जमीर का आईना देख रहे थे। काउंटर पर रखा बस्ता अब सामान नहीं था। वह सबके लिए एक खुली किताब बन चुका था, जिसमें उनके ही किरदारों की तस्वीरें झलक रही थीं।

असलम ने फिर कहा, “और हां, एक बात और, मेरा बेटा इरफान खान इस वक्त जिला मजिस्ट्रेट है। मगर मैं उसके नाम या ओहदे से नहीं आया। मैं अपनी कमाई से हज करने आया हूं। खुददार हूं, खैरात नहीं लेता।”

यह सुनना था कि जैसे हर चेहरे का रंग ही बदल गया। जो लोग अब तक उसे हिकारत से देख रहे थे, उनकी आंखों में अब खौफ, अफसोस और शर्मिंदगी के साए थे। कोई नहीं जानता था कि यह वही असलम खान है, जिसे वे फकीर समझ बैठे थे। दरअसल, एक ताकतवर अफसर का वालिद था और उससे भी बढ़कर एक गैरतमंद, सच्चा इंसान था।

ऑफिस का वो माहौल, जो कुछ पल पहले तक तंज, हंसी और तकब्बुर से गूंज रहा था, अब एक खौफजदा बेजुबान सन्नाटे में तब्दील हो चुका था। एक नौजवान स्टाफ मेंबर, जो अब तक कुर्सी से हिला भी नहीं था, तुरंत मोबाइल पर इरफान खान का नाम सर्च करने लगा। कुछ ही सेकंड में हकीकत सामने थी। इरफान खान, जिला मजिस्ट्रेट, सख्त लेकिन ईमानदार अफसर।

एक वीडियो खुली जिसमें इरफान एक किसान सम्मेलन में कह रहा था, “मेरा बाप एक किसान है। उसने मुझे खुददारी सिखाई, इज्जत कमाना सिखाया और किसी के आगे हाथ ना फैलाने का हौसला दिया।” यह सुनते ही रिसेप्शन पर बैठी लड़की के हाथ से फाइल गिर गई।

पूरे ऑफिस में अब बस एक जुमला तैर रहा था। “वो फकीर नहीं था। डीएम का बाप था।” वो सिक्योरिटी गार्ड, जो अभी कुछ देर पहले असलम को धकियाने वाला था, अब पसीने में तर-बतर खामोश खड़ा था। वही अफसर, जो “बाबा जी” कहकर तंज कस रहा था, अब कुर्सी छोड़कर दौड़ा आया और झुककर बोला, “सर, हमें माफ कर दीजिए। हमें नहीं पता था आप कौन हैं। हम सब शर्मिंदा हैं।”

असलम खान ने अपनी झुर्रियों से भरी आंखों से उसे देखा और कहा, “अगर मैं किसी अफसर का बाप ना होता, अगर मेरे पास यह पैसे ना होते, तो क्या तब भी तुम्हारा रवैया यही होता?” यह सवाल पत्थर बनकर शीशे पर गिरा। कोई जवाब नहीं था। किसी के पास नहीं।

वो कमरा, जो कुछ पल पहले तक हंसी, बेहूदगी और तौहीन से गूंज रहा था, अब गुनाह, शर्म और तौबा की खामोशी में डूबा था। एक स्टाफ मेंबर ने हाथ जोड़कर कहा, “सर, हम आपका वीआईपी रजिस्ट्रेशन मुफ्त में कर देते हैं। आपको सिर्फ फॉर्म भरना है। बाकी सब हमारा जिम्मा।”

मगर असलम खान की आंखों में अब सुकून नहीं, सदमा था। उसने अपना शिनाख्ती कार्ड उठाया, बस्ता कंधे पर लटकाया और धीमे कदमों से पीछे हटने लगा। उसका चेहरा कह रहा था, “अब यहां रुकने का कोई फायदा नहीं। यह वो जगह नहीं जहां नियत को इज्जत मिलती है। यहां तो नाम, कपड़े और ओहदा देखकर फैसले होते हैं।”

दरवाजे की जानिब बढ़ते हुए एक नौजवान रिसेप्शनिस्ट, जो अब तक दूर खड़ी थी, आगे आई। कांपती आवाज में बोली, “बाबा जी, प्लीज माफ कर दीजिए। हमें नहीं पता था कि…”

असलम ने नरमी से हाथ उठाकर कहा, “बेटी, गलती यह नहीं थी कि तुम मेरे बेटे का ओहदा नहीं जानती थीं। असल गलती यह थी कि तुम्हें मेरा इंसान होना नजर नहीं आया।” यह कहकर वह बाहर निकल गया।

एक ऐसी चाल के साथ जो आज और कल के दरमियान एक लकीर खींच गई थी। वह कोई नामचीन शख्स नहीं था। ना कोई नेता, ना आलिम। बस एक किसान था। मगर उसका वकार, उसका सब्र और इंसानियत से जुड़ा हुआ वह पैगाम आज हर उस शख्स को झकझोर चुका था, जो दूसरों को सिर्फ उनके लिबास से परखते हैं।

जैसे ही असलम खान दफ्तर के दरवाजे से बाहर निकला, अंदर का माहौल पूरी तरह से बदल चुका था। जो लोग अभी तक अपनी कुर्सियों पर अकड़ कर बैठे थे, अब अपने चेहरों पर हाथ रखे जमीन की तरफ देख रहे थे। जैसे वह जमीन फटे और वह उसमें गायब हो जाएं। अब शर्मिंदगी सिर्फ एक एहसास नहीं रही थी। वो उनकी आंखों की झुकी पलकों में, हाथों की कंपकंपी में और सांसों की बेरहमी में उतर चुकी थी।

वो रिसेप्शनिस्ट लड़कियां, जो अभी कुछ वक्त पहले एक बुजुर्ग को फकीर कहकर हंस रही थीं, अब एक-दूसरे की तरफ देखने से भी कतरा रही थीं। उनमें से एक ने धीरे से कहा, “हमने क्या कर डाला? हमने इतने शरीफ और बामुलाहिजा इंसान को सिर्फ उनके हुलिए की वजह से जलील कर दिया और वो तो डीएम का पिता निकला।”

इसी लम्हे, अंदर के मीटिंग रूम का दरवाजा खुला। वही सीनियर मैनेजर, जो नीतियों की निगरानी करता था, बाहर आया। स्टाफ ने उम्मीद भरी निगाहों से उसकी तरफ देखा। शायद यह लम्हा अब संभाल लेगा। मगर वह भी खामोश था। चेहरे पर वही शिकस्तगी, वही शर्मिंदगीगी दर्ज थी।

कुछ पल बाद उसने सिर्फ इतना कहा, “हमें इस वाक्य का अजाला करना होगा,” मगर शायद मुआफी अब काफी नहीं। दफ्तर के एक कोने में बैठा वो अफसर, जो हाथ में कॉफी लिए तंज कर रहा था, अब अपनी मेज पर झुका हुआ गहरी सोच में था। उसने मोबाइल निकाला और इरफान खान का सोशल मीडिया प्रोफाइल खोला। एक ताजा वीडियो में इरफान कह रहा था, “अगर मेरी कामयाबी की बुनियाद कोई है, तो वह मेरे वालिद हैं, जिन्होंने मुझे सादा जिंदगी जीकर इज्जत, खुददारी और इंसानियत की खिदमत सिखाई।”

यह अल्फाज किसी बम से कम ना थे। उन तमाम लोगों के दिल अब चकनाचूर हो चुके थे, जिन्होंने एक अजीम इंसान को सिर्फ उसके कपड़ों से परख कर रद्द कर दिया था। अब सब जान चुके थे। यह उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अखलाकी शिकस्त थी।

उधर बाहर, असलम खान अब एक दरख्त के साए में खड़ा था। हवा हल्की चल रही थी। उसने आसमान की तरफ देखा और दिल में कहा, “या अल्लाह, तूने मुझे सब्र दिया, इज्जत अता की। अब अगर मेरे दिल में कोई तकलीफ आई हो तो माफ कर देना। मैं किसी का बुरा नहीं चाहता, बस चाहता हूं कि लोगों को इंसानियत का सबक फिर से याद आ जाए।”

इसी वक्त, दफ्तर से एक नौजवान स्टाफ मेंबर दौड़ता हुआ आया। हाफता हुआ उसके पास रुका और बोला, “बाबा जी, प्लीज वापस आ जाइए। हमें माफ कर दीजिए। हम सब बेहद शर्मिंदा हैं।”

असलम ने उसकी तरफ देखा। चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान थी, मगर आंखें थकी हुई लग रही थीं। “बेटा, मुआफी से मैं कब इंकार करता हूं। मगर याद रखो, मैं वहां वापस नहीं जाऊंगा। जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता।” यह कहकर उसने अपना बैग फिर से कंधे पर टांग लिया और धीमे कदमों से उस गली की तरफ बढ़ गया, जहां शायद कोई नाम नहीं, कोई ताज नहीं। मगर इज्जत सिर्फ इंसान होने की वजह से मिलती है।

पीछे से आवाजें आती रहीं, “बाबा जी, प्लीज रुक जाइए।” मगर वो नहीं रुका। उस वक्त वो सिर्फ एक इंसान नहीं, एक सबक बन चुका था। एक चलती-फिरती किताब, जो सबके चेहरों पर यह लफ्ज लिख चुकी थी: “ओहदा वक्त होता है, इंसानियत हमेशा रहती है।”

दफ्तर के अंदर सब अब जान चुके थे कि असलम खान कौन था। मगर असली सवाल यह था, क्या अब उन्होंने यह जान लिया कि वह खुद कौन हैं?

दूसरी तरफ, इरफान खान, असलम का बेटा, जो सच में जिले का मजिस्ट्रेट था, खामोशी से फोन सुन रहा था। उसने कहा, “अब्बा, अगर इजाजत हो तो मैं खुद आकर आपके साथ चलूं।”

असलम ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “बेटा, जिंदगी भर खुद चला हूं। यह हज भी अपने कदमों से ही करूंगा। बस दुआ करना, वहां कोई इंसानियत वाले मिल जाएं।”

यह जुमला इरफान के दिल पर बिजली की तरह गिरा। उसने ऑफिस के दरवाजे बंद करवाए, अपनी कुर्सी छोड़ी और खिड़की के सामने आ खड़ा हुआ। उसे एहसास हो गया कि बाप की खामोशी उसके हजार लेक्चरों से ज्यादा असरदार है।

अब असलम खान एक नए हज ऑफिस की तलाश में था। मगर इस बार उसकी आंखों में कोई ख्वाब नहीं, बस इत्मीनान था। उसे अब किसी वीआईपी सेवा, किसी महंगे पैकेज या आलीशान दफ्तर की तमन्ना नहीं थी। अब वह बस उस जगह जाना चाहता था, जहां उसे इंसान समझा जाएगा, जाए ना कि फाइल नंबर या टारगेट।

उसके कदम धीमे थे, मगर हर कदम पीछे एक खामोश इंकलाब छोड़ रहा था। एक ऐसा इंकलाब जो ना खून मांगता है, ना नारे। बस जमीर जगा देता है।

इस बार वह किसी कांच की इमारत या ऐसी ऑफिस की दहलीज पर नहीं पहुंचा। गालियों से गुजरते हुए एक पुराने मोहल्ले में आया। जहां दुकानों के बोर्ड धूल से ढके हुए थे। दीवारों पर मौसम की छाप थी। यहां कोई चमक नहीं थी। ना कोई सजी-संवरी रिसेप्शनिस्ट, ना कोई सिक्योरिटी गार्ड। मगर असलम की आंखों में सुकून था, क्योंकि अब वह वहां नहीं जाना चाहता था, जहां इंसान को उसके कपड़ों से परखा जाता है।

मोहल्ले के आखिर में एक लकड़ी का बोर्ड दिखा: “अमीन हज उमरा कंसलटेंसी—सादा सेवा, सच्ची नियत।” पुराना दरवाजा, खिड़की पर जाला और अंदर से पंखे की धीमी आहट आ रही थी। असलम ने दरवाजा खोला और अंदर चला गया।

दो नौजवान मेज के पास फॉर्म देख रहे थे। एक लड़का तुरंत खड़ा हुआ, जैसे बड़ों के लिए इज्जत उसके दिल से अपने आप निकली हो। “आइए, बाबा जी, तशरीफ लाइए। पानी लाऊं?”

असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं बेटा, मैं हज रजिस्ट्रेशन के लिए आया हूं।” लड़के ने कागज समेटे और कहा, “बाबा जी, हमारे यहां फॉर्म भरना बहुत आसान है। आप बस फॉर्म भर दीजिए। बाकी सब हम देख लेंगे। पैसे बाद में भी आ जाएं तो कोई बात नहीं। हमें आपकी नियत पर भरोसा है।”

यह जुमला जैसे असलम के दिल के जख्म पर मरहम बन गया। ना कोई शक, ना कोई सवाल, ना तफ्तीश, सिर्फ भरोसा जो सिर्फ नियत पर किया जाता है। असलम ने अपना बस्ता रखा। झिप खोलने ही वाला था कि लड़का बोला, “बाबा जी, पहले फॉर्म भरिए। बस्ता बाद में खोलिए। आप हमारी बरकत हैं। आपकी मौजूदगी ही हमारे लिए इज्जत है।”

असलम की आंखें भीग गईं, मगर चेहरे पर रोशनी थी। उसने कलम उठाया और फॉर्म भरने लगा। हर लफ्ज के साथ उसे लग रहा था जैसे उसकी हर दुआ कबूल हो रही है। उसने ना अपनी दौलत का जिक्र किया, ना बेटे के ओहदे का। क्योंकि यहां उसे वह सब मिल रहा था, जो शहर की ऊंची दीवारों के पीछे तलाश रहा था—इंसानियत, वकार और बेलॉस व्यवहार।

रजिस्ट्रेशन पूरा हुआ। लड़के ने धीरे से कहा, “बाबा जी, जब फुर्सत हो तब फीस जमा कर दीजिएगा। हम पहले आपको इंसान समझते हैं, ग्राहक बाद में।” यह काइया आए जुमला असलम खान की जिंदगी की सारी मेहनत पर एक खूबसूरत मोहर था।

उसने बस्ते से पैसे निकाले और कहा, “बेटा, यह 30 साल की मेहनत है। आज लगता है सही जगह लाया हूं।” लड़के ने पैसे को हाथ तक ना लगाया। बस मुस्कुरा कर बोला, “हमारी सेवा भी हज का हिस्सा है। अल्लाह आपकी नियत कबूल करे और हमें आप जैसे बंदे की सेवा का मौका मिला। यही हमारा फक्र है।”

बाहर निकलते वक्त असलम के कदम हल्के हो चुके थे। कुछ बच्चे खेलते हुए आए और घेर लिया। “दादा जी, कहां जा रहे हैं?” असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “बच्चों, मैं अल्लाह के घर जा रहा हूं।” मगर तुम्हारी दुआओं के साथ। पास से एक सब्जी वाली बोली, “अल्लाह आपको सलामत रखे, चाचा। आप हमारे मोहल्ले की बरकत हैं।”

यही तो वह मुकाम था, जहां असलम को वह मिला, जो शहर के शीश महलों में खो गया था। इंसानियत। अब वह जान गया था असली इज्जत ना यूनिफार्म में है, ना टेबल के पीछे की आवाज में, बल्कि उन सादा लहजों, खरी निगाहों और सच्चे दिलों में है, जो कपड़ों से नहीं, किरदार से पहचानते हैं।

अब हज की तैयारी शुरू थी। असलम अपने गांव लौटा। ना उसने किसी से तजलील का जिक्र किया, ना बेटे के ओदे की डींग मारी। बस इतना कहा, “अल्लाह ने मेरा हज कबूल कर लिया है।” अब तालीम का वक्त है।

करीब की जामा मस्जिद में हर जुम्मे के बाद हज की तालीम होती थी। दीवारें पुरानी थीं। फर्श टूटा हुआ। पंखे धीरे-धीरे चलते थे। मगर दिल पाक थे। नियतें साफ और जज्बे खालिस। असलम सबसे पहले आता। सफें सीधी करता। मस्जिद की सफाई करता और अगली सफर में बैठता।

उसके पास कोई बड़ी हज गाइड नहीं थी, ना महंगा बैग। मगर एक पुरानी नोटबुक और स्याही वाला कलम था, जिसमें वह हर हिदायत को नोट करता, हर बात को समझता। इमाम साहब ने भी महसूस किया कि यह बुजुर्ग किसी आम हाजी से जुदा है।

“चाचा असलम, आप तो हर बात बड़ी संजीदगी से नोट करते हैं,” इमाम साहब ने एक रोज कहा। असलम ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “मौलवी साहब, मैं 30 साल से इस लम्हे का इंतजार कर रहा हूं। यह मेरा ख्वाब नहीं, मेरी दुआ है जो कबूल हुई है। अब चाहता हूं कि हर कदम, हर नियत, हर लफ्ज सही हो।”

मस्जिद में जो भी उन्हें देखता, मुतासिर होता। जवान लोग उनके पास आकर दुआएं लेते। बुजुर्ग उनसे मशवरा करते और बच्चे उनसे हज की कहानियां सुनते। गांव के लोग अब उन्हें सिर्फ किसान या बुजुर्ग नहीं, बल्कि एक बावखार शख्सियत मानने लगे थे।

किसी को यह इल्म ना था कि शहर में उनके साथ क्या गुजरी। ना वह बताते, ना किसी से शिकवा करते। एक दिन मस्जिद में एक नौजवान आया, जो हाल ही में शहर से लौटा था। उसने मोबाइल निकाला और एक वीडियो दिखाते हुए कहा, “चाचा, यह आप ही हैं ना जो हज ऑफिस में सबको आईना दिखा आए।”

असलम खान ने वीडियो एक नजर देखी। चेहरे पर एक हल्की मुस्कान उभरी और धीरे से फोन वापस करते हुए बोले, “बेटा, यह वीडियो लम्हाती होते हैं। कल नहीं आ जाएंगी। मगर जो सब कहा, हम किसी को सिखा दें, वह उम्र भर के लिए होता है। मैं बदला लेने नहीं गया था। सिर्फ हज की नियत से निकला था। बाकी सब अल्लाह ने खुद करवा दिया।”

उस दिन के बाद गांव के लोग असलम को और भी ज्यादा इज्जत देने लगे। अब वह सिर्फ असलम खान नहीं थे। वह थे हज पर जाने वाले चाचा असलम, जिन्होंने दुनिया को खामोशी से शर्मिंदा कर दिया। मोहल्ले की औरतों ने उनके लिए एहराम का सफेद कपड़ा धोया। मस्जिद के बच्चों ने उनके बस्ते को साफ करके सुखाया और मौलवी साहब ने ऐलान किया, “चाचा असलम की रवानगी के दिन मस्जिद में खास दुआ होगी।”

वो गांव, जो कभी सिर्फ धान, गेहूं और मिट्टी से पहचाना जाता था, अब फक्र से कहता था, “हमारे यहां से एक ऐसा हाजी जा रहा है, जो सब्र, नियत और खुददारी का पुतला है।” असलम खान, जो जिंदगी भर मिट्टी से जुड़ा रहा, अब रूहानी बुलंदी की तरफ बढ़ रहा था। वह भी अपने उसूल, मेहनत और खामोशी के साथ।

ना कोई चमकदार सफरी बैग, ना कोई ब्रांडेड चप्पल, ना सोशल मीडिया की हेडलाइन। बस वही पुरानी चप्पलें, वही धुला हुआ बस्ता और आंखों में खुदा की रजा का ख्वाब। आखिरकार वो दिन आ ही गया, जिसका असलम खान ने बरसों से इंतजार किया था।

हज की रवानगी के लिए गांव में एक अजीब सी हलचल थी। जैसे कोई अपना खुदा के घर रवाना हो रहा हो। मस्जिद में दुआ का खास इंतजाम हुआ। सफेद एहराम में मलबूस असलम खान जब निहायत सादगी से मस्जिद के दरवाजे पर पहुंचे, तो पूरा मजमा अदब से खड़ा हो गया। मौलवी साहब ने उनके हाथ चूमे और कहा, “आप सिर्फ हाजी नहीं, हमारे गांव की इज्जत हैं।”

बच्चों ने वही पुराना बस्ता, जिसे असलम खान शहर ले गए थे, प्यार से साफ करके उन्हें लौटाया। मोहल्ले की औरतों ने दुआओं के साथ खजूरें और पानी की बोतल रखी। वही बस्ता, जिसे शहर में हिकारत से देखा गया था, आज आंसुओं, दुआओं और मोहब्बतों से भर गया था।

बस स्टैंड तक असलम खान को दर्जनों लोग छोड़ने आए। जैसे ही बस आई, वो धीरे-धीरे सीढ़ियां चढ़ने लगे। पीछे से आवाज आई, “बाबा जी, एक तस्वीर तो खिंचवा लीजिए।” असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं बेटा। हज की नियत तस्वीर से नहीं,

“नहीं बेटा। हज की नियत तस्वीर से नहीं, दिल से होती है।” बस के शीशे से झांकते हुए उनकी आंखों में सुकून था। इत्मीनान था और शुक्र था। उन्हें अब यह समझ आ गया था कि अल्लाह ने उन्हें सिर्फ हज के लिए नहीं, बल्कि दुनिया को आईना दिखाने के लिए भी चुना था।

उधर, शहर का वो हज ऑफिस अब सोशल मीडिया की वायरल वीडियो की वजह से जनता के गुस्से की गिरफ्त में था। लोकल न्यूज़ चैनल्स पर हेडलाइंस चल रही थीं: “डीएम के वालिद की तौहीन—हज ऑफिस का शर्मनाक रवैया, लिबास नहीं, नियत अहम है। एक किसान ने सबका सिखा दिया। जूतों से मत देखो इंसान को। सीखिए असलम खान की कहानी से।”

ऑफिस के कई मुलाजिम सस्पेंड कर दिए गए। और मैनेजर ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “हमें इस वाक्य पर शर्म है। जिस बुजुर्ग के साथ हमने बर्ताव किया, वह हमारे लिए एक सबक बन गए हैं।”

मगर असलम खान को इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ा। ना किसी की माफी का इंतजार, ना किसी हेडलाइन की खुशी, ना किसी मुआवजे की तवको। उनके लिए असल मकसद हज था। अल्लाह का बुलावा। और वह बुलावा आ चुका था।

हज के दौरान वह सादगी से हर मंसक अदा करते रहे। हर कदम पर अल्लाह का शुक्र अदा करते। हरम के सहन में बच्चों को पानी पिलाते। साथ ही हाजियों के जूते सीधा करते। वही असलम खान थे।

जब अराफात की दोपहर आई, वह सबसे अलग एक कोने में बैठे और दुआ मांगी। “या अल्लाह, जिन्होंने मेरा दिल दुखाया, उन्हें माफ कर दे और जिन्होंने मेरे दिल को समझा, उन्हें अपने करीब कर ले। तूने जो इज्जत दी, उसे अमानत समझकर वापस ले आया हूं।”

हज से लौटने पर गांव में फिर से एक जश्न का समा था। मस्जिद में लोग उनसे गले मिले। दुआएं लीं और आंखों में आंसू लिए बोले, “आप हमें सिर्फ खाना-ए काबा की जियारत नहीं दिखाकर लाए। इंसानियत का रास्ता दिखा आए।”

आखिर में, इरफान खान, जो अब भी जिला मजिस्ट्रेट था, ने एक सादा सी सोशल मीडिया पोस्ट लिखी जो देखते ही देखते वायरल हो गई। “मेरा बाप कभी किसी कुर्सी पर नहीं बैठा। ना किसी बड़े ऑफिस का मालिक था, ना सूट पहनता था। मगर उसने मुझे सिखाया कि असली अजमत लिबास में नहीं, नियत में होती है। अगर कोई फकीर लगे, तो पहले दिल देखो। शायद वह अल्लाह के सबसे करीब हो।”

नीचे बस एक लफ्जी तहरीर थी: “हज पर वही जाता है, जिसे अल्लाह बुलाता है, ना कि जिसे इंसान इजाजत देता है।”

आज भी असलम खान वही पुरानी चप्पल पहनते हैं। वही कपड़े, वही बस्ता। मगर अब उनकी कहानी लाखों दिलों में जिंदा है। एक सबक बनकर, एक चिराग बनकर, जो आज के अंधेरे दौर में रोशनी बांट रहा है।

इस तरह, असलम खान ने साबित कर दिया कि असली इज्जत और पहचान कपड़ों या ओहदों से नहीं, बल्कि इंसानियत, मेहनत और नेक नियत से होती है। उनकी कहानी ने न सिर्फ उनके गांव को, बल्कि पूरे समाज को एक नई दिशा दी, जहां हर इंसान को उसके किरदार और नियत के आधार पर देखा जाएगा, ना कि उसके बाहरी रूप से।

असलम खान की यात्रा केवल हज तक सीमित नहीं रही; यह एक संदेश बन गई, जो हर दिल में गूंजता है: “इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है।”